सियासत में संबंधों की अहमियत हमेशा अंकगणित पर निर्भर रही है। महाराष्ट्र में तेजी से बदलते घटनाचक्र के बीच सत्ता के लिए जारी गतिरोध यह समझने के लिए काफी है कि राजनीति में कोई रिश्ता स्थायी नहीं होता। चौबीस अक्टूबर को विधानसभा चुनाव के परिणामों के बाद सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के भीतर खुशियों का माहौल होना अपेक्षित था। पार्टी ने शिवसेना और अन्य घटक दलों के साथ बहुमत प्राप्त कर लिया था जिसकी बदौलत मुख्यमंत्री देवेंद्र फड़नवीस की सत्ता में वापसी का रास्ता भी प्रशस्त हो गया था। कांग्रेस के वसंतराव नाईक (1963-75) के बाद यह पहला मौका था जब राज्य में किसी ऐसे मुख्यमंत्री की वापसी हो रही थी जिसने राज्य में अपने पांच वर्ष के कार्यकाल को पूरा किया था, लेकिन परिणाम घोषित होने के एक सप्ताह बीत जाने के बाद (खबर लिखे जाने तक) भी भाजपा-शिवसेना सरकार का गठन नहीं हो पाया है और दोनों घटक दलों के बीच मुख्यमंत्री की कुर्सी के लिए हो रही उठापटक जारी है।
दरअसल, भाजपा के लिए यह परिणाम बहुत सुकून देने वाला नहीं है। उसे इस चुनाव में मात्र 105 सीट पर विजय मिली जो पिछली विधानसभा चुनाव में प्राप्त 122 सीट से 17 कम थीं। प्रमुख घटक शिवसेना भी मात्र 56 विधानसभा क्षेत्रों में सफल हुई, जो 2014 में उनके विधायकों की संख्या से सात कम रही। यही नहीं, उनकी गठबंधन सरकार के आठ मंत्रियों, जिसमें भाजपा की पंकजा मुंडे शामिल हैं, को हार का मुंह देखना पड़ा। चुनाव के दौरान भाजपा-शिवसेना महायुति, यानी गठबंधन को 288 सीट वाले विधानसभा में कम से कम 200 क्षेत्रों में अपनी विजय पताका लहराने की उम्मीद थी। बहस का मुद्दा सिर्फ यह था कि यह गठबंधन 200 से अधिक कितनी सीटें जीतेगा। भाजपा के कुछ बड़े नेता इस कदर आश्वस्त थे कि उन्हें लगता था कि उनकी पार्टी अपने बलबूते ही सरकार बना लेने में सक्षम रहेगी।
ऐसी सोच बेवजह नहीं थी। मात्र पांच महीने पहले आम चुनाव में इसी गठबंधन ने महाराष्ट्र की 48 लोकसभा क्षेत्रों में से 41 में जीत हासिल की थी। उसके बाद केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार ने अनुच्छेद 370 और ‘तीन तलाक’ सरीखे ऐतिहासिक फैसले किए। एक अन्य कारण किसी मजबूत विपक्ष का न होना भी माना जा रहा था। हालांकि चुनाव-पूर्व ही कांग्रेस ने शरद पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (राकांपा) के साथ गठबंधन कर लिया था, लेकिन दोनों दलों में सामंजस्य का अभाव झलक रहा था। उनके कई वरिष्ठ नेता और विधायक उनका दामन छोड़कर भाजपा-शिवसेना में शामिल हो चुके थे।
परिणाम शिवसेना के लिए भी अच्छे नहीं थे, लेकिन बालासाहेब ठाकरे द्वारा स्थापित पार्टी ने अपने लिए इस परिस्थिति को एक सुअवसर में बदलने में समय नहीं गंवाया। चुनाव-पूर्व हुए तालमेल के बाद शिवसेना के खाते में मात्र 124 सीटें आई थीं, जबकि भाजपा ने शेष 164 सीटें अन्य छोटे घटक दलों के साथ लड़ने का फैसला किया था। इस फैसले से शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे खुश नहीं थे। वे चुनाव भाजपा के साथ 50:50 के फार्मूला पर लड़ना चाहते थे लेकिन लंबे समय तक चली बातचीत के बाद भी उनकी नहीं चली। महायुति में यह पहला मौका था जब शिवसेना किसी चुनावी समर में भाजपा के “छोटे भाई” अर्थात जूनियर पार्टनर के रूप में उतरी थी। बीते पांच वर्षों में शिवसेना को सदैव मलाल रहा कि भाजपा ने महायुति में उनकी बड़े भाई की भूमिका कब्जा ली है।
चुनाव के ठीक पहले कम सीट मिलने पर शिवसेना का भाजपा के खिलाफ आक्रोश उस समय सतह पर आ गया जब उसने मुंबई की आरे कॉलोनी में मेट्रो कार शेड के लिए 2,703 पेड़ों के काटने के फड़नवीस सरकार के निर्णय को पर्यावरण विरोधी और हिटलरशाही बताया। उद्धव के पुत्र और युवा सेना के अध्यक्ष आदित्य ठाकरे ने घोषणा कर दी कि उनकी पार्टी सत्ता में लौटी तो मेट्रो कार शेड को अन्यत्र स्थानान्तरित किया जाएगा। सीट बंटवारे से अधिकतर शिवसैनिक भी खुश नहीं थे और चुनाव प्रचार के दौरान उद्धव ठाकरे ने उनका मनोबल यह कहकर बढ़ाया कि भाजपा के साथ सीटों पर समझौता महाराष्ट्र और खासकर उनके हितों के लिए किया गया है।
चुनाव परिणाम के बाद जब यह स्पष्ट हो गया कि भाजपा को पिछली बार से कम सीटें प्राप्त हुई हैं तो उद्धव ने अपना पासा फेंका। उन्होंने उम्मीद जाहिर की कि भाजपा नेतृत्व इस बार उनके बीच हुए 50:50 के फॉर्मूले के अनुसार सरकार गठन करेगी। उनके अनुसार इसी वर्ष लोकसभा चुनाव के पूर्व भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह उनके निवासस्थान 'मातोश्री' आए थे, जहां उनके बीच विधानसभा चुनाव में 50:50 फॉर्मूले पर, यानी आधी-आधी सीटों पर लड़ने की सहमति बनी थी। यही नहीं, शिवसेना के दावे के अनुसार दोनों दलों के बीच मुख्यमंत्री के कार्यकाल को भी ढाई-ढाई साल के लिए बांटा जाना निर्धारित हुआ था। उद्धव का कहना है कि सीट बंटवारे के दौरान उन्होंने समझौता किया था लेकिन उनकी पार्टी हर वक्त ऐसा नहीं कर सकती है।
भाजपा को शायद उद्धव से ऐसे किसी बयान की अपेक्षा नहीं थी क्योंकि पार्टी के शीर्ष नेता इस बात का ऐलान कर चुके थे कि फड़नवीस ही अगले पांच साल के लिए मुख्यमंत्री होंगे। फड़नवीस ने शुरुआत में यह कहकर मामले को शांत करने की कोशिश की कि सभी चीजें तयशुदा समझौते के अनुसार ही होंगी मगर शिवसेना इंतजार के मूड में नहीं थी। अपना रुख कड़ा करते हुए उसने अगले ही दिन मांग कर दी कि भाजपा नई सरकार के गठन के पूर्व ही उसे यह लिखित आश्वासन दे कि दोनों दलों के बीच हुए 50:50 फॉर्मूले के आधार पर मंत्रिमंडल के विभागों के अलावा मुख्यमंत्री के कार्यकाल का भी बंटवारा किया जाएगा। पार्टी के नवनिर्वाचित विधायकों की उद्धव के साथ मीटिंग के तुरंत बाद शिवसेना विधायक प्रताप सरनाईक ने यहां तक कहा कि नई सरकार का गठन इस फॉर्मूले के बगैर संभव नहीं हो पाएगा, वरना, शिवसेना ने अपना विकल्प खुला रखा है।
भाजपा इसके लिए तैयार न थी, विवाद बढ़ता देखकर फड़नवीस ने इससे इनकार किया कि दोनों पार्टियों के बीच ऐसा कोई समझौता हुआ था। फड़नवीस ने इस पर भी जोर दिया कि वे अगले पांच साल मुख्यमंत्री रहेंगे। सूत्रों के अनुसार भाजपा शिवसेना को उप-मुख्यमंत्री के पद के अलावा कुछ महत्वपूर्ण मंत्रिमंडल देने को राजी थी। शिवसेना को फड़नवीस का बयान नागवार गुजरा। भाजपा सांसद संजय काकड़े ने यह बयान देकर कि शिवसेना के 45 विधायक मुख्यमंत्री के संपर्क में हैं, स्थिति को और भी गंभीर बना दिया। फड़नवीस, जिन्हें 30 अक्टूबर को भाजपा विधायक दल का नेता लगातार दूसरी बार चुन लिया गया, ने समस्या बढ़ती देखकर स्थिति संभालने की कोशिश की। उन्होंने उद्धव ठाकरे सहित महायुति के बाकी घटक दल के नेताओं का चुनाव में जीत का आभार जताया।
इसके बावजूद शिवसेना ने रुख नहीं बदला। पार्टी ने 31 अक्टूबर को एकनाथ शिंदे को विधायक दल का नेता चुन लिया लेकिन उद्धव ने यह फिर साफ कर दिया कि भाजपा को अपने वादे पर अमल करना चाहिए। पार्टी ने राज्यपाल से मिलने का समय मांगकर महाराष्ट्र में राजनैतिक सरगर्मियां बढ़ा दीं।
जानकारों का अनुमान था कि भाजपा और शिवसेना के बीच का तनाव महज राजनैतिक पैंतरेबाजी है। शिवसेना अपने लिए उप-मुख्यमंत्री के पद के अलावा गृह जैसे महत्वपूर्ण विभाग चाहती है। यह भी कहा जा रहा था कि भाजपा के शीर्षस्थ केंद्रीय नेताओं के हस्तक्षेप के बाद सब कुछ सामान्य हो जाएगा। लेकिन, अगर शिवसेना अपने ढाई साल के मुख्यमंत्री पद की मांग पर कायम रहती है, तो क्या होगा? और अगर भाजपा शिवसेना की मांग खारिज कर देती है तो क्या गठबंधन वाकई टूट सकता है? और अगर सबसे बड़ी पार्टी के नेता के रूप में राज्यपाल फड़नवीस को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित करते हैं, तो शिवसेना के पास क्या विकल्प हो सकते हैं? राजनैतिक विश्लेषकों के अनुसार उस परिस्थिति में शिवसेना के पास एकमात्र विकल्प कांग्रेस-राकांपा का है, जिनके साथ वह सरकार गठन करने का प्रयास कर सकती है। क्या ऐसे किसी गठबंधन के लिए कांग्रेस आलाकमान या खासकर राकांपा अध्यक्ष शरद पवार राजी होंगे? दोनों पार्टियों का कहना है कि अगर उनके पास शिवसेना का प्रस्ताव आता है तब वे उस पर विचार करेंगे।
इन तमाम परिस्थितियों के केंद्र में शरद पवार ही हैं जिनकी वजह से शिवसेना भाजपा पर दवाब डालने की स्थिति में आई है। इस चुनाव में कांग्रेस-राकांपा के बेहतरीन प्रदर्शन का श्रेय मुख्य रूप से उन्हें ही जाता है। उन्यासी वर्षीय पवार ने अपना तमाम राजनैतिक अनुभवों का इस्तेमाल कर जिस तरह से अपनी गठबंधन का नेतृत्व किया, उससे न सिर्फ राकांपा के बल्कि कांग्रेस के कई उम्मीदवारों की विजय का मार्ग प्रशस्त हुआ। चुनाव के कुछ दिनों पूर्व तक समझा जा रहा था कि बढ़ती उम्र और ख्ाराब स्वास्थ्य के कारण इस बार वे चुनाव प्रचार में सक्रिय नहीं रहेंगे। लेकिन प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) के एक कथित भ्रष्टाचार के केस में अपने खिलाफ एफआइआर दाखिल होने के बाद उन्होंने इस चुनौती को एक अवसर में बदलने के लिए कमर कस ली।
पवार ने इस “मास्टरस्ट्रोक” से न सिर्फ लोगों, खासकर मराठा समर्थकों, की सहानुभूति अर्जित कर ली, बल्कि अपनी पार्टी के कार्यकर्ताओं में नई ऊर्जा का संचार भी किया। उम्र के इस पड़ाव पर भी उन्होंने मौसम की परवाह न करते हुए हर रोज लगभग 200 किलोमीटर की यात्रा कर तकरीबन 80 रैलियों को संबोधित किया। सतारा में भारी बरसात के बीच उनके भाषण की तसवीर चुनाव में चर्चा का विषय बनी। अपनी सभी सभाओं में उन्होंने मोदी और अमित शाह जैसे भाजपा के शीर्ष नेताओं द्वारा उठाए गए कश्मीर और अनुच्छेद 370 जैसे राष्ट्रीय मसलों को खारिज कर किसानों की समस्याएं, बढ़ती बेरोजगारी और कमजोर होती अर्थव्यवस्था के मुद्दे उठाए। इन सबका नतीजा यह हुआ कि उनकी पार्टी को 54 सीटें मिलीं जो पिछले चुनाव से 13 अधिक थीं। इसका फायदा कांग्रेस को भी हुआ जिसके 44 उम्मीदवार विजयी हुए। विश्लेषकों का मानना है कि अगर चुनाव में शरद पवार को कांग्रेस नेतृत्व से अपेक्षित सहयोग मिला होता तो उनके गठबंधन को और फायदा होता।
गौरतलब है कि इस चुनाव में कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने सिर्फ पांच सभाएं कीं, जबकि सोनिया गांधी और प्रियंका गांधी चुनाव प्रचार से दूर ही रहीं। राज्य के बड़े कांग्रेसी नेता सुशील कुमार शिंदे, अशोक चव्हाण और पृथ्वीराज चव्हाण सिर्फ अपने या अपने संबंधियों के चुनाव क्षेत्रों तक सीमित रहे। नतीजतन, यह लड़ाई पवार बनाम भाजपा-शिवसेना गठबंधन के रूप में उभर कर सामने आई। सतारा के लोकसभा उपचुनाव में उनकी पार्टी के उम्मीदवार की विजय मतदाताओं पर मजबूत पकड़ को दर्शाती है।
परिणाम के पश्चात उभरे राजनैतिक असमंजस की स्थिति में अब सबकी नजरें शरद पवार पर हैं। हालांकि उन्होंने यह स्पष्ट कर दिया है कि उनकी पार्टी को विपक्ष में बैठने का जनादेश मिला है। उन्होंने यह पूर्वानुमान भी खारिज किया है कि उनका गठबंधन शिवसेना के साथ सरकार बना सकता है। सवाल यह भी है कि अगर वे शिवसेना के साथ सरकार बना सकते हैं तो भाजपा के साथ क्यों नहीं? सियासी जानकार मानते हैं कि सूबे में पवार से बेहतर राजनीति का सिद्धहस्त खिलाड़ी शायद ही कोई और है। मौजूदा परिस्थिति में ऐसे कई विकल्प हैं जिनकी बदौलत सरकार बन सकती है, पर मूल सवाल कि क्या अब महाराष्ट्र में भाजपा और शिवसेना की राहें जुदा होंगी, अभी अनुत्तरित है।