भारतीय सिनेमा के स्वर्णिम युग के चमकते सितारे, देशभक्ति और संवेदनशील अभिनय के पर्याय मनोज कुमार का जाना सिर्फ कलाकार का जाना नहीं है। उन्होंने भारत को जिस तरह से सिनेमा के परदे पर ‘नायक’ बना कर पेश किया, वैसा पहले नहीं हुआ था। मनोज कुमार यानी हरिकृष्ण गिरि गोस्वामी ने देशभक्ति की भावना को ऐसे दिखाया कि उनके प्रशंसक उन्हें भारत कुमार ही कहने लगे। आज भी उनकी फिल्में देशप्रेम की भावना में अव्वल हैं।
मनोज कुमार केवल एक अभिनेता नहीं थे, वे एक विचारधारा थे। उन्होंने भारतीय जनमानस के दिलों में देशभक्ति की लौ जगाने का काम किया। उपकार, पूरब और पश्चिम, क्रांति जैसी फिल्मों के माध्यम से उन्होंने स्वतंत्र भारत की आत्मा को परदे पर सजीव किया। उनके हर संवाद, हर भाव, हर गीत में राष्ट्रभक्ति झलकती थी। क्रांति फिल्म बनाने के लिए तो उन्होंने अपनी सारी पूंजी दांव पर लगा दी थी।
भारत कुमार के रूप में उनकी पहचान सिर्फ प्रशंसकों का दिया एक नाम भर नहीं थी, बल्कि वह उनके जीवन का सार था। चाहे वह सैनिक की पीड़ा हो, किसान की मजबूरी या देशभक्त की भावना या बेरोजगारी-महंगाई का दर्द उन्होंने हर चरित्र को आत्मा दी। हर भूमिका को दिल से जिया। उनका योगदान केवल अभिनय तक सीमित नहीं रहा। उन्होंने निर्देशन, लेखन और निर्माण में भी अपने हुनर का लोहा मनवाया।
आज जब वे हमारे बीच नहीं हैं, तब भी उनका सिनेमा, भारत की उस भावना को दर्शाना के काम आ रहा है जिसकी कल्पना उन्होंने की थी। देशभक्ति की फिल्में बनाते हुए वे केवल अभिनेता मनोज कुमार ही नहीं बल्कि समाज के आदर्श मनोज कुमार हो गए थे। जिन लोगों को लगता है कि देशभक्ति की फिल्में बॉक्स ऑफिस पर जादू नहीं जमा पातीं, उन्हें यह जानना दिलचस्प लगेगा कि 1970 और 80 के दशक में जब अमिताभ बच्चन का ‘ऐंग्री यंग मैन’ वाला जादू लोगों के सिर चढ़कर बोल रहा था, उस समय भी मनोज कुमार की फिल्में अपनी अलग पहचान बनाए हुए थीं। जहां अमिताभ सामाजिक विद्रोह का चेहरा बने, वहीं मनोज कुमार राष्ट्रप्रेम का प्रतीक रहे। एक तरफ दीवार, जंजीर, शक्ति जैसी फिल्मों में अन्याय के खिलाफ क्रांति की आग दिख रही थी, तो दूसरी ओर मनोज कुमार उपकार, शहीद, पूरब और पश्चिम, रोटी कपड़ा और मकान जैसी फिल्मों में विचार, मूल्यों और आत्मबलिदान की शक्ति को दिखा रहे थे।
दो अलग-अलग तरह की फिल्में और दोनों को ही दर्शक वर्ग मिल रहा था। उनके सिनेमा ने ही बताया कि दो अलग-अलग रास्ते भी समान रूप से महत्वपूर्ण होते हैं। अगर युवाओं में नाराजगी का स्वर है, तो उन्हें दिशा और उद्देश्य देना कितना महत्वपूर्ण है। उपकार में वे खांटी किसान की भूमिका में दिखाई दिए। किसान के बारे में वे बनी-बनाई धारणा को तोड़ने में उस वक्त सफल हुए, जब लोगों को लगता था कि बिना पढ़े-लिखे लोग ही खेती करते हैं। फिल्म के एक दृश्य में नायिका उनसे मदद मांगती है और अंग्रेजी में थैंक्यू कह कर चलने को होती है। वह मान कर चलती है कि किसान है, तो अनपढ़ होगा और थैंक्यू का अर्थ शायद न समझे। वे अदा से हल को कंधे पर रख कर जवाब देते हैं, ‘‘मेंशन नॉट।’’ इस एक दृश्य ने किसानों की पारंपरिक छवि को बिलकुल तोड़ कर रख दिया था। यही उनका काम था जो उन्होंने बखूबी निभाया।
उनकी फिल्मों में केवल मनोरंजन ही नहीं, विचार भी होता था। वे देशप्रेम का संदेश देते थे लेकिन खांटी फिल्मी अंदाज में। उन्होंने अपनी फिल्मों को कभी वृत्तचित्र नहीं बनने दिया, न ही व्यावसायिक मनोरंजन से कभी किनारा किया। उपकार के माध्यम से उन्होंने, ‘जय जवान जय किसान’ का संदेश दिया, तो पूरब और पश्चिम में सांस्कृतिक संघर्ष को संवेदनशील तरीके से दर्शाया। पश्चिम की चकाचौंध और भारत की आत्मा के बीच उन्होंने गजब का संतुलन स्थापित किया। रोटी कपड़ा और मकान में बेरोजगारी, भ्रष्टाचार और सामाजिक असमानता जैसे मुद्दों को सरल लेकिन प्रभावशाली रूप में परदे पर पेश किया। इस फिल्म से युवा वर्ग उनके साथ हो लिया था।
मनोज कुमार की फिल्मों में ऐक्शन या ग्लैमर न होने पर भी भावनाओं की गहराई लोगों को तीन घंटे बांधे रखती थी। उनके कैमरे की आंख लोगों का मन पढ़ना जानती थी और सीधा दिल तक पहुंच कर कब्जा जमा लेती थी। यह उनकी सबसे बड़ी खासियत थी। भले ही उनकी सबसे चर्चित फिल्मों में पूरब और पश्चिम, उपकार का नाम आता हो, लेकिन इन दोनों फिल्मों से कहीं पहले वे शहीद भगत सिंह का किरदार निभा कर अमर हो चुके थे।
उसके बाद से शहीद भगत सिंह पर दर्जनों फिल्में बनीं लेकिन तुलना के लिए सिर्फ एक ही फिल्म थी, ‘मनोज कुमार की शहीद।’ उनमें राज कपूर की भावुकता, दिलीप कुमार की त्रासदी, देव आनंद की अदा थी, और जिस ‘ऐंग्री यंग मैन’ ने अमिताभ बच्चन को जन्म दिया उनमें भी समाज की पीड़ा को मुखर स्वर देने की वही ताकत थी। जब शशि कपूर, धर्मेंद्र और राजेश खन्ना जैसे कलाकार प्रेम, आकर्षण को परदे पर जी रहे थे, तब वे लोगों को राष्ट्रीय चेतना से जोड़ रहे थे। बंटवारे से पहले उनका परिवार पाकिस्तान के खैबर पख्तूनख्वा इलाके के एबटाबाद में रहता था। पंजाबी ब्राह्मण परिवार में पैदा हुआ यह बच्चा खुद नहीं जानता था कि बंटवारा उसे ऐसी जगह ले जाएगा, जहां वह नए बने देश की पहचान बन जाएगा। फिल्मफेयर से लेकर दादा साहब फाल्के और फिर पद्मश्री से सम्मानित मनोज कुमार ने कई साल हुए फिल्मी दुनिया छोड़ दी थी। उनके जाने से भारतीय सिनेमा की वह शाख सूनी हो गई, जिस पर देशभक्ति का परचम गर्व से लहराया करता था।