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स्मृतिः सबमें समाया धरती-पुत्र

अपने राजनीतिक विरोधी रहे बसपा के संस्थापक कांशीराम को उन्होंने अपने क्षेत्र इटावा से तन-मन-धन से जितवा कर सांसद बनवाया
नेताजी नाम से मशहूर थे मुलायम सिंह यादव

उत्तर प्रदेश के तीन बार मुख्यमंत्री और देश के रक्षा मंत्री रहे समाजवादी नेता मुलायम सिंह यादव का 10 अक्टूबर को मेदांता अस्पताल में निधन हो गया। सभी को उम्मीद थी कि नेताजी कुछ दिनों में स्वस्थ हो जाएंगे। एक रात पहले अस्पताल में नेताजी के साथ बिताया समय याद आने लगा, जब नींद बिलकुल नहीं आई थी। सुबह खबर लगी कि नेताजी नहीं रहे। जैसे जेपी की मृत्यु की खबर फैल गई थी, लगा कि वैसा ही हुआ होगा। प्यार और सम्मान से नेताजी या धरती-पुत्र पुकारे जाने वाले मुलायम सिंह की खासियत यह थी कि वे मानसिक स्तर पर सदा समाजवादी आंदोलन के स्वर्णिम दौर में ही जिया करते थे, जब डॉ. लोहिया सोशलिस्ट पार्टी के नेता हुआ करते थे। वे समाजवादी आंदोलन के साथ-साथ सैफई, इटावा और अपने परिवार से जुड़े किस्से सुनाया करते थे। देश में आजादी के बाद तमाम विधायक, सांसद, मंत्री, मुख्यमंत्री, केंद्रीय मंत्री और प्रधानमंत्री बने लेकिन कोई भी अपने पैतृक गांव को उस मुकाम तक नहीं पहुंचा पाया जिस मुकाम पर नेताजी ने सैफई को पहुंचा दिया।

सामान्य किसान परिवार में 22 नवंबर 1939 में जन्मे नेताजी शुरुआती जीवन में पेशे से शिक्षक और शौकिया पहलवान थे। कुश्ती के अखाड़े में इलाके के एक मशहूर पहलवान के साथ उनके मुकाबले को देखने 1962 के चुनावों में संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के स्थानीय उम्मीदवार बृज यादव भी पहुंचे। अपेक्षाकृत छोटी कद-काठी के नेताजी ने भारी-भरकम पहलवान को कुश्ती के दांव में चित कर दिया तो बृज यादव ने उन्हें सराहा। उनके और सोशलिस्ट पार्टी के विचारों के नेताजी मुरीद हो गए। बाद में इलाके के मशहूर समाजवादी नेता अर्जुन सिंह भदौरिया उर्फ कमांडर साहब का साथ मिलने और फिर फर्रूखाबाद उपचुनावों में डॉ. लोहिया से मुलाकात के बाद तो जैसे समाजवाद ने नेताजी को काट खाया। उसी दौर का किस्सा है कि एक पुलिसिया लाठीचार्ज में डॉ. लोहिया के कवच के रूप में खड़े नेताजी ने जमकर लाठियां खाईं। बाद के दौर में चरण सिंह के साथ भी वे ढाल की तरह खड़े हुए, जब चरण सिंह ने पिछड़े, मुसलमानों और वंचित तबकों का व्यापक गठजोड़ कायम किया। 1967 में पहली बार मुलायम सिंह विधायक चुने गए।   

वंचितों का उत्थान और पार्टी कार्यकर्ताओं का हर वक्त ख्याल रखने की समाजवादी सीख जैसे उनके दिल में गड़ गई थी। नेताजी कार्यकर्ताओं को एक साथ भावनात्मक तौर पर जोड़े रहते थे, उनकी मदद करते थे और उनकी सलाह भी माना करते थे। इसके हजारों उदाहरण मिल जाएंगे। नेताजी अपने निर्णय को बदलने से भी कभी पीछे नहीं हटते थे, बशर्ते उन्हें यह भरोसा हो जाए कि किसी कार्यकर्ता या नेता का दिया सुझाव बेहतर या वाजिब है।

बहुत सारे लोग आरोप लगाते हैं कि नेता जी यादववादी थे लेकिन उनके बतौर मुख्यमंत्री तीनों कार्यकाल को देखा जाए तो पता चलेगा कि उन्होंने विभिन्न जातियों के नेताओं को अपने मंत्रिमंडल में स्थान दिया। सभी जातियों के कार्यकर्ताओं को संगठन में स्थान दिया। मुझे याद है जब समाजवादी चिंतक मधु लिमये सक्रिय राजनीति से अलग हो चुके थे, तब नेताजी जब भी दिल्ली आते थे मधु लिमये से उनके पंडारा पार्क स्थित आवास पर मिला करते थे। वे छोटे लोहिया के नाम से मशहूर जनेश्वर जी के जन्मदिन पर सदा दिन भर बैठा करते थे। बृजभूषण तिवारी, मोहन सिंह, रामजी लाल सुमन उनके प्रिय साथी थे। नेताजी ने लखनऊ में जो लोहिया पार्क बनवाया था, उसमें सात नेताओं की मूर्तियां लगवाईं जिनका समाजवादी आंदोलन में अभूतपूर्व योगदान रहा, उनमें से एक मामा बालेश्वर दयाल भी थे।

किसान आंदोलन पर वे अक्सर कहते थे कि महेंद्र सिंह टिकैत, नन्जूदास्वामी और शरद जोशी ने बड़े आंदोलन खड़े किए लेकिन वे राजनीतिक ताकत नहीं बना पाए। वे कहते थे कि आंदोलन सतत रूप से चलना संभव नहीं होता। सरकार मांगें माने या नहीं, आंदोलन आंदोलन समाप्त हो जाता है। ऐसी स्थिति में राजनीतिक हथियार की जरूरत होती है।

नेता जी के प्रिय साथी पांच बार के सांसद बृज भूषण तिवारी के अचानक देहांत की खबर पाते ही वे अस्पताल पहुंचे तथा शरीर पर लेप लगवाने और हेलीकॉप्टर से बस्ती भिजवाने का इंतजाम करके चले गए। जब जॉर्ज फर्नांडीस ज्यादा बीमार हुए और उन्हें रामदेव बाबा के पास हरिद्वार ले जाया गया। नेता जी ने बाबा को फोन लगाकर कहा कि जॉर्ज साहब मेरे नेता हैं, उनका ख्याल रखना, उन्हें 15 दिन में ठीक करके भेजना। बाबा ने कहा कि मैं उन्हें दौड़ा दूंगा। तब नेता जी ने हंसते हुए कहा कि तुम दौड़ा पाओ या न दौड़ा पाओ लेकिन जॉर्ज साहब को कुछ हो गया तो मैं तुम्हें दौड़ा लूंगा।

नेताजी का सबसे बड़ा वैचारिक योगदान यह रहा कि उन्होंने 1977 में सोशलिस्ट पार्टी के विलय के बाद 4 अक्टूबर 1992 को लोहिया को प्रतीक बनाकर समाजवादी पार्टी का गठन किया, जिसने स्थापना से लेकर आज तक सामाजिक न्याय और सांप्रदायिकता के मुद्दे पर कोई समझौता नहीं किया। संवैधानिक मूल्यों की रक्षा के लिए उन्होंने सरकार को लात मार दी, लेकिन मुसलमानों की सुरक्षा और सम्मान पर आंच नहीं आने दी। इसका परिणाम यह हुआ कि उन्हें मुल्ला मुलायम तक कहा गया।

अपने राजनीतिक विरोधी रहे बहुजन समाज पार्टी के संस्थापक कांशीराम को उन्होंने अपने क्षेत्र इटावा से तन-मन-धन से जितवा कर सांसद बनवाया। सामाजिक उत्पीड़न की प्रतीक फूलन देवी को भी संसद में पहुंचाया। इसी तरह मुंबई ब्लास्ट में झूठे आरोपी बनाए गए अबू आजमी को उन्होंने राज्यसभा में भेजने के साथ महाराष्ट्र में पार्टी की कमान सौंप दी।

नेताजी के देहांत से समाजवादी आंदोलन को जो नुकसान हुआ है उसकी भरपाई करना किसी के लिए भी संभव नहीं होगा। नेताजी ने अपने 82 वर्ष के जीवन में किए गए कार्यों से यह साबित कर दिया कि गांव के साधारण कृषक परिवार में पैदा हुआ व्यक्ति अपने संकल्प और वैचारिक प्रतिबद्धता से उन ऊंचाइयों को छू सकता है जिनसे पूरा समाज प्रेरणा ले सकता है।

(लेखक पूर्व विधायक और समाजवादी पार्टी के पूर्व राष्ट्रीय सचिव हैं)

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