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स्मृति: एक ‘भाव विप्लवी’का अवसान

गदर को आम तौर से नक्सल धारा के गायक और कवि के रूप में पहचाना जाता है
गुम्मादि विट्टल राव ‘गदर’(4 मई 1947-6 अगस्त 2023)

दिल्‍ली में वह 2006 की एक साधारण-सी सुबह थी, जिसे दिन ढलते इतिहास में दर्ज हो जाना था। रामलीला मैदान के पास सुबह से ही जाम लगना शुरू हो चुका था। किसिम-किसिम के बैनर और झंडे लिए तमाम जनसंगठनों के लोग मैदान में अपना ठीहा बनाने में लगे थे। कोई किताबों के स्‍टॉल लगा रहा था, तो कोई परचे बांट रहा था। खबरों में भारत और अमेरिका के बीच होने वाली एटमी करार की सुर्खियां तैर रही थीं। इधर, दिल्‍ली के दिल में अमेरिकी साम्राज्‍यवाद के खिलाफ मोर्चा सज चुका था। कोई पचास हजार के आसपास भीड़ रही होगी उस दिन। मैदान में पैर रखने की जगह नहीं थी। मंच पर वक्‍ता आ-जा रहे थे। युवाओं की मंडली इंकलाबी गीत गाकर जा चुकी थी, लेकिन लोगों को किसी और का ही इंतजार था।

तभी अचानक बहुत भारी-भरकम आवाज गूंजी, “जब तक इंसान भूखा है, तब तक इस दुनिया में तूफान रहेगा... आगदु आगदु आगदु...”, और मंच पर नंगे बदन, कमर से बंधी धोती, पैरों में बंधे घुंघरू और कंधे पर एक लाल गमछा ओढ़े ‘गदर’ प्रकट हुए। गदर दिल्‍ली कम आते थे, लेकिन अमेरिका पर उनका लिखा गीत उस दौर में तमाम परिवर्तनकामी युवाओं की जुबान पर होता था। गदर ने भी मौके और दस्‍तूर को ताड़ते हुए शुरुआत उसी गीत से की, “देखो रे देखो भैया अमरीका वाला आया...।” और हजारों लोगों के कोरस में पूरा रामलीला मैदान कुछ फुट ऊपर हवा में उठ गया।

ढाई दशक से अपनी रीढ़ में फंसी एक गोली के साथ घूम-घूम कर जनता को अपने गीतों से जगाने वाले गुम्‍मादि विट्टल राव उर्फ गदर बीते 6 अगस्‍त को इस दुनिया से गुजर गए। वे 77 वर्ष के थे। आज से पंद्रह-बीस साल पहले तक हिंदी पट्टी में गदर का इतना प्रभाव हुआ करता था कि तेलुगु के उनके गीत नए-नए आए मोबाइल की रिंगटोन और कॉलरटोन में बजा करते थे। गदर क्‍या थे, इसे एक वाक्‍य में बताना हो तो मशहूर दलित चिंतक कांचा इलैया का यह वाक्‍य शायद काम आ जाए, “रूस ने गोर्की को पैदा किया, चीन ने लू शुन को और भारत ने गदर को पैदा किया।”

जहां तक उनके निजी जीवन का सवाल है, अंग्रेजी और हिंदी में गदर के कुछ ही साक्षात्‍कार सार्वजनिक रूप से उपलब्‍ध हैं। उनमें इस लेखक के लिए दो साक्षात्‍कार भी शामिल हैं। इसके अलावा, गदर के गीतों के अंग्रेजी अनुवाद का वसंता कन्‍नाबिरन द्वारा किया गया संकलन उनकी जिंदगी के बारे में बहुत कुछ जानकारी देता है, जिसमें 2018 में दिया गदर का एक अहम इंटरव्‍यू प्रकाशित है। 

आजादी से केवल तीन महीने पहले 4 मई 1947 को तेलंगाना के मेडक जिले में एक दलित मजदूर दंपती के यहां गदर का जन्‍म हुआ था। जन्‍म के बाद उनके पिता औरंगाबाद में काम करने चले गए। उस समय औरंगाबाद निजाम के राज में आता था। वहां उन्‍होंने क्षेत्रीय प्रथा के मुताबिक अपने लड़कों के नाम में ‘राव’ और लड़कियों के नाम में ‘बाई’ जोड़ दिया। उस समय डॉ. आंबेडकर वहां मजदूरों के बीच भाषण दिया करते थे। गदर के पिता उनसे बहुत प्रभावित थे, खासकर बच्‍चों को शिक्षित करने के मामले में उनके विचारों का उन्‍होंने ऐसा अनुकरण किया कि अपनी पांचवीं संतान गदर को इंजीनियरिंग कॉलेज तक पहुंचाया। अपने गांव से हायर सेकंडरी पास करने वाले गदर पहले दलित थे। अपनी दलित पहचान छुपाने के वे विरोधी थे, इसलिए उन्‍होंने बाद में अपने नाम से ‘राव’ हटा दिया।

उस्‍मानिया यूनिवर्सिटी के इंजीनियरिंग कॉलेज में केशव राव जाधव गदर के राजनीतिक गुरु बने, जो लोहियावादी थे और वहां अंग्रेजी पढ़ाते थे। पैसे न होने के कारण गदर पढ़ाई पूरी नहीं कर सके और हैदराबाद के बाहर एक केमिकल कारखाने में मजदूरी करने लग गए। वहीं पहली बार सार्वजनिक रूप से उन्‍होंने मजदूरों का मनोबल बढ़ाने के लिए गीत गाया। गाने की यह कला उनमें बचपन से थी। जब कभी वे अपनी मां के साथ खेतों में जाया करते थे, दूसरी औरतें उन्‍हें गाने को कहती थीं।

गदर को आम तौर से नक्‍सल धारा के गायक और कवि के रूप में पहचाना जाता है। यह बात उनके जीवन के महज एक पड़ाव का सच है, संपूर्ण नहीं। अव्‍वल तो उनका शुरुआती रुझान ही लोहियावादी समाजवाद की ओर रहा। फिर 1970 के आसपास तेलंगाना राज्‍य का आंदोलन शुरू होने पर वे उसका हिस्‍सा बने, बेरोजगारी और गरीबी पर उन्‍होंने गीत गाए, फिर जल्‍द ही आंदोलन के नेतृत्‍व से उनका मोहभंग भी हो गया। यहां तक कि बाद में उन्‍होंने आंदोलन के अगुआ लोगों को बेनकाब करने के लिए गीत रचे। 1971 में वे फिल्‍मकार नरसिंह राव के संपर्क में आए और उनकी मंडली आर्ट लवर्स एसोसिएशन का हिस्‍सा बन गए। तब उभरती हुई प्रतिभा के तौर पर उन्‍हें सूचना प्रसारण मंत्रालय से 75 रुपये का वजीफा मिलता था, जिसे वे मंडली के पांच सदस्‍यों के साथ बांटते थे। उन्‍हें भरोसा था कि इस मंडली के माध्‍यम से वे लोकगायकी का इस्‍तेमाल सामाजिक गैर-बराबरी को मिटाने में कर पाएंगे।

आर्ट लवर्स एसोसिएशन में गदर का प्रभाव ऐसा रहा कि यह एसोसिएशन कालांतर में केवल तेलंगाना की संस्‍कृति आदि पर केंद्रित रह गया जबकि गदर की अगुआई में इससे दूसरा गुट निकल कर सामने आया, जिसे बाद में जन नाट्य मंडली के नाम से जाना गया। जन नाट्य मंडली सामाजिक परिवर्तन के लिए कला का इस्‍तेमाल करने में विश्वास रखती थी। यह बात पीपुल्‍स वॉर ग्रुप को प्रभावित कर गई। उसने मंडली को अपना सांस्‍कृतिक मोर्चा बना लिया। गदर ने एक इंटरव्‍यू में बताया है कि जन नाट्य मंडली नाम नक्सल नेता कोंडापल्‍ली सीतारामैया का दिया हुआ था। अविभाजित आंध्र प्रदेश में यह सबसे ज्‍यादा लोकप्रिय संगठन हुआ करता था। इत्‍तेफाक से मंडली के बनाए सारे गीत ‘गदर’ के नाम से प्रकाशित हुए- यह नाम पंजाब में 1913 से 1930 तक चले उपनिवेश विरोधी गदरी बाबाओं के आंदोलन से प्रेरित था।      

सत्तर के दशक के शुरुआती वर्ष थे, जब गदर की शादी विमला से हुई। गदर इसके बाद एक बैंक में नौकरी करने लगे। थोड़े दिनों बाद इमरजेंसी लग गई। गदर को गिरफ्तार किया गया और पैंतालीस दिनों तक हिरासत में उनकी पिटाई हुई, उसके बाद छोड़ दिया गया। कोई केस दर्ज नहीं हुआ था इसलिए प्रशासन इस बात से ही मुकर गया कि उनकी गिरफ्तारी हुई थी। संयोग से उनकी नौकरी बच गई, लेकिन कुछ दिनों बाद उन्‍होंने इस्‍तीफा देकर एक सांस्‍कृतिक परियोजना पर काम शुरू किया। कोई दसेक साल तक पार्टी की मदद से स्‍वतंत्र काम करने के बाद 1989 में वे कुछ महीनों के लिए दंडकारण्‍य चले गए। वहां उन्‍हें यह अहसास हुआ कि जन नाट्य मंडली का अपना कोई स्‍वतंत्र अस्तित्‍व नहीं है। कहने को यह स्‍वतंत्र है, लेकिन सीधे पार्टी के कमांड के तहत है। यह बात उन्हें नागवार गुजरी।

गदर 2018 के एक इंटरव्‍यू में कहते हैं कि सशस्‍त्र संघर्ष एक आयाम हो सकता है, लेकिन मुक्ति का वही इकलौता रास्‍ता नहीं है। यह बात समझ आने पर गदर के कोंडापल्‍ली सीतारामैया से मतभेद शुरू हो चुके थे। 1990 के आसपास जब गदर ने पार्टी में जाति के प्रश्‍न को उठाया, तो मतभेद और बढ़े। अंतत: पीपुल्‍स वॉर ग्रुप ने मंडली को खत्‍म कर दिया। मामूली पारिश्रमिक के बदले एकाध फिल्‍मों के गीत गाने, लालकृष्‍ण आडवाणी से तेलंगाना के मुद्दे पर मिलने और दलितों के लिए एक स्‍कूल खोलने जैसे गदर के कदमों ने पार्टी को उनके  खिलाफ कर दिया। अंततः गदर को बरखास्‍त कर दिया गया। बकौल गदर, 1995 से वे “वन मैन कल्‍चरल आर्मी” बन गए।

दिलचस्‍प है कि जब गदर अकेले ही गीतों के माध्‍यम से लोगों को जगा रहे थे, तब उनके ऊपर गोली चली। यह 1997 की बात है, जब बिहार के सीवान में वामपंथी छात्र नेता चंद्रशेखर की हत्‍या हुई थी। उस घटना के बाद आंध्र में भी दमनचक्र चला था, जिसका शिकार गदर भी हुए थे। उन्‍हें तीन गोली लगी थी, जिसमें से एक मरते दम तक उनकी रीढ़ में फंसी रही। तब भी गदर ने अपनी बात कहना नहीं छोड़ा।

गदर की 2006 में दिल्‍ली यात्रा के दौरान रामलीला मैदान में इस लेखक ने उनसे लंबी बातचीत की थी। तब हाल ही में पीपुल्स वॉर और एमसीसी का विलय हुआ था और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) अस्तित्व में आई थी। जाति के सवाल पर अब भी उनकी बहस पार्टी से जारी थी। 2016 तक वे अपने पुराने साथियों को जाति के सवाल की अहमियत समझाते रहे, खूब बहसें हुईं, पर फुले, पेरियर और आंबेडकर की लाइन पर माओवादी पार्टी नहीं मानी। उसके बाद गदर ने अपने झंडे के लाल रंग में नीला रंग खुद ही जोड़ लिया। गदर ने कहा था, “मैं पार्टियों के बीच पुल का काम करूंगा। लाल झंडे को नीले झंडे का समर्थन करना चाहिए।”

गदर की समूची राजनीतिक यात्रा एक जनपक्षधर कलाकार की रचनात्‍मक स्वतंत्रता और स्‍वायत्तता की तलाश की यात्रा रही है। वे सिर्फ विचारधारा की बात नहीं करते। गदर कहते हैं, “हमें भाव विप्‍लव की जरूरत है, यानी भावनाओं की क्रांति आनी चाहिए।” यही बात उन्हें गोर्की और लू शुन के समकक्ष खड़ा करती है।

2018 के विधानसभा चुनाव में गदर ने 70 पार की उम्र में जिंदगी में पहली बार अपनी पत्‍नी विमला के साथ वोट डाला था। उस वक्‍त उन्‍होंने कहा था, “जब तक मेरी आवाज कायम है, मैं जनता की भाषा में संविधान, नागरिक स्‍वतंत्रता और मानव अधिकार के गीत गाता रहूंगा।” वाकई, मरते दम तक वे सक्रिय रहे।

मई 2023 में कांग्रेस के नेता भट्टी विक्रमार्का की एक पदयात्रा में शामिल होते हुए उन्‍होंने तेलंगाना के मुख्‍यमंत्री के. चंद्रशेखर राव को ‘खबरदार’ किया कि गरीबों की जमीनें लूटने वाले उनके निजाम को लोग उखाड़ फेंकेंगे। अगला चुनाव देखने के लिए गदर नहीं रुके, चले गए। विडंबना ही कहेंगे कि इस बयान के तीन महीने बाद जब गदर की मौत हुई, तब केसीआर की सरकार ने उन्‍हें राजकीय सम्‍मान देकर विदा किया। गदर ऐसा चाहते रहे होंगे या नहीं, हम नहीं जानते, लेकिन 2018 के इंटरव्‍यू में उनकी कही इस बात से उनके पक्ष का अंदाजा जरूर लगा सकते हैं, “मेरे खयाल से दुश्‍मन की इज्‍जत करना बहुत जरूरी है। हमारी लड़ाई वैचारिक और दार्शनिक होनी चाहिए, व्‍यक्तिगत नहीं।”

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