इस साल की शुरुआत में शास्त्रीय गायकी के उस्ताद राशिद खान और विदुषी प्रभा आत्रे हमारे बीच से चली गईं। इसके महीने भर के भीतर गजल के सितारे पंकज उधास नहीं रहे। साल आगे बढ़ा, तो लोकगायकी से शारदा सिन्हा को ले गया। और अब, काल की तान अपने सम पर आते-आते उस्ताद जाकिर हुसैन को इस दुनिया से ले गई। 2024 हिंदुस्तानी रसिकों के लिए अब तक बहुत भारी गुजरा था, लेकिन जाकिर हुसैन का निधन सरहदों के पार खलिश पैदा करने वाली एक घटना है। बीते पांच बरस में पंडित जसराज, मालिनी राजुरकर, पंडित राजन मिश्र, लता मंगेशकर, शिवकुमार शर्मा सरीखे बड़े सुरसाधकों के अवसान की कड़ी में जाकिर हुसैन का निधन न सिर्फ विशिष्ट, बल्कि एक विक्षेप की तरह आया है।
आम तौर से जब किसी संगीतकार या गायक का निधन होता है तो सबसे पहले हमारे जेहन में उसकी वह स्मृति कौंधती है जब हमने उसे किसी कार्यक्रम या संगीत महोत्सव में सुना था। उसे सराहा था। उसकी मुरकियों पर आह वाह किया था। जाकिर हुसैन के मामले में ऐसा कुछ याद करना मुश्किल है, खासकर उस पीढ़ी के लिए जो आज चालीस या पचास के लपेटे में है। जाकिर हुसैन कोई पांच दशक से विदेश में बसे हुए थे और भारत कभी-कभार ही आते थे। दस साल पहले आगरा में हुई उनकी प्रस्तुति को छोड़ दें, तो उन्होंने आइटीसी के संगीत समारोह में आना नब्बे के दशक में ही बंद कर दिया था। परंपरागत संगीत समारोहों में उनकी उपस्थिति की तो किसी को याद तक नहीं, चाहे वह तानसेन संगीत समारोह हो या फिर संकटमोचन समारोह। इसके उलट, आम लोगों के बीच शास्त्रीय संगीत की बारीकियां और रस पहुंचाने वाले ऐसे समारोहों में राशिद खान से लेकर राजन मिश्र या प्रभा आत्रे, पंडित जसराज, शिवकुमार शर्मा का आना-जाना मरते दम तक लगा रहा। इसीलिए जाकिर हुसैन का निधन अपेक्षाकृत विशिष्ट हो उठता है। उतना ही विशिष्ट उनके साथ जुड़ी स्मृति का आवाहन है, जो एक पुराने टीवी विज्ञापन के रास्ते हम तक पहुंचती है। यह विशष्टता ही जाकिर हुसैन के निधन को एक विक्षेप बनाती है- काफी कुछ पंडित रविशंकर के निधन की तरह, जिनकी बारहवीं पुण्यतिथि पर बीते 11 दिसंबर को काशी हिंदू विश्वविद्यालय में उन्हें बेशक याद किया गया लेकिन काशी की रसज्ञ जनता उन्हें कब का भुला चुकी है।
वास्तव में, वह पंडित रविशंकर की ही छेड़ी हुई फ्यूजन वाली तान थी जिसे जाकिर हुसैन ने जॉर्ज हैरिसन के माध्यम से शुरुआत में ही पकड़ लिया और अंतरराष्ट्रीय हो गए। बेशक, उनके पिता अल्ला रखा के बगैर यह कभी संभव नहीं हो पाता जो कोई तीन दशक तक पंडित रविशंकर के साथ अथक संगत करते रहे, लेकिन अमेरिकी और यूरोपीय पोस्टरों पर रविशंकर ही चमकते रहे। याद आता है कि 1988-89 में शायद पहली बार जब ब्रुकबॉन्ड की ताजमहल चाय का विज्ञापन आया था और रामायण के बहाने पहली बार टीवी दर्शक बने उभरते हुए भारतीय मध्यवर्ग के सामने जाकिर हुसैन अपने घुंघराले बाल झटकते, घूंट गटकते नमूदार हुए थे तब संगीत के पारंपरिक इदारों में इसे बहुत अच्छी नजर से नहीं देखा गया था। नब्बे के दशक में "पापा कहते हैं..." वाली पीढ़ी में गिटार सीखने की सनक के साथ अगर तबला सीखने की भी ललक बच रही थी, तो निश्चित रूप से वह जाकिर हुसैन की रेला पर बल खाती लटों का ही ग्लैमर था। बावजूद इसके, कम से कम बनारस घराने के बारे में कहा जा सकता है वहां कंठे महाराज, गुदई महाराज या किशन महाराज के आगे प्रेरणा की सूची नहीं जाती थी। जाकिर हुसैन का रेला, उनके बाल, बहुत से बहुत तबले को छोटे शहरों-कस्बों के परिवारों में बचाने के काम आए होंगे जहां तब तक केबल टीवी पहुंच चुका था और लोग चाय के ब्रांड आजमाने लगे थे।
फिर जाने यह कैसे हुआ कि ताजहल चाय के विज्ञापन बनाने वालों ने उस्ताद अल्ला रखा को भी कालान्तर में खींच लिया। टीवी पर बाप-बेटे का एक साथ तबला बजाना सांस्कृतिक संक्रमण का एक संदेश बन गया, जब अल्ला रखा के "वाह उस्ताद" के जवाब में जाकिर हुसैन ने "वाह उस्ताद नहीं, वाह ताज" कह दिया। इसके बाद तो उस्ताद का गंडा बांधकर संगीत सीखने की परंपरा ही तिरोहित हो गई। गली-गली में गिटार सिखाने वाले स्कूल खुल गए और कबीरचौरा की गलियों में बरसों से महदूद रहे गुरुओं में से भी कुछेक को क्षेत्र संन्यास त्यागकर विदेशों का रुख करना पड़ा। जो नहीं गए, वे ज्यों की त्यों अपनी चादर धर के बिस्मिल्ला खां की नियति को प्राप्त हुए।
स्थानीय स्तर पर संगीत के पतन की इस प्रक्रिया के समानांतर हालांकि सरहद पार जो घटा, जाकिर हुसैन की महत्ता और विशिष्टता को वह स्थापित करता है। काफी पहले सिमी ग्रेवाल ने एक इंटरव्यू में जाकिर हुसैन से पूछा था कि वे अठारह बरस की उम्र में ही अमेरिका क्यों चले गए थे। उनका टका सा जवाब था- "मैं जींस पहनना चाहता था। मैं रॉक ऐंड रोल स्टार बनना चाहता था। मैं लाखों डॉलर कमाना चाहता था। मुझे लगा कि तेजी से पैसा और शोहरत कमाने का यही एक तरीका है।" यही रास्ता बरसों पहले पंडित रविशंकर ने चुना था, लेकिन जाकिर इस मामले में न सिर्फ ज्यादा साफगो निकले, बल्कि रविशंकर की लीक पकड़कर उन्होंने वैश्विक पटल पर तबले को जिस तरह से स्थापित किया, वह अभूतपूर्व और मौलिक है।
पहला ग्रैमी पुरस्कार उन्हें विश्व प्रसिद्ध संगीतकार मिकी हार्ट के साथ काम करके प्लैनेट ड्रम नाम के संगीत अलबम के लिए मिला था। उसके बाद उन्होंने कुल चार ग्रैमी जीते। दिलचस्प है कि मिकी हार्ट के उस्ताद जाकिर के पिता अल्ला रखा थे, जिनके बारे में हार्ट ने एक बार कहा था, "अल्ला रखा आइंस्टीन हैं, पिकासो हैं।" फिर जाकिर क्या हुए? आइंस्टीन का सिद्धांत, पिकासो की 'गुएर्निका'! बेशक, दोनों ही अमर हैं। जाकिर भी।