आगरा में जुलाई 2001 में भारी गहमागहमी का माहौल था। हवा में ऐसी गूंज थी कि कोई ऐसा हल निकलने वाला है जिससे रिश्तों की बर्फ कुछ स्थाई-सी पिघलेगी। न सिर्फ अटलबिहारी वाजपेयी की सरकार, बल्कि पाकिस्तान के फौजी हुक्मरान जनरल परवेज मुशर्रफ की ओर से भी कुछ ऐसी ही फिजा बनाई जा रही थी। समूचा देसी-विदेशी मीडिया उतर आया था। शायद ही कोई स्वनामधन्य संपादक हो जो वहां मौजूद नहीं था। मुशर्रफ के न्यौते पर नाश्ते की मेज पर पहुंचे संपादकों की तो जैसे बांछें खिली हुई थीं। तारीफों, कहकहों के दौर चल रहे थे। कहते हैं, मुशर्रफ चार सूत्र लेकर नमूदार हुए थे- इनमें दोनों तरफ के मौजूदा नियंत्रण वाली सीमा को मान्यता देना, सीमा पर फौज की तैनाती घटाना और कश्मीर तथा सीमा के आर-पार लोगों की आवाजाही तथा व्यापार को छूट देना शामिल था। फिर, औपचारिक ऐलान के मुताबिक, आतंकवाद पर काबू करने के तरीकों तथा समझौते में कश्मीर के जिक्र के सवाल पर वार्ता टूट गई।
लेकिन कुल माहौल जादू-सा था। लगभग यह भुला-सा दिया गया था कि अभी दो साल पहले 1999 में हुए करगिल युद्घ का सूत्रधार यही शख्स था। इसी शख्स की वजह से वाजपेयी की लाहौर बस यात्रा से बना माहौल बेमानी हो गया था और तब पाकिस्तान के वजीरे आजम रहे नवाज शरीफ की कथित शांति पहल भी धरी रह गई थी। शरीफ ने ही तीन वरिष्ठ अधिकारियों को किनारे कर मुशर्रफ को फौज की कमान सौंपी थी। मुशर्रफ ने कथित तौर पर गुप्त करगिल कार्रवाई को अंजाम देकर नवाज की नाराजगी मोल ली, लेकिन बाजी भी उन्होंने ही पलट दी और तख्तापलट कर के नवाज को गिरफ्तार कर लिया।
मुशर्रफ के ये विरोधाभासी गुण अंतरराष्ट्रीय कूटनीति में भी उतनी ही शिद्दत से जाहिर हुए। आगरा समिट के तकरीबन छह महीने बाद भारतीय संसद पर कथित तौर पर जैश-ए-मोहम्मद के आतंकी हमले के बाद रिश्ते बिगड़ गए। बाद में यूपीए के कार्यकाल में मनमोहन सिंह सरकार के साथ भी लगभग 2007 तक मुशर्रफ बैक चैनल बातचीत चलाते रहे, जिसके बाद उन्हें सत्ता छोड़नी पड़ गई। कहते हैं, मनमोहन सरकार के साथ बातचीत उन्हीं चार सूत्रों के आसपास अंतिम मुकाम पर पहुंचने वाली थी। कहा यह भी जाता है कि एक बार संयुक्त राष्ट्र आमसभा में मुशर्रफ ने भारत के खिलाफ तीखा अंदाज दिखाया, लेकिन वहीं जब मनमोहन से मिले तो कह गए, “उस पर तवज्जो न दीजिएगा, वह किसी नौकरशाह का लिखा रवायती भाषण था।”
मुशर्रफ कुछ ऐसी ही बाजी अमेरिका के साथ भी खेलने में कामयाब रहे थे। वे 9/11 के आतंकी हमले के बाद अमेरिका के साथ आतंकवाद विरोधी जंग के सहयोगी थे, लेकिन पाकिस्तान में ओसामा बिन लादेन के ठिकाने को लेकर एक शंका बनी हुई थी। इसके बावजूद तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश ने कहा, “मुशर्रफ सहयोगी हैं और वे ऐसा नहीं कर सकते।” बाद में राष्ट्रपति ओबामा के कार्यकाल में ओसामा को पाकिस्तान के ऐबटाबाद में ही मार गिराया गया।
मुशर्रफ अपने देश में भी आतंकवादियों को शह देते रहे और जैश-ए-मोहम्मद, पाकिस्तानी तालिबान पर हमलावर भी बने रहे। राजकाज में भी पाकिस्तान मध्य और उच्चवर्ग को वे खुश करते रहे जिससे देश पर गैर-बराबरी और कर्ज का बोझ बढ़ता रहा।
खैर, लंबे निर्वासित जीवन और कैंसर से जंग लड़ने के बाद 78 साल की उम्र में बीती 5 फरवरी को मुशर्रफ का निधन हो गया। 11 अगस्त 1943 में सरकारी अधिकारी सैयद मुशर्रफुद्दीन और उनकी पत्नी जरीन मुशर्रफ के घर जन्मे परवेज तीन भाइयों में सबसे छोटे थे। 1947 में यह परिवार दिल्ली छोड़कर चला गया। तब वे चार साल के थे। उनकी परवरिश पाश्चात्य माहौल में हुई। उनके पिता अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में और मां दिल्ली के इंद्रप्रस्थ कॉलेज में पढ़ी थीं। कुछ साल तुर्की में बिताने के बाद उनका परिवार 1956 में पाकिस्तान लौटा। फॉर्मन क्रिश्चियन कॉलेज यूनिवर्सिटी में पढ़ाई कर के मुशर्रफ 18 साल की उम्र में काकुल में पाकिस्तान सैन्य अकादमी चले गए।
अपनी पीढ़ी के कई सैन्य अधिकारियों की तरह मुशर्रफ ने भी 1965 के भारत-पाकिस्तान युद्ध में हिस्सा लिया और 1971 में विशिष्ट स्पेशल सर्विस ग्रुप के साथ जंग लड़ी। उन्होंने 1987 में सियाचिन ग्लेशियर से लगे इलाके में अभियान-जो नाकाम रहा-के दौरान एक ब्रिगेड की कमान संभाली। इसी दौरान उनके दिमाग में करगिल चढ़ाई की बात आई थी, जिसे उन्होंने 1988-1989 में तत्कालीन वजीरे आजम बेनजीर भुट्टो के समक्ष रखा और कहा कि करगिल पर कब्जा कर के ग्लेशियर को हथियाना आसान है। कथित तौर पर इस पर उन्हें फटकार झेलनी पड़ी थी।
अरसे बाद 2008 में पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी-पाकिस्तान मुस्लिम लीग की नई सरकार आई तो उन पर महाभियोग चलाया गया और उन्हें निर्वासन पर मजबूर किया गया। तीन साल बाद मुशर्रफ पाकिस्तान लौट आए, लेकिन उनके राजनीतिक करिअर की सारी संभावनाएं खत्म हो चुकी थीं। 2013 में उन्हें घर में नजरबंद रखा गया। सेना प्रमुख जनरल राहिल शरीफ के साथ घनिष्ठ व्यक्तिगत संबंधों के कारण अगले साल उन्हें इलाज के लिए देश छोड़ने की अनुमति मिल गई, लेकिन दिसंबर 2019 में एक विशेष अदालत ने उन्हें देशद्रोही करार दिया और संविधान को रद्द करने और आपातकाल घोषित करने के लिए उनकी गैरमौजूदगी में ही मौत की सजा सुनाई, हालांकि बाद में दोषसिद्धि रद्द कर दी गई। पर मुशर्रफ कभी अपने वतन नहीं लौट पाए।