भले सुप्रीम कोर्ट ने लाखों आदिवासियों को राहत देते हुए 13 फरवरी के अपने फैसले पर 28 फरवरी को अस्थाई रोक लगा दी, लेकिन संकट अब भी टला नहीं है। इस मामले में जुलाई के बाद ही तस्वीर साफ हो पाएगी, जब उन्हें जमीन से बेदखल करने की समय-सीमा तय की गई है। शीर्ष अदालत के आदेश के कारण इक्कीस राज्यों के जंगल में वर्षों से रह रहे आदिवासियों को अपना घर और जमीन छोड़ने पर मजबूर होना पड़ता। लेकिन, शुक्र मनाइए आम चुनावों का जिससे आदिवासी वोटों की खातिर राजनैतिक पार्टियों के कान खड़े हो गए। सो, भाजपा अनुसूचित जनजाति वर्ग की नाराजगी दूर करने और कांग्रेस इसके बहाने उनके बीच अपनी पैठ मजबूत करने के जुगत में लग गई है। दरअसल, केंद्र और राज्य सरकारों की अनदेखी से आज यह संकट इतना बड़ा हो गया है।
देश में अनुसूचित जनजाति वर्ग के लिए लोकसभा की 47 सीटें आरक्षित हैं। फिलहाल, इनमें से 26 सीटें भाजपा के पास हैं। कभी इस वर्ग पर कांग्रेस की मजबूत पकड़ थी। लेकिन, अब उसके पास छह आदिवासी सांसद ही हैं। यही कारण है कि कांग्रेस ने इस मुद्दे को लपकने में देर नहीं की।
कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने केंद्र सरकार पर सुप्रीम कोर्ट में मूकदर्शक बने रहने का आरोप लगाते हुए वंचितों के हित में लड़ाई की बात कही। साथ ही कांग्रेस शासित राज्यों को पुनर्विचार याचिका दायर करने को भी कहा। इसके बाद केंद्र सरकार के भी कान खड़े हो गए। कुछ राज्यों के साथ केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में रिट लगाई और 28 फरवरी को कोर्ट ने अपने आदेश पर रोक लगा दी।
भाजपा अनुसूचित जनजाति मोर्चा के राष्ट्रीय अध्यक्ष रामविचार नेताम ने आउटलुक से कहा, “आदिवासी और वनवासियों को वन-भूमि से बेदखल करने के फैसले से यकीनन अगले चुनाव में पार्टी को नुकसान होता। लेकिन अब कोर्ट के स्टे से भाजपा को फायदा होगा। इस मामले में गुजरात सरकार ने पहल की और सुप्रीम कोर्ट में रिट लगाई। कांग्रेस केवल प्रचार कर रही है। कांग्रेस शासित किसी राज्य ने सुप्रीम कोर्ट में पुनर्विचार याचिका नहीं लगाई।” उनके मुताबिक, वनवासियों को पट्टे देने और उनकी दावा-आपत्ति को सुनना राज्यों का काम है, इसलिए सुप्रीम कोर्ट में पक्ष रखना भी राज्यों का काम था। कांग्रेस बेवजह केंद्र सरकार पर आरोप लगा रही है।
दूसरी तरफ, कांग्रेस इस मुद्दे को धार देने में जुटी है। छत्तीसगढ़ कांग्रेस के आदिवासी प्रकोष्ठ के अध्यक्ष अमरजीत भगत के अनुसार, इस फैसले ने मोदी सरकार के उद्योग समर्थक और गरीब विरोधी चरित्र को उजागर कर दिया है। उन्होंने कहा, “छत्तीसगढ़ में जो बड़े पैमाने पर वन अधिकार पट्टों का रिजेक्शन हुआ है उसके पीछे प्रशासनिक लापरवाही और राजनैतिक इच्छाशक्ति की कमी रही। वन अधिकार कानून का सही पालन छत्तीसगढ़ की भाजपा सरकार ने नहीं किया।” छत्तीसगढ़ में अनुसूचित जनजाति के लिए चार सीटें आरक्षित हैं। अभी चारों ही भाजपा के पास हैं। मध्य प्रदेश में इस वर्ग के लिए सर्वाधिक छह सीटें आरक्षित हैं। रतलाम-झाबुआ सीट को छोड़कर शेष पांच पर भाजपा के सांसद हैं। ओडिशा और झारखंड में 5-5 तथा महाराष्ट्र और गुजरात में 4-4 सीटें आरक्षित हैं। झारखंड और गुजरात की सभी एसटी सीटों पर भाजपा का कब्जा है। महाराष्ट्र की अधिकांश सीटें भी उसके पास है। ओडिशा से भी उसका एक आदिवासी सांसद है।
वन-भूमि पर सबसे ज्यादा अतिक्रमण मध्य प्रदेश और ओडिशा के जंगलों में है, जहां क्रमश: साढ़े तीन लाख और डेढ़ लाख लोगों के वनाधिकार दावे खारिज हुए हैं। गैर सरकारी संगठन ‘वाइल्ड लाइफ फर्स्ट’ ने सुप्रीम कोर्ट में 2008 में याचिका दायर कर ‘वन अधिकार कानून-2006’ को चुनौती दी थी। इसमें मांग की गई थी कि जिन लोगों के जंगल में रहने के दावे खारिज हो गए हैं, उन्हें वहां से निकाला जाए। याचिका में दावा किया गया था कि देश भर में किए गए 44 लाख दावों में 20 लाख से ज्यादा दावे खारिज हो चुके हैं। वन अधिकार कानून- 2006’ बनने से पहले अंग्रेजों के जमाने का कानून चल रहा था। वैसे, 1902-1908 के सर्वे सेटलमेंट के वक्त जंगल पर आदिवासियों के परंपरागत अधिकारों को मान्यता दी गई थी। 2006 के कानून के तहत वनवासियों को ही जंगलों में रहने का प्रमाण-पत्र ग्राम सभा को देना था। झारखंड में ग्राम सभा के अनुमोदन पर 1,07,187 आदिवासी परिवार एवं 3,569 अन्य पारंपरिक वनवासियों को जमीन के पट्टे देने के लिए सरकार के समक्ष दावा पेश किया गया था। छत्तीसगढ़ के ट्राइबल डिपार्टमेंट के एक अधिकारी का कहना है कि ग्राम सभा और निचले स्तर पर गड़बड़ी की वजह से यह समस्या पैदा हुई है। राज्यों द्वारा दायर हलफनामों के अनुसार, वन अधिकार अधिनियम के तहत अब तक अनुसूचित जनजाति और अन्य पारंपरिक वनवासियों द्वारा किए गए 11,72,931 भूमि स्वामित्व के दावों को विभिन्न आधारों पर खारिज कर दिया गया है। तीन राज्यों मध्य प्रदेश, कर्नाटक और ओडिशा में भूमि के स्वामित्व के कुल दावों का 20 फीसदी हिस्सा है, जिन्हें अस्वीकार कर दिया गया है। मध्यप्रदेश के रीवा संभाग के वन क्षेत्रों में रहने वाले 50 हजार से ज्यादा लोग बेदखल हो जाएंगे। वहीं, जिन राज्यों ने अदालत को अभी तक ऐसी जानकारी उपलब्ध नहीं कराई है, उन्हें उपलब्ध कराने को कहा गया है। उनके द्वारा जानकारी उपलब्ध कराए जाने के बाद यह संख्या बढ़ भी सकती है।
उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, बिहार, झारखंड, गुजरात, राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, असम, मणिपुर और पश्चिम बंगाल समेत 21 राज्यों के मुख्य सचिवों से कोर्ट ने कहा है कि वे इस आदेश की पालन-रिपोर्ट जुलाई में पेश करें। कोर्ट ने मुख्य सचिवों से कहा है कि वे यह भी बताएं कि दावे खारिज होने के बाद भी वनवासी क्यों नहीं निकाले गए हैं?
जल और जंगल पर पहला अधिकार आदिवासियों का माना जाता है। कई संगठन इसके लिए आंदोलन भी कर रहे हैं। नक्सली संगठन भी जल, जंगल और जमीन पर आदिवासियों का अधिकार मानते हैं। आजसू अध्यक्ष सुदेश कुमार महतो का कहना है कि वनाधिकार कानून 2006 को सरकार अगर सख्त और पारदर्शी तरीके से लागू करती, तो ऐसी परिस्थिति पैदा नहीं होती। सरकार ने गंभीरता से इस मसले पर कदम नहीं उठाए, तो टकराव बढ़ सकते हैं। झामुमो के केंद्रीय महासचिव सुप्रियो भट्टाचार्य ने बताया कि वन अधिकार अधिनियम 2006 की मूल भावना में यह सुनिश्चित था कि वनोपज पर सामुदायिक हक उस जंगल ग्राम के आदिवासी-मूलवासी का होगा और वनोपज के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य भी देय होगा।
सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के बाद आदिवासी इलाकों में विरोध के स्वर सुनाई देने लगे हैं। वनवासियों को पट्टे दिलाने के लिए लगातार संघर्ष और आंदोलन करने वाले रघु ठाकुर का कहना है कि केंद्र और राज्य सरकार की लापरवाही की वजह से ऐसी स्थिति बनी है। कानून में वनों में रहने वालों को वैकल्पिक जमीन देने का भी प्रावधान है। वैकल्पिक व्यवस्था के बिना बेदखली से भयावह स्थिति पैदा हो जाएगी। उनके अनुसार, केंद्र और राज्य सरकारें गंभीरता से लेकर कोर्ट के सामने सही स्थिति रखतीं तो यह स्थिति पैदा नहीं होती। आदिवासी और वोट बैंक से जुड़ा मुद्दा होने के कारण अब सरकारें जागी हैं।
मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनाव में आदिवासी इलाकों में कांग्रेस को काफी सफलता मिली थी। इसलिए, वह आदिवासी बहुल इलाकों में इसे भुनाने की कोशिश में है। वहीं, भाजपा डैमेज कंट्रोल के प्रयास में लगी है। अब नजरें इस बात पर टिकी हैं कि वन-भूमि पर अधिकार का मुद्दा केवल चुनाव तक ही सीमित रहता है या फिर आदिवासियों के हित में ठोस कदम भी उठाए जाते हैं।