पिछले साल मैं यूरोप के दौरे के समय यूक्रेन की राजधानी कीव गया था। वहां मुझे अंतरराष्ट्रीय योग दिवस पर भारतीय दूतावास द्वारा आयोजित कार्यक्रम में हिस्सा लेना था। मुझे बताया गया कि यूक्रेन में करीब 15 हजार भारतीय छात्र मेडिकल की पढ़ाई कर रहे हैं। मुझे यह जानकर बड़ा आश्चर्य हुआ कि अधिकांश फैकल्टी सदस्य भी भारत से हैं। मुझे ऐसी ही स्थिति मॉरीशस में दिखी, जहां स्थानीय मेडिकल कॉलेजों के अनेक छात्र और फैकल्टी भारत से हैं। पूरी दुनिया में प्रतिष्ठित टेक्निकल स्कूलों को करीब से देखने के बाद पता चला कि वहां शीर्ष नेतृत्व के अलावा भारतीय छात्र और फैकल्टी की काफी संख्या है। मानना पड़ेगा कि अंतरराष्ट्रीय संस्थानों में भारतीय छात्रों और फैकल्टी द्वारा किए गए अनुसंधान कार्य उत्कृष्ट हैं। यूरोप दौरे के बाद मैंने हैदराबाद में इंडियन स्कूल ऑफ बिजनेस (आइएसबी) का दौरा किया। आइएसबी के एक साल के एमबीए कोर्स को वाल स्ट्रीट जर्नल/टाइम्स हायर एजुकेशन ग्लोबल रैंकिंग में दूसरा स्थान मिला है। हांगकांग यूनिवर्सिटी (एचकेयू) पहले स्थान पर है। चाहे संसाधन (फैकल्टी, छात्र, उनकी योग्यता, करिअर सपोर्ट) हो या फिर क्रियाकलाप (पठन-पाठन, प्रासंगिकता, अनुसंधान) और परिणाम (वेतन वृद्धि, नेटवर्क, अवसर), आइएसबी का प्रदर्शन हर मामले में बेहतर रहा। लेकिन आइएसबी, एचकेयू से माहौल (विदेशी छात्र, महिला छात्र, विदेशी फैकल्टी और स्टाफ) के मामले में पीछे रह गया। इससे यह तो स्पष्ट है कि अध्यापक और छात्रों की गुणवत्ता के मामले में हम किसी से पीछे नहीं हैं।
मेरा विश्वास है कि हमारे पास दुनिया का नेतृत्व करने की क्षमता है। हालांकि हमारे संस्थान अंतरराष्ट्रीय संस्थानों से काफी पीछे हैं। 19 जून को क्यूएस ग्लोबल एजुकेशन ग्रुप ने लंदन में पूरी दुनिया की यूनिवर्सिटीज की नई रैंकिंग जारी की। इसमें 82 देशों की 1,000 यूनिवर्सिटीज को शामिल किया गया। मैसाच्युसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी (एमआइटी) इस साल भी दुनिया की सर्वश्रेष्ठ यूनिवर्सिटीज का दर्जा कायम रखने में सफल रही। एमआइटी लगातार आठ साल से शीर्ष पर है। भारत के आइआइटी मुंबई को 152वीं, आइआइटी दिल्ली को 182वीं और आइआइएससी बेंगलूरू को 184वीं रैंकिंग मिली। 1,000 शीर्ष यूनिवर्सिटीज में भारत के 23 संस्थानों को स्थान मिला। रैंकिंग में चीन के मुख्य भूभाग की यूनिवर्सिटीज का प्रदर्शन हमसे बेहतर रहा।
मुझे इस पर भी आश्चर्य होता है कि जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटीज, बनारस हिंदू यूनिवर्सिटीज और दिल्ली यूनिवर्सिटीज जैसी भारतीय यूनिवर्सिटीज का प्रदर्शन राष्ट्रीय रैंकिंग में तो अच्छा रहता है, लेकिन वे ग्लोबल रैंकिंग में स्थान नहीं बना पाती हैं। सवाल है कि हम अंतरराष्ट्रीय स्तर पर लगातार विफल क्यों हो रहे हैं? मुख्य चुनौती है कि हम स्कूल से लेकर उच्च शिक्षा तक हमेशा रटकर लिखने पर फोकस करते हैं। जबकि अंतरराष्ट्रीय रैंकिंग वाले संस्थानों में स्वतंत्र सोच, इनोवेशन, समस्या के समाधान और रिसर्च पर जोर दिया जाता है। दूसरी चुनौती है कि हमारी रिसर्च का प्रकाशन कम प्रभावकारी जर्नल तक ही सीमित है। हम पिछड़ रहे हैं क्योंकि बेहतरीन इन्फ्रास्ट्रक्चर की कमी है और शिक्षण संस्थानों में बड़ी संख्या में पद खाली पड़े हैं। बौद्धिक संपदा अधिकारों को लेकर भी हमारे यहां जागरूकता की कमी है।
प्रधानमंत्री के नेतृत्व में हम अपने संस्थानों को ग्लोबल स्तर पर प्रतिस्पर्धी बनाने के लिए काम कर रहे हैं। नई शिक्षा नीति लागू होने के बाद देश की शिक्षण व्यवस्था में बड़ा बदलाव आएगा। नीति में सभी पक्षों के सुझाव लेने के लिए अंतिम तारीख बढ़ाकर 31 जुलाई की गई है। हम स्वतंत्र और इनोवेटिव माहौल बनाने पर फोकस कर रहे हैं, जहां अध्ययन के परिणाम पर भी ध्यान दिया जाएगा। रिसर्च ऐंड डेवलपमेंट गतिविधियों के लिए हाल के बजट में रिकॉर्ड बढ़ोतरी और प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में नेशनल रिसर्च फाउंडेशन के गठन से इनोवेशन और आरऐंडडी को समर्थन देने वाला माहौल तैयार होगा।
रैंकिंग करने वाले संस्थान कैंपस में विविधता को भी देखते हैं, यानी विदेशी छात्रों और अध्यापकों की अच्छी संख्या होनी चाहिए। भारत जैसे विकासशील देश के लिए यह बहुत कठिन है। आकार के लिहाज से भारत एक उपमहाद्वीप है। मेरे विचार से अगर अरुणाचल प्रदेश या उत्तराखंड से कोई व्यक्ति बेंगलूरू में अध्ययन करता है तो उसे कैंपस की विविधता के तौर पर माना जाना चाहिए। यह अच्छी बात है कि सरकार “भारत में अध्ययन” के प्रोग्राम को मजबूत बनाने का प्रयास कर रही है। इसका उद्देश्य देश में विदेशी छात्रों को आकर्षित करना है। हमें अंतरराष्ट्रीय छात्रों को आकर्षित करने के लिए समयबद्ध योजना के साथ संस्थान स्तर पर प्रभावी रणनीति तैयार करनी होगी।
रिसर्च एकमात्र क्षेत्र है, जिसके जरिए भारतीय संस्थान रैंकिंग सुधार सकते हैं। हाल में रैंकिंग करने वाले संगठनों के साथ बैठक में मैंने इस बात पर जोर दिया कि अध्यापन, रिसर्च और पहुंच के मामले में सभी संस्थान एक जैसे नहीं होते। इसलिए एक जैसे मानक लागू करना उचित नहीं होगा।
अधिकांश रैंकिंग सिस्टम जैसे टाइम्स वर्ल्ड यूनिवर्सिटीज रैंकिंग, क्यूएस वर्ल्ड यूनिवर्सिटीज रैंकिंग, अकादमिक रैंकिंग ऑफ वर्ल्ड यूनिवर्सिटीज और वेबोमेट्रिक्स यूनिवर्सिटी के अध्ययन, अनुसंधान और अंतरराष्ट्रीय स्वीकार्यता जैसे मानकों पर निर्भर होते हैं। लेकिन मैंने उन्हें स्पष्ट रूप से कहा कि एक उपमहाद्वीप होने के नाते भारत की अपनी कुछ खासियतें हैं। जब बात भारत की हो तो हमें सामाजिक और आर्थिक समावेश में यूनिवर्सिटी की भूमिका पर भी विचार करना चाहिए। मेरा विश्वास है कि सरकार के सक्रिय समर्थन और इंडस्ट्री में इनोवेशन से हम अपने संस्थानों में रिसर्च को बढ़ावा दे सकते हैं और इसकी संस्कृति विकसित कर सकते हैं। छात्रों की कुशलता बढ़ाने के लिए हम उच्च शिक्षा में बदलाव ला सकेंगे और भारत और विश्व की मांग को पूरा कर सकेंगे। तब, हमारे संस्थानों द्वारा किए गए अच्छे कार्य दूसरे स्थानों पर दोहराए जा सकते हैं।
यह खुशी की बात है कि चुनौतियां होने के बावजूद भारतीय यूनिवर्सिटीज कुछ ग्लोबल फीचर अपनाने में सफल रहे। उन्होंने अपने प्रदर्शन में काफी सुधार किया है। मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने तकनीकी शिक्षा में सुधार के लिए “एजुकेशन क्वालिटी इंप्रूवमेंट ऐंड इंक्लूजन प्रोग्राम” तैयार किया है। इससे शिक्षा के स्तर और रिसर्च में सुधार आएगा। हमारे संस्थानों को अपनी रैंकिंग सुधारने पर फोकस करने के साथ ही उच्च शिक्षा का प्रसार बढ़ाने, इसे समावेशी और सामाजिक तौर पर प्रासंगिक बनाने और उत्कृष्टता पर ध्यान देना चाहिए। हम अपने स्तर पर रैंकिंग संगठनों को भी ज्यादा समावेशी बनाने के लिए प्रयास कर रहे हैं। मुझे विश्वास है कि सभी पक्षों के समन्वित प्रयासों से हम अपने संस्थानों को रणनीतिक रूप से प्रतिस्पर्धी बना सकेंगे और भारत विश्व को नेतृत्व देने में सफल होगा।
(लेखक केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री हैं)