तीस मई 2019 को जब नरेंद्र मोदी ने दूसरी बार प्रधानमंत्री के रूप में शपथ ली, उनके लिए उस समय भी बढ़ती बेरोजगारी सबसे बड़ी चुनौती है। हालांकि उन्होंने चुनावों में बेहद सफलतापूर्वक इस मुद्दे को दरकिनार कर मजबूत नेतृत्व और राष्ट्रवाद के नाम पर प्रचार की दिशा तय कर दी। ऐसे में बढ़ती बेरोजगारी कभी चुनावी मुद्दा ही नहीं बन पाई। विपक्ष के रुख को देखते हुए शायद मोदी को यह आभास हो गया था कि बेरोजगारी चुनावी मुद्दा नहीं बन सकती है। हम ऐसे कई कारण गिना सकते हैं, जिसकी वजह से बेरोजगारी कभी चुनावी मुद्दा नहीं बन पाती है।
सबसे पहले हम जोश से भरे हुए भारत को आज की हकीकत बताते हैं। अच्छी गुणवत्ता वाली नौकरियों की संख्या में कमी आ गई है। बड़ी आबादी अभी भी कम वेतन वाली नौकरी करने को मजबूर है। असंगठित क्षेत्र में नौकरियों को लेकर असुरक्षा बनी हुई है। मजदूर संगठन पूरी तरह गैर प्रभावकारी हो चुके हैं। लोग अपने मुद्दों को लेकर प्रदर्शन नहीं करते हैं। ऐसे में संगठित क्षेत्र के श्रमिकों का राजनीति में असर बेहद कम हो गया है।
दूसरी अहम बात यह है कि बढ़ती बेरोजगारी के आंकड़ों का असर बढ़ती महंगाई जैसे मुद्दों की तरह व्यापक नहीं होता है। जब महंगाई बढ़ती है तो सभी परिवारों पर उसका नकारात्मक असर पड़ता है। महंगाई जब हद से ज्यादा बढ़ती है तो फिर चुनावों में सीधा असर सत्तारूढ़ दलों के ऊपर होता है।
दुर्भाग्य से बेरोजगारी हर व्यक्ति पर असर नहीं डालती है। इसे ऐसे समझ सकते हैं कि अगर बेरोजगारी दर 10 फीसदी पहुंच जाती है, तो इसका मतलब यह है कि बचे 90 फीसदी लोगों के पास नौकरियां हैं। ऐसे में बेरोजगारी पर महंगाई जैसी नाराजगी नहीं दिखती है। जिन 10 फीसदी लोगों को नौकरी नहीं मिलती है, उसमें से ज्यादातर यही मानते हैं कि उन्हें नौकरी, उनकी कमी की वजह से नहीं मिल रही है।
इस समय युवाओं और महिलाओं में सबसे ज्यादा बेरोजगारी दर है। इस समय युवाओं में बेरोजगारी दर 30 फीसदी तक पहुंच गई है। इसका मतलब यह है कि हर तीसरे युवा को नौकरी नहीं मिल रही है। ऐसे में जब किसी बेरोजगार को लंबे समय तक सही नौकरी नहीं मिल पाती है तो वह कम वेतन वाली नौकरी को स्वीकार कर लेता है। नौकरी नहीं मिलने पर किसी पुरुष की तुलना में महिला को कम अपमान सहना पड़ता है। इस वजह से महिलाओं में बेरोजगारी की दर पुरुषों की तुलना में ज्यादा है। महिलाओं में बेरोजगारी की दर 16 फीसदी तो पुरुषों में 5.6 फीसदी हो गई है।
खैर, अब चुनाव खत्म हो चुके हैं लेकिन बेरोजगारी की स्थिति वैसी ही बनी हुई है। ऐसे में क्या हम इस समस्या को लेकर चिंतित हैं? चुनाव परिणामों को देखते हुए लगता है कि हम बेरोजगारी की ज्यादा परवाह नहीं करते हैं। लेकिन समझदारी की बात यह है कि बेरोजगारी की बढ़ती समस्या की अनदेखी नहीं की जाए और इसे कम करने की दिशा में ठोस कदम उठाए जाएं। बेरोजगारी की समस्या कितनी बड़ी है, इसे जानने के लिए जरूरी है कि उसकी संकल्पना को समझा जाए। ऐसे लोग जो घर-परिवार की देखभाल में लगे होते हैं और घर के बाहर नौकरी नहीं ढूढ़ते हैं, वह बेरोजगार नहीं होते हैं। इनके अलावा कुछ लोग ऐसे होते हैं, जो वेतन या लाभ के लिए काम करना चाहते हैं, उन्हें बेरोजगार कहा जाता है। हमें ऐसे लोगों की चिंता करनी चाहिए।
इस समय देश में 40.4 करोड़ लोग नौकरी कर रहे हैं जबकि 4.20 करोड़ लोग बेरोजगार हैं। यह समझना जरूरी है कि ये सभी 4.20 करोड़ लोग बेहद सक्रिय होकर नौकरी नहीं ढूंढ़ रहे हैं। इसमें से करीब 1.20 करोड़ लोग ऐसे हैं जो पूरी सक्रियता से नौकरी नहीं ढूंढ़ रहे हैं। इन 1.20 करोड़ लोगों में से करीब 70 लाख महिलाएं हैं। हमें इन 70 लाख महिलाओं की चिंता करनी चाहिए। हमें यह समझना चाहिए कि उनके रास्ते में सक्रिय रूप से नौकरी ढूंढ़ने के लिए क्या बाधाएं हैं? नई सरकार को इन 1.20 करोड़ लोगों को सक्रिय रूप से नौकरी करने के लिए प्रेरित करना चाहिए।
इसी तरह बचे तीन करोड़ लोग जो सक्रिय रूप से नौकरी ढूंढ़ रहे हैं, उनके लिए दूसरी तरह की चुनौतियां हैं। यहां पर पुरुषों की संख्या महिलाओं की तुलना में कहीं ज्यादा है। करीब 2.2 करोड़ पुरुष और 80 लाख महिलाएं इस श्रेणी में आती हैं। ऐसे में इन आंकड़ों से साफ है कि देश में इस समय बेरोजगारी की दर सात फीसदी पहुंच गई है।
नई सरकार के लिए जरूरी है कि सबसे पहले उन तीन करोड़ लोगों की चिंता करे, जो बेहद सक्रिय होकर नौकरी की तलाश कर रहे हैं। उसे ऐसे कदम उठाने चाहिए, जिससे यह संख्या आने वाले दिनों में बढ़ने नहीं पाए। उसके बाद उसे बचे 1.20 करोड़ लोगों की चिंता करनी चाहिए। बेरोजगारी की समस्या का लंबी अवधि के लिए उपचार यह है कि सरकार निवेश बढ़ाए। खास तौर से निजी क्षेत्र में उन जगहों पर ज्यादा निवेश करे जहां गुणवत्ता वाली ज्यादा नौकरियां मिलने की संभावनाएं हैं।
इसके लिए नई सरकार को ऐसा वातावरण तैयार करना होगा, जिससे निजी क्षेत्र निवेश के लिए आगे आए। इस तरह का माहौल पहले देश में बन चुका है, जब भारी मात्रा में निजी क्षेत्र द्वारा निवेश किए गए थे। आइटी, फॉर्मास्युटिकल, वित्तीय सेवाएं, ऑटोमोबाइल आदि ऐसे क्षेत्र हैं, जहां बड़ी मात्रा में गुणवत्ता वाली नौकरियां निकल सकती हैं। बेरोजगारी की समस्या को दूर करने के लिए कोई जादू की छड़ी नहीं है। लेकिन इस लड़ाई को सही दिशा में कदम उठाकर धीरे-धीरे जीता जा सकता है। बस इसके लिए लक्ष्य साफ होना चाहिए।
(लेखक सेंटर फॉर मॉनीटरिंग इंडियन इकोनॉमी के एमडी और सीईओ हैं)