लगभग साढ़े पांच दशक तक भोजपुरी और मैथिली पहचान का पर्याय बनी रहीं बिहार कोकिला शारदा सिन्हा ने 5 नवंबर को अंतिम सांस ली। वे पिछले पांच साल से कैंसर से लड़ रही थीं। संयोग देखिए कि उन्होंने छठ के दौरान दुनिया से विदा ली, जब चारों ओर उन्हीं के गाये गीत बज रहे थे। शारदा सिन्हा 2020 में कोरोना महामारी की चपेट में आई थीं। तब सोशल मीडिया में उनके निधन की फर्जी खबरें आ गई थीं। वे कोरोना से जंग जीत गईं, लेकिन उन्हें कैंसर ने घेर लिया। इसी साल सितम्बर में पति के निधन ने शारदा सिन्हा को भीतर तक तोड़ दिया था।
शारदा सिन्हा अब हमारे बीच नहीं हैं लेकिन अपने गीतों के जरिये हमेशा हमारे बीच रहेंगी। दो दिसम्बर 1952 को बिहार के मांडर (वर्तमान में झारखंड) में जन्मी शारदा सिन्हा का बचपन का नाम विजया था। आठ भाइयों के बीच वे इकलौती बहन थीं। उनकी मां थोड़ी रुढ़िवादी थीं लेकिन पिता प्रगतिशील। घर-आंगन में कला-संस्कृति के वातावरण में शारदा का पहला प्यार नृत्य बना। उन्हें मणिपुरी नृत्य की तालीम मिली। सार्वजनिक मंचों पर उन्होंने प्रस्तुति भी दी, लेकिन धीरे-धीरे नृत्य गायब होता गया और गायन उभरता चला गया।
लोकगीतों के बीज उनके भीतर बचपन में ही अंकुरित हो गए थे। बंद कमरे में रियाज करने से दूर, शारदा आम के पेड़ के नीचे खुले में बैठकर रियाज करती थीं। आसपास की महिलाएं वहां जुटती थीं। उसी में रियाज शुरू हो जाता। महिलाएं उन्हें बताती थीं कि ‘सोना के रे डलवा में हरिहर पान हे’ चुमावन का गीत है जिसमें अंतरा नहीं होता। फिर उसे एक तरह से कैसे गा सकते हैं? तो शारदा सिन्हा ने उसका अंतरा बनाया। मैथिली सुनने वालों ने उसे खूब पसंद किया। इसी तरह शारदा सिन्हा ने लोकगीतों में छोटे-छोटे बदलाव किए। रियाज के इस तरीके से लोक और लोकगीत शारदा के दिलो-दिमाग में इस कदर छाए कि जीवन भर वे उसी रंग में डूबी रहीं।
अपने भाई के विवाह के समय नेग मांगने की परंपरा के द्वारछेकाई गीत 'द्वार के छेकाई नेग...' से सार्वजनिक गाने की शुरुआत करने वाली शारदा का अठारह बरस की उम्र में ब्रज किशोर सिन्हा से विवाह हुआ। विदाई से पहले घरवालों ने कहा, 'बेटी, एक गीत गाकर सुनाओ।' ससुराल में नई-नवेली बहू शारदा गाना चाहती थीं, लेकिन सास नहीं चाहती थीं कि बहू गीत गाए। पति ब्रज किशोर ढाल बनकर सामने आए। बाद में सास ही उनकी सबसे बड़ी पैरोकार बन गईं। फिर शारदा ने अपनी सास की मदद से लोकगीतों को खोजने का काम शुरू किया। उस समय उनके गीतों को रिकॉर्ड करने के लिए कोई कंपनी तैयार नहीं थी।
पहली बार 1978 में एचएमवी कंपनी से शारदा सिन्हा के छठ गीतों का पहला रिकॉर्ड आया, जो खूब चला। भोजपुरी, मैथिली, बज्जिका, अंगिका, मगही पर समान अधिकार रखने वाली शारदा सिन्हा अगले पांच दशक तक गाती रहीं। उनके रिकॉर्ड छठ पर बजते रहे। शहरी लोगों में शारदा सिन्हा की व्यापक लोकप्रियता 1989 में आई फिल्म मैंने प्यार किया के गीत "कहे तोहसे सजना" से पहली बार बनी। बाद में उन्होंने गैंग्स ऑफ वासेपुर सहित कुछ और फिल्मों में गीत गाए। उन्हें 1991 में पद्म श्री, फिर संगीत नाटक अकादमी और पद्म भूषण पुरस्कारों से सम्मानित किया गया।
भोजपुरी और मैथिली समाज में शारदा सिन्हा अपनी आवाज से हमेशा प्रासंगिक बनी रहेंगी। शादी-ब्याह से लेकर अन्य रस्मों तक भले गीत-संगीत का मिजाज बदल रहा हो, लेकिन उनके गाए छठ गीतों का कोई विकल्प नहीं है।