हमारे देश के वर्तमान संकट में सबसे अधिक बुद्ध याद आते हैं। रोग, वृद्धावस्था और मृत्यु के प्रश्नों ने राजकुमार सिद्धार्थ को न केवल विचलित किया, वरन इन प्रश्नों के हल ढूंढ़ने के लिए उन्हें प्रतिबद्ध भी किया था।
हमें आधुनिक इक्कीसवीं शताब्दी में लाखों लोगों की आकस्मिक तथा दुखद मृत्यु और करोड़ों लोगों के असहाय हो गए जीवन को देखकर सिद्धार्थ के अंतर्मन की पीड़ा को समझना होगा। अगर हम ऐसा नहीं सोचते हैं तो यह भी अपने आप में हमारी मानवीयता पर ही उठा एक प्रश्न होगा। बुद्ध के संदेश लोकप्रिय फिल्मों और पुस्तकों की व्याख्या के कारण दुख से पलायन के संदेश की तरह सार्वजनिक हुए हैं। बुद्ध की शरण में जाने का अर्थ सांसारिकता से भागना कभी नहीं रहा है। इस कोरोना काल के संदर्भ में बुद्ध के संदेशों का पाठ उसके सही अर्थों में पुन: स्थापित करना एक महत्वपूर्ण काम सिद्ध होगा। रोग, वृद्धावस्था और मृत्यु के प्रश्नों को बुद्ध की दृष्टि से देखना-समझना नई सामाजिक-अंतरदृष्टि की रचना है।
रोग, वृद्धावस्था और मृत्यु के साक्षात्कार ने युवा राजकुमार सिद्धार्थ को प्रश्नांकित कर दिया था। वे लगातार इन विषयों पर चिंतन-मनन करने लगे थे। यह बात उनकी पत्नी यशोधरा भी जानती-समझती थीं। प्रख्यात विद्वान तिकन्यातहन्ह लिखते हैं कि यशोधरा को ज्ञात था कि अब राजकुमार निकल जाने वाले हैं। यशोधरा ने ही सिद्धार्थ की तैयारी कर रखी थी। उस रात वे सोने का अभिनय कर रही थीं। वे राजकुमार और स्वयं को विरह की पीड़ा में डुबाना नहीं चाहती थीं। आज हमारी सामाजिक प्रतिबद्धता के सारे प्रश्न इस विरह-वेदना के प्रश्न पर आकर ही तिरोहित हो जाते हैं। विश्व साहित्य का सर्वश्रेष्ठ उन लेखकों से ही समाज में प्रवाहित होता है, जो अपनी पारिवारिक विरह वेदना पर विजय पाकर शासन व्यवस्था को चुनौती देकर अडिग खड़े रहते हैं।
सिद्धार्थ गंगा नदी पार करके मगध साम्राज्य में भीतर तक चलते गए। वे मगध साम्राज्य के घने वन क्षेत्र में पहुंचे जहां कठोर तपस्या कर रहे साधुओं से उनकी भेंट हुई। वे अपने शरीर को इसीलिए तपा रहे थे कि मृत्यु के बाद उन्हें स्वर्ग में जन्म मिले। सिद्धार्थ ने उन साधुओं से कहा, ‘‘भले ही आपका जन्म स्वर्ग में हो, किन्तु पृथ्वीवासियों की पीड़ाएं ज्यों की त्यों रहेंगी। सद्धर्म की खोज का अर्थ है जीवन की पीड़ाओं का समाधान निकालना, न कि जीवन से पलायन।’’
सिद्धार्थ एक दिन पहाड़ से उतरकर भिक्षा-पात्र लेकर भिक्षाटन के लिए राजधानी राजगृह आए थे। उनके सौम्य और आभायुक्त मुखमंडल को देखकर सभी प्रभावित हो रहे थे। उसी समय मगध के राजा बिंबसार ने भी उन्हें देखा। अगले दिन राजा बिंबसार वन क्षेत्र में सिद्धार्थ के निवास-स्थल पहुंच गए।
बिंबसार के राजधानी चलने के प्रश्न पर सिद्धार्थ ने कहा, ‘‘मेरी इच्छा है कि ऐसा मार्ग खोज सकूं, जिससे समस्त प्राणियों को दुख से छुटकारा मिल सके। युवावस्था की शक्ति और ऊर्जा का मैं अभी प्रयोग नहीं करूंगा तो वृद्धावस्था के शीघ्र आने पर मुझे अत्यधिक खेद होगा। जीवन इतना अनिश्चित है कि रोग और मृत्यु कभी भी दबोच सकते हैं।’’ यहां यह प्रश्न उठना चाहिए कि क्या मानव इतिहास में रोग और मृत्यु का ऐसा तांडव हुआ होगा जैसा हम आज देखने को अभिशप्त हैं? बावजूद कुछ क्षणों के श्मशान वैराग्य के हम अपनी सामाजिकी और आर्थिकी में रोग और मृत्यु के बाद भी निज-हित साधना के प्रयोजन में लिप्त हैं। यह वह समय है, जिसमें हमें अपने आदमकद को बुद्ध के विचारों से मापना चाहिए और मृत्यु की मानव-निर्मित विभीषिका के विरुद्ध संकल्पशील होना चाहिए।
इस समय रोग और मृत्यु के साथ-साथ बेरोजगारी, गरीबी, भूख, अस्वास्थ्य, अशिक्षा और शासक-वर्ग की अकर्मण्यता सभी आमजनों को पीडि़त कर रही है। असमय बूढ़े होते युवा दिग्भ्रमित और दिशाहीन होकर कातर दृष्टि से प्रश्न पूछ रहे हैं। बुद्ध का दर्शन पलायन का दर्शन नहीं है। वह सामाजिक प्रश्नों से डरकर शरणागत होने को भी नहीं कहता है।
बुद्ध 12 वर्षों तक समाधि में रहकर सत्य के दर्शन कर पाए थे। विवेकानंद के अनुसार, ‘‘दूसरों के जीवन का अंधेरा ही बुद्ध के आलोक की कसौटी थी- सोच और सोच की कसौटी से ही दुनिया बदलती है।’’ हमारे जीवन का प्रकाश और सुख भी दूसरों के जीवन के अंधेरे और दुख को हटाने की कसौटी है। अनैतिकता सुख भरी दिखती है और नैतिकता दुख भरी होती है। यह जानकर भी व्यक्ति का मन सदा सुख के पक्ष में झुका रहता है। पर बुद्ध दुख का सामना करने का संदेश देते हैं।
बुद्ध ने कहा है कि मेरी शिक्षाएं कोई दर्शन नहीं है। ये तो प्रत्यक्ष अनुभूति के परिणाम हैं। वे यह भी कहते हैं कि भावनाएं तीन प्रकार की होती हैं- सुखद, दुखद और तटस्थ। तीनों प्रकार की भावनाओं का मूल है शरीर और चित्त के संकल्प और विकल्प। देश के संकटकाल में भी सुखद और तटस्थ भाव का बने रहना सदा समकालीन सामाजिक व्यवस्थावादियों के पक्ष में ही रहता है। महाराज प्रसेनजित से बुद्ध कहते हैं, ‘करुणा सर्वाधिक आवश्यक है... अगर आप दूसरे व्यक्ति का दुख नहीं समझ सकते, तो आप मानव ही नहीं हैं।’ बुद्ध कहते हैं- ‘‘आठवीं अनुभूति यह ज्ञान है कि हम केवल आत्ममुक्ति के लिए साधना न करें, वरन हमें अपना सर्वस्य अन्य सभी लोगों को मुक्ति के द्वार तक पहुंचाने में लगा देना चाहिए।’’
अब इससे अधिक स्पष्ट और क्या संदेश हो सकता है। ऐसा माना जाता है कि बोधि-वृक्ष के नीचे सद्धर्म का मार्ग मिलने से वे बुद्ध हो गए थे। पर इसके साथ यह भी ध्यान में रखना होगा कि उस मगध राज्य की मगधी भाषा में बुद्ध को आज भी ‘जागृति’ कहते हैं। अत: हम कह सकते हैं कि जागृत होना भी बुद्धत्व प्राप्त करना है। मानव जीवन के इतिहास में कई देशों के संक्रांति-काल में ‘पुनर्जागरण’ के कई बार अवसर आए हैं। क्या हम इक्कीसवीं शताब्दी में कोरोना जनित संक्राति में किसी भारतीय पुनर्जागरण की संभावना देख सकते हैं?
(लेखक समालोचक और टिप्पणीकार हैं)