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उत्तर प्रदेश: ठिठका बंटा विपक्ष

कांग्रेस, रालोद, छोटी पार्टियां लोगों के बीच सक्रिय मगर मैदान में नदारद बड़े दावेदार सपा और बसपा आपस में भिड़े
रामगोपाल यादव, सपा प्रमुख अखिलेश यादव के साथ पर्चा भरते हुए

राजनैतिक सत्ता के लिहाज से देश के सबसे अहम उत्तर प्रदेश में न राजनैतिक तौर पर संवेदनशील घटनाओं की कमी है, न कई मोर्चों पर राज्य सरकार की कमजोरियों का टोटा है, फिर भी विपक्ष की आवाज मंथर और बुरी तरह बंटी हुई लगती है। जब सुर्खियां चीखने लगती हैं, तब विपक्ष की जो सक्रियता दिखती भी है, उसमें मोटे तौर पर उन्हीं किरदारों की आवाज ऊंची गूंजती है, जो राज्य की सियासत में बहुद हद तक हाशिए पर हैं। कांग्रेस, रालोद, कुछ छोटी पार्टियां लगातार राज्य सरकार पर दबाव बनाती दिख रही हैं। कांग्रेस की प्रियंका गांधी तो दिवाली बाद लखनऊ को अपना ‌ठिकाना बनाकर राज्य में संगठन में जान फूंकने की योजना बना चुकी हैं। कांग्रेस के स्‍थापना दिवस के कार्यक्रम के लिए लखनऊ में कांग्रेस मुख्यालय को सजाया-संवारा जा रहा है। लेकिन राज्य में विपक्ष के दोनों बड़े दावेदार समाजवादी पार्टी (सपा) और बहुजन समाज पार्टी (बसपा) कमोबेश मैदान में गैर-मौजूद हैं। हालांकि उनके बीच सियासी खींचतान जोरों पर है।

लखनऊ में 29 अक्टूबर को ऐसी गहमागहमी मची कि सपा और बसपा का द्वंद्व खुलकर सामने आ गया। अचानक बसपा के छह विधायक सपा प्रमुख अखिलेश यादव से मिले और उनमें चार ने बसपा के राज्यसभा उम्मीदवार रामजी गौतम के खिलाफ हलफनामा दिया कि उनके आवेदन पर उनके दस्तखत फर्जी हैं। 10 सीटों के लिए राज्यसभा चुनाव 9 नवंबर को होने हैं। इससे नाराज होकर मायावती ने प्रेस कॉन्फ्रेंस करके कहा, “सपा को हराने के लिए भाजपा को भी वोट देना पड़ा तो उनकी पार्टी देगी।” मायावती ने यह कहकर आगे सपा से किसी तरह के तालमेल की संभावनाओं को खत्म कर दिया कि “1995 में गेस्टहाउस कांड का मुकदमा वापस लेना गलती थी।” 2019 के लोकसभा चुनावों में सपा-बसपा गठबंधन के दौरान ये मुकदमे वापस ले लिए गए थे।

 लेकिन इस जोड़-तोड़ के अलावा दोनों पार्टियों की जनता के मुद्दों पर गैर-मौजूदगी चकित करती रही है।  इसका सबसे ताजा उदाहरण हाथरस में 19 वर्षीय दलित बच्ची के साथ गैंगरेप और बेतरह मारपीट की हैरतनाक घटना थी, जिसमें वह बच्ची लगभग दो हफ्ते बाद दम तोड़ बैठी। जब मामला उछला, चंद्रशेखर आजाद की भीम आर्मी, कांग्रेस, आम आदमी पार्टी और बाद में राष्ट्रीय लोकदल ने ही अपनी मजबूत उपस्थिति दर्ज की। सपा थोड़ी-बहुत सक्रिय दिखी भी, लेकिन बसपा ने तो महज ट्विटर बयानबाजी से ही काम चलाया। सपा और बसपा ही राज्य में विपक्ष की मुख्य दावेदार हैं। सपा के धर्मेंद्र यादव जरूर पहले हाथरस में और फिर लाठीचार्ज के बाद रालोद के नेता जयंत चौधरी की मुजफ्फरनगर, मथुरा, बागपत की महापंचायतों में शिरकत करते दिखे, मगर पार्टी अध्यक्ष अखिलेश यादव ने सिर्फ ट्विटर पर ही सक्रियता दिखाई। बसपा की मायावती ने तो ट्विटर और सामान्य बयानों में भी कंजूसी बरती। ऐसे में यह सवाल उठना लाजिमी है कि विपक्ष के बड़े किरदार क्यों मैदान में उतरने से परहेज कर रहे हैं। क्या यह लोकसभा चुनावों में हार का सदमा है, जिससे वे अभी तक उबर नहीं पाए हैं? या फिर नई मोर्चेबंदी के लिए दोनों एक-दूसरे की जमीन खंगालने की कवायद में मशगूल हैं?

यह सवाल इसलिए महत्वपूर्ण हो जाता है कि राज्य में 2022 के विधानसभा चुनावों में सवा साल से भी कम वक्त बचा है। फिलहाल आठ विधानसभा क्षेत्रों में उपचुनाव भी हो रहे हैं और इसी दौरान राज्यसभा चुनाव की भेरी भी बज चुकी है। हालांकि अखिलेश यादव लंबे समय बाद राज्यसभा चुनाव के लिए अपने चाचा रामगोपाल वर्मा का पर्चा दाखिल करने के दौरान जरूर दिखे। राज्यसभा की 10 सीटों में भाजपा 8 और सपा का एक सीट जीतना विधायकों की संख्या के बल पर जीतना तय है। बसपा के उम्मीदवार के चलते भाजपा के नौवें उम्मीदवार के लिए मुश्किल खड़ी हो गई है, लेकिन अब खेल उलटा होता दिख रहा है।

सवाल यह भी है कि मायावती अगर बिहार में तीसरे मोर्चे के साथ मैदान में उतरी हैं और पहले चरण के मतदान के पहले मतदाताओं के लिए अपील भी जारी कर रही हैं, तो अपनी मजबूती वाले राज्य में उनकी पार्टी दलित बच्चियों के साथ उत्पीड़न की लगातार घटनाओं पर क्यों नहीं मैदान में उतर रही है? कुछ लोग इसकी वजह केंद्र की जांच एजेंसियों का दबाव बताते हैं। राजनैतिक जानकारों का यह भी मानना है कि बसपा का जाटवों में असर है, इसलिए बाकी दलित जातियों पर अत्याचार के मामलों में उसकी सक्रियता उतनी नहीं दिखती है। इसके लिए भी हाथरस की घटना का उदाहरण दिया जा रहा है कि पीड़ित परिवार वाल्मीकि समाज का है, जिसके मोटे तौर पर वोट पिछली दो बार से भाजपा की ओर जा रहे हैं। गौरतलब है कि हाथरस से वाल्मीकि समाज के ही भाजपा के सांसद हैं। लेकिन, भला बसपा सिर्फ जाटव वोटों के सहारे ही रहना पसंद क्यों करेगी। फिर, चंद्रशेखर आजाद की भीम आर्मी और अब राजनैतिक पार्टी आजाद समाज पार्टी भी जाटव वोटबैंक में हिस्सेदारी की आक्रामक कोशिश कर रही है। चंद्रशेखर खुद जाटव हैं और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के सहारनपुर इलाके के रहने वाले हैं। प्रदेश की राजनीति के जानकार यह भी इशारा करते हैं कि चंद्रशेखर के पीछे कांग्रेस का हाथ है। तो, क्या मायावती के कांग्रेस के प्रति हाल की कड़वाहट की यह भी एक वजह है?

लेकिन सपा और उसके अध्यक्ष की मंथर सक्रियता के मायने क्या हो सकते हैं? हाल में धुर पूर्वी जिले बलिया के एक गांव में ओबीसी समुदाय के लोगों पर पुलिस के सामने गोलीकांड में भी सपा का झंडा खास बुलंद होता नहीं दिखा। मीडिया में खबरें उछलीं, तब जाकर लखनऊ में गोलीकांड का आरोपी पकड़ा गया, लेकिन एक अदालती आदेश के बाद पुलिस ने पीड़ित पक्ष के खिलाफ भी एफआइआर दर्ज कर ली। ऐसी और भी घटनाएं हुईं मगर सपा अध्यक्ष ने बयान के अलावा ज्यादा सक्रियता नहीं दिखाई। हालांकि खबरें ये हैं कि सपा छोटी पार्टियों और अलग-अलग जातियों के नेताओं को पाले में लाकर एक मंच सजाना चाहती है। इन पार्टियों में ओमप्रकाश राजभर की सुहेलदेव वंचित समाज पार्टी, पीस पार्टी, अपना दल के असंतुष्ट खेमे के अलावा रालोद प्रमुख हैं। इसलिए हाल के उपचुनाव में सपा कुल आठ में से चार में जीत दर्ज करने की कोशिश कर रही है। इसमें दो उसकी सीट है और दो भाजपा से झटकने की कोशिश कर रही है। अखिलेश अपनी इस नई गठबंधन योजना के लिए दलील देते हैं कि यह तो भाजपा से ही सीखा है।

विपक्ष के इन दो बड़े किरदारों के अलावा सबसे अधिक सक्रिय कांग्रेस दिख रही है। प्रियंका गांधी भले 2019 में प्रदेश की प्रभारी महासचिव बनाए जाने के बाद लोकसभा चुनावों में खास असर न दिखा पाई हों, लेकिन वे लगातार सक्रिय रही हैं। उन्होंने सोनभद्र के उभा गांव में आदिवासियों पर गोलीकांड, उन्नाव में बलात्कार की वारदात, नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ प्रदर्शनों, लॉकडाउन में मजदूरों की गांव-घर वापसी, हाथरस कांड सबमें जोरदार सक्रियता दिखाई है। इस तरह उन्होंने और प्रदेश अध्यक्ष अजय कुमार लल्लू ने एक जुझारू नेता की अपनी छवि बनाई है। इसी सक्रियता और जूझारूपन के बूते कांग्रेस की योजना राज्य में संगठन खड़ा करने की है। पार्टी के सूत्रों की मानें तो इसका पार्टी और प्रियंका को अच्छा-खासा लाभ भी मिला है। राज्य पार्टी में सक्रिय एक नेता के मुताबिक, हर जिले में ब्लॉक स्तर पर पार्टी का ढांचा तैयार किया जा रहा है। सूत्रों का दावा तो यह भी है कि पार्टी ने इस दौरान 74 लाख लोगों से पुख्ता संपर्क स्‍थापित किया है और उनमें अनेक पार्टी के लिए सक्रियता से काम करने लगे हैं।

यही नहीं, यह भी कहा जाता है कि प्रियंका प्रदेश के विभिन्न हिस्सों के तकरीबन 5,000 कार्यकर्ताओं के निरंतर संपर्क में हैं, जो उनसे सीधे बात कर सकते हैं और सूचनाएं मुहैया कराते हैं। यह देखना बाकी है कि उनकी कोशिशों से कांग्रेस में कितनी जान लौटती है। उत्तर प्रदेश में विपक्ष की यही सबसे बड़ी पहेली है।

प्रियंका गांधी

कांग्रेस को उबारने के लिए पार्टी महासचिव प्रियंका गांधी का सबसे ज्यादा जोर, राज्य में संगठन को मजबूत करने पर है

मायावती

राज्यसभा चुनाव के मद्देनजर मायावती को अपने विधायकों के बागी तेवर का सामना करना पड़ा है। उन्होंने सात विधायकों को निलंबित कर दिया है

जयंत चौधरी

हाथरस गैंगरेप मामले में लाठी कांड के बाद रालोद उपाध्यक्ष जयंत चौधरी ने पश्चिमी यूपी में महापंचायतें करके जनाधार मजबूत करने की कोशिश की

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