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18 मार्च 2023 · MAR 18 , 2024

आवरण कथा/सियासी बोल: क्या होगा असर

सबकी नजर इस पर रहेगी कि चंदा देने वालों की सूची उजागर होती है, तो राजनैतिक परिदृश्य में कोई फर्क पड़ता है भी या नहीं
चुनावी चंदे पर बहस

चुनावी बॉन्ड के सबसे बड़े लाभार्थी को क्या सबसे ज्यादा नुकसान होने जा रहा है? सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने इस योजना को असंवैधानिक ठहराया, आगे ऐसे बॉन्ड को जारी करने पर रोक लगाया और इसके जरिए राजनैतिक फंडिंग पाने वालों और चंदा देने वालों का सारा ब्यौरा उजागर करने के आदेश दिए, तो सबसे अहम सवाल यही उठ खड़ा हुआ है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार ने 2017 में चुनावी बॉन्ड योजना ले कर आई, जो कॉरपोरेट इकाइयों और व्यक्तियों को भारतीय स्टेट बैंक से चुनावी बॉन्ड खरीद कर उसे अपनी पसंद के राजनैतिक दल के खाते में जमा करने की छूट देती थी। इसे केवल स्टेट बैंक ही जारी कर सकता था।

इसमें देने और लेने वाले की पहचान गुप्त रखने की सुविधा थी। यहां तक कि लाभार्थी को भी सीधे देने वाले का नाम नहीं पता होता था क्योंकि बॉन्ड पर धारक का नाम नहीं होता था। हालांकि पारदर्शिता के पैरोकारों का लंबे समय से कहना रहा है कि इससे कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि देने वाला खुद चाहेगा कि उसकी पहचान पाने वाले को पता रहे और यह काम आसान है।

आगामी कुछ महीनों में होने वाले आम चुनाव के मद्देनजर यह अदालती आदेश न केवल राजनीतिक चंदे को प्रभावित करेगा, बल्कि राजनैतिक दलों के लिए शर्मिंदगी का बायस भी बन सकता है क्योंकि लेने और देने वाले की पहचान सार्वजनिक होने के बाद राजनैतिक दलों के विभिन्न कारोबारी समूहों के साथ रिश्ते उजागर हो जाएंगे। आदेश के अनुसार केंद्रीय चुनाव आयोग को यह विवरण 13 मार्च तक सार्वजनिक करना है।

इस योजना को लाए जाने के बाद उसकी सबसे बड़ी लाभार्थी भारतीय जनता पार्टी रही है। इस महीने की शुरुआत में केंद्र सरकार ने अदालत को बताया था कि 30 किस्तों में स्टेट बैंक से खरीदे गए चुनावी बॉन्ड की कीमत करीब 16,518 करोड़ रुपये है।

जुलाई 2023 तक यह राशि 13,791 करोड़ रुपये थी। यानी अगस्त 2023 से जनवरी 2024 के बीच 2,727 करोड़ रुपये के बॉन्ड बेचे गए। मात्र छह महीने की यह राशि पिछले 65 महीनों यानी करीब पांच साल में बॉन्ड की बिक्री से आई राशि का पांचवां हिस्सा है।

अदालत में चुनावी बॉन्ड योजना के खिलाफ याचिका डालने वाले एक पक्ष एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) ने एक रिपोर्ट में बताया है कि कुल बॉन्ड लागत का 57 प्रतिशत अकेले भाजपा के खाते में गया है, जबकि सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी कांग्रेस को महज 10 प्रतिशत मिला है। बाकी दलों को तो उससे भी कम मिला है।

क्षेत्रीय दलों में पश्चिम बंगाल की तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी), तमिलनाडु की द्रमुक और तेलंगाना की बीआरएस को योजना का सबसे ज्यादा लाभ मिला है।

भाजपा के वरिष्ठ नेता और पूर्व कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने फैसले के दिन कहा कि उनकी पार्टी कोर्ट के आदेश का सम्मान करती है और पूरा आदेश पढ़ने के बाद विस्तृत और सुचिंतित प्रतिक्रिया देगी। उन्होंने आगे कहा, “शायद राजनैतिक बदले की कार्रवाई की आशंका के चलते चंदा देने वालों ने अपना नाम गुप्त रखना चाहा होगा।” उन्होंने जोर देकर कहा कि सरकार की मंशा राजनैतिक चंदे के लेनदेन में पारदर्शिता लाना थी। उनके मुताबिक सरकार तय करना चाहती थी कि चुनाव में नकद का इस्तेमाल रोका जाए और केवल सफेद धन का इस्तेमाल हो। उन्होंने उम्मीद जताई कि यह फैसला मतदाता के मन पर असर नहीं डालेगा।

भाजपा के मुकाबले विपक्षी दलों ने ज्यादा उत्साह के साथ अदालत के फैसले का स्वागत किया है। माकपा इस मामले में सबसे ज्यादा खुश नजर आई। उसने सोशल मीडिया पर जोरदार ढंग से इस बात को प्रकाशित किया कि वह इकलौती राजनैतिक पार्टी है जिसने अपने घोषणापत्र में चुनावी बॉन्ड पर प्रतिबंध की मांग उठाई थी, उसके माध्यम से चंदा लेने से इनकार किया था और इस “कानूनी चुनावी भ्रष्टाचार का विरोध” किया था।

कांग्रेस के नेता राहुल गांधी ने भी उम्मीद जताई कि इससे भाजपा को शर्मिंदगी होगी। उन्होंने कहा, “भाजपा ने चुनावी बॉन्ड को रिश्वत और कमीशनखोरी का माध्यम बना डाला था। आज यह बात सही साबित हो गई।” यह उन्होंने सोशल मीडिया पर लिखा।

कांग्रेस की सहयोगी और तमिलनाडु में सत्तारूढ़ द्रमुक ने भी सुप्रीम कोर्ट के फैसले का स्वागत किया है। तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम.के. स्टालिन ने सोशल मीडिया पर लिखा, “शीर्ष अदालत ने बिलकुल सही फैसला दिया है कि चुनावी बॉन्ड असंवैधानिक हैं।” उन्होंने लिखा कि इस “फैसले ने सभी राजनैतिक दलों के लिए बराबरी का मैदान तैयार किया है और लोकतंत्र को बहाल किया है और व्यवस्‍था में आम आदमी के भरोसे को बढ़ाया है।”

पश्चिम बंगाल में सत्तारूढ़ टीएमसी के राज्यसभा सदस्य साकेत गोखले ने शीर्ष अदालत के इस फैसले को “पिछले पांच साल में संभवतः सबसे ऐतिहासिक फैसला और हस्तक्षेप” करार दिया है।

गोखले ने सोशल मीडिया पर लिखा, “अब चुनाव आयोग को मार्च मध्य तक चुनावी बॉन्ड के जरिए सभी चंदा देने वालों और प्राप्त करने वालों की सूची प्रकाशित करनी होगी। सबसे अहम बात यह देखने की होगी कि ऐसे कितने व्यक्ति और कंपनियां है, जिन्होंने भाजपा को चुनावी बॉन्ड दिए और उनमें से कितने पर ईडी और सीबीआइ की जांच चल रही है।”

पश्चिम बंगाल में सबसे बड़ा विपक्षी दल होने के नाते माकपा को उम्मीद है कि सूची सामने आने के बाद विभिन्न कारोबारी समूहों के साथ टीएमसी का गठजोड़ उजागर होगा।

क्षेत्रीय दलों के बीच टीएमसी चुनावी बॉन्ड की सबसे बड़ी लाभार्थी रही है। वैसे तो यह पार्टी एक ही राज्य में केंद्रित है लेकिन पूरे देश में उपस्थिति वाली कांग्रेस पार्टी के साथ तुलना करें तो दोनों को चुनावी बॉन्ड से मिली राशि आसपास बैठती है। द्रमुक और बीआरएस भी इस मामले में कांग्रेस से ज्यादा पीछे नहीं हैं।

इसीलिए तमिलनाडु में अन्नाद्रमुक के नेताओं को भी उम्मीद है कि एक बार द्रमुक को चंदा देने वालों की सूची बाहर आ जाए, तो वे उसे ठिकाने लगा देंगे।

राजनैतिक प्रेक्षकों का मानना है कि शीर्ष अदालत के फैसले की मार सबसे ज्यादा भाजपा पर पड़ेगी, हालांकि क्षेत्रीय दलों के लिए भी यह कम शर्मिंदगी वाली बात नहीं रहने वाली है।

चुनावी बॉन्‍ड?

चुनावी बॉन्‍ड योजना के तहत कोई व्यक्ति, समूह, गैर-सरकारी संगठन, ट्रस्ट और कॉर्पोरेट राजनैतिक पार्टियों को चंदा दे सकता था। भारतीय स्टेट बैंक (एसबीआइ) की अधिकृत शाखाओं से 1,000 रु., 10,000 रु., 1 लाख रु., 10 लाख रु. और 1 करोड़ रु. मूल्य के ये बॉन्ड खरीदे जा सकते थे। इसमें चंदे की कोई अधिकतम सीमा नहीं था। पार्टियों को चुनाव आयोग को अपने वार्षिक वित्तीय विवरण में चंदा देने वालों का ब्‍यौरा जाहिर करने की जरूरत नहीं थी। सुप्रीम कोर्ट ने एसबीआइ को निर्देश दिया है कि वह सभी ब्यौरे मुहैया कराए और चुनाव आयोग उसे 13 मार्च तक उसे सार्वजनिक करे।

इसे क्यों लाया गया?

सरकार के मुताबिक बैंक खातों के जरिए चंदे से राजनैतिक फंडिंग में पारदर्शिता बढ़ाई जा सकेगी. सरकार  चंदा देने वालों की पहचान गुमनाम रखना जरूरी मानती रही है ताकि उन्हें "बदले की कार्रवाई" से बचाया जा सके।

क्यों रद्द हुई?

कंपनियों से राजनीतिक दलों को असीमित चंदा स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव तथा "एक व्यक्ति एक वोट" के राजनैतिक समानता के सिद्धांत के विपरीत था क्योंकि इससे कुछ व्यक्तियों/कंपनियों को अपने रसूख और संसाधनों के जरिए नीति-निर्माण पर असर डालने की आशंका थी।

किसी कंपनी को राजनैतिक दलों को असीमित रकम देने की छूट देने वाला कानून कंपनियों और व्यक्तियों के राजनैतिक चंदे की बराबरी का घोर उल्‍लंघन था, और इसलिए, संविधान के अनुच्छेद 14 में निहित समानता के अधिकार के खिलाफ था। कोई  कंपनी राजनैतिक चंदे के जरिए किसी व्यक्ति के मुकाबले चुनाव प्रक्रिया को अधिक प्रभावित कर सकती थी।

अज्ञात चुनावी बॉन्‍ड संविधान के जरिए अनुच्छेद 19(1)(ए) के तहत मतदाताओं के सूचना के अधिकार का उल्लंघन किया गया क्योंकि चंदा पाने वाले राजनैतिक दल के बारे में जानकारी नहीं होती थी। सरकार में भ्रष्टाचार और बदले में लेन-देन की पहचान करने के लिए ऐसी जानकारी जरूरी है। काले धन पर अंकुश लगाने की योजना का उद्देश्य सूचना के अधिकार के उल्लंघन को जायज नहीं ठहराता।

आगे क्या?

राजनैतिक दल व्यक्तियों, पंजीकृत संगठनों, कॉर्पोरेट समूहों और चुनावी ट्रस्टों से चंदा हासिल कर सकते हैं। चुनावी ट्रस्ट कॉर्पोरेट समूह बनाते हैं, जिसका एकमात्र उद्देश्य अन्य कंपनियों और व्यक्तियों से प्राप्त योगदान को राजनीतिक दलों के बीच वितरित करना होता है।

पार्टियां सदस्यता शुल्क और पार्टी साहित्य तथा प्रचार सामग्री की बिक्री से धन जुटा सकती हैं।

नकद और गुमनाम चंदा सिर्फ 20,000 रुपए तक लिया जा सकता है।

राजनैतिक दलों को 20,000 रुपये से अधिक के सभी नकद और बैंकों तथा डिजिटल भुगतान विधियों से प्राप्‍त चंदे का सालाना ब्‍यौरा सार्वजनिक करना होगा।

कोई व्यक्ति या कॉर्पोरेट घराना चंदे पर कर छूट का दावा कर सकता है; राजनैतिक दलों को सभी स्रोतों से आय पर 100% कर छूट का लाभ मिलता है।

कॉर्पोरेट घरानों के लिए चंदा देने की एक सीमा है। यह पिछले तीन वर्षों में कंपनियों के औसत शुद्ध लाभ का 7.5% ही होना चाहिए।

किसी विदेशी कंपनी की भारतीय सहायक कंपनी राजनैतिक दलों को चंदा दे सकती है।

 

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