गोपालगंज जिले के बरौली प्रखंड का बेलसंड बिहार के अधिकतर गांवों की तरह ही है। चार वर्ष पहले तक उसे बाहर की दुनिया से जोड़ने वाली कोई पक्की सड़क नहीं थी और खंभे गड़ने के वर्षों बाद बिजली आई। आज भी शहरी कोलाहल से यह इलाका मीलों दूर है। लेकिन, पिछले कुछ दिनों से बेलसंड चर्चा में है। यह पंकज त्रिपाठी का पुश्तैनी गांव है, वही पंकज जिन्होंने अपने सहज और स्वाभाविक अभिनय से हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में एक विशिष्ठ पहचान बनाई है। वे बॉलीवुड के कंटेंट-प्रधान सिनेमा के पोस्टरबॉय हैं, जिनके पास अगले साल तक किसी नए प्रोजेक्ट में काम करने के लिए वक्त नहीं हैं। कोरोना काल के दौरान भी पंकज की पांच फिल्में और दो वेब सीरीज प्रदर्शित हुए और सभी को दर्शकों और समीक्षकों ने सराहा। वे अपने ढंग के निराले अभिनेता हैं जो अपने स्टारडम को अपने ऊपर हावी नहीं होने देना चाहते। न तो उनके साथ कोई पीआर की टीम चलती है, न ही वे बाउंसरों के सुरक्षा चक्र में घिरे रहते हैं। उन्हें तो यह भी नहीं लगता वे कोई स्टार हैं, भले ही आज डेट्स के लिए निर्माता उनके मुंबई स्थित अपार्टमेंट की पार्किंग में देर रात तक उनके लौटने का इंतजार करते हैं कि किसी तरह वे उनकी अगली फिल्म करने को राजी हो जाएं।
बेलसंड पंकज की जन्मस्थली है, जिसकी पगडंडियों पर चलते हुए उन्होंने जीवन में कुछ करने का सपना देखा और वर्षों की जद्दोजहद के बाद मायानगरी पहुंच कर उन्हें साकार किया। करियर के शीर्ष पर भागदौड़ के बीच कुछ महीनों के अंतराल पर वे बेलसंड आते रहते हैं, अपनों के बीच सुकून के कुछ पल बिताने, लेकिन चैन उन्हें यहां भी मयस्सर नहीं होता।
गैंग्स ऑफ वासेपुर से मिली पहचान
उनके आने की खबर कुछ घंटे के अंदर आसपास के गांवों और कस्बों में फैल जाती है। पिछले प्रवास के दौरान एक दिन अल सुबह बच्चों के शोर से उनकी नींद खुली। बाहर आए तो देखा लगभग तीन सौ स्कूली छात्र इकट्ठे थे। पंकज भले ही हर बार बगैर किसी तामझाम के आते हैं और गांव के युवाओं को हिदायत है कि उनके आने की खबर सोशल मीडिया पर अपडेट न करें। इसके बावजूद, दिन भर उनके घर लोगों का तांता लगा रहता है। कुछ तो उत्तर प्रदेश के गोरखपुर और मिर्जापुर के सुदूरवर्ती इलाकों से भी आ धमकते हैं।
पंकज के गांव पहुंचना अभी भी आसान नहीं। इसके बावजूद, जब भी वे आते हैं, उनके प्रशंसकों का हुजूम उमड़ने में देर नहीं होती। कभी-कभार तो उनके नहीं रहने पर भी। पिछले साल, महज इस अनुमान पर एक फैन दिल्ली से सटे एक गांव से उनके दर्शन को बेलसंड पहुंच गया कि छठ पर्व पर पंकज हमेशा अपने गांव आते हैं। बहुत सारे फिल्म स्टार के लिए शायद स्टारडम की यही कीमत होती है, लेकिन पंकज के लिए यह सफलता की कीमत नहीं, आमद है। पंकज आउटलुक से कहते हैं, “लोग अक्सर मुझसे पूछते हैं कि मेरे तार अभी तक कैसे गांव से जुड़े हुए हैं, तो मैं कहता हूं कि मैं अपने गांव से कभी बेतार हुआ ही नहीं। जुड़ने का सवाल तो तब आता है, जब अब आप कहीं से कट जाते हैं। मैं तो अपने गांव से कभी कटा ही नहीं।”
फिल्म स्त्री में दिखा अलग अंदाज
आउटलुक की टीम जब उनके गांव पहुंचती है तो वे अपने घर की छत पर कच्ची हल्दी सुखा रहे होते हैं, जिसे वे ताजा-ताजा खेतों से लाए हैं। वे कहते हैं, “इन्हें मैं मुंबई ले जाऊंगा, इसमें नमक और नींबू मिलाकर जबरदस्त अचार बनता है, वैसे ही जैसा हम अदरक का अचार बनाते हैं।” गांव आने पर वे स्वयं गोइठा (उपले) पर सेंक कर लिट्टी बनाते हैं, सर्दियों में अलाव (घूर) जलाया जाता है, जिसके इर्दगिर्द परिजनों और पुराने मित्रों के साथ किस्से-कहानियों का दौर देर रात तक चलता है। ग्रामीण परिवेश की आबोहवा उन्हें बार-बार यहां खींचती है। शायद यही वजह है कि उन्होंने मुंबई के अपने फ्लैट में अपनी पसंदीदा खाट भी बुनवा रखी है। मुंबई के किसी बड़े स्टूडियो की वैनिटी वैन में शूटिंग के दौरान अपने शॉट का इंतजार करते हुए वे एक बड़े स्टार भले ही दिखें, उनके दिल में बेलसंड के खेत-खलिहान अभी भी लहलहाते हैं। यहीं उन्हें बाकी बॉलीवुड सितारों से इतर, एक अतरंगी अभिनेता बनता है। जो सहजता और स्वाभाविकता परदे पर उनके अभिनय में झलकती है, उसे करने का हुनर उन्होंने अपने गांव में रहते हुए आत्मसात किया है। उनकी यही खासियत उनके सह-कलाकारों को चकित करती है और दर्शकों को मुग्ध। जरूरी नहीं कि नए दौर के स्टार और एक्टर बांद्रा से ही आएं, वे पंकज की तरह दूरदराज के बेलसंड जैसे गांवों से भी आ सकते है।
बरेली की बर्फी में बिंदास पिता की भूमिका में पहली पसंद बने
लेकिन, पंकज सफलता के इस मुकाम पर पहुंचेंगे, क्या ऐसा उन्होंने कभी सोचा था? वे कहते हैं, “बिल्कल नहीं, सच पूछिए तो मुझे इसकी उम्मीद नहीं थी। मैं जिस लक्ष्य के साथ मुंबई गया था, वह तो तीन-चार साल पहले ही पूरा हो चुका। अभी जो भी मिल रहा वह तो ‘सरप्लस’ है।” पंकज ने दरअसल कभी सपने में भी सोचा न था कि वे एक दिन अभिनेता बनेंगे, वह भी बॉलीवुड में जहां न तो कोई उनका गॉडफादर था, न कोई रहनुमा। उनके गांव में वर्षों से छठ पर्व के दौरान नाटकों के आयोजन की परंपरा चली आ रही थी, जिसमें उन्होंने दो बार शौकिया तौर पर भाग लिया था। “एक नाटक में मैंने स्त्री का भी किरदार निभाया, जिसे कोई दूसरा निभाने को तैयार न था। होता यह था कि जो भी किसी स्त्री भूमिका निभाता था, उसे लोग पूरे साल उसी किरदार के नाम से संबोधित कर चिढ़ाते थे। लोगों ने मेरे साथ भी वैसा ही करने की कोशिश की, लेकिन मेरे ऊपर जब उसका कोई असर नहीं हुआ तो उन्होंने मुझे चिढ़ाना बंद कर दिया।”
मिमी फिल्म की भूमिका में हर संवाद से गुदगुदाया
पंकज के गांव में अधिकतर परिवार ब्राह्मणों के हैं। उनके पिता, जो अब 98 वर्ष के हैं, किसानी और पुरोहिती करते थे। लेकिन पंकज कुछ हटकर करना चाहते थे। “मेरा असली नाम पंकज तिवारी है लेकिन जब मैं नौवीं कक्षा में पढ़ता था तो मैंने अपना नाम बदलकर पंकज त्रिपाठी कर दिया। बच्चों को पिता का उपनाम मिलता है, लेकिन मैंने अपने पिता का ही सरनेम बदल दिया।”
इसके पीछे की कहानी दिलचस्प है। उनके पड़ोस में एक कॉलेज प्रोफेसर रामनरेश त्रिपाठी रहते थे, जो गांव के सबसे पढ़े-लिखे व्यक्ति थे। पंकज को हमेशा लगता था कि जिनका सरनेम ‘तिवारी’ होता है वे महज पूजापाठ करते हैं और जिनके नाम में ‘त्रिपाठी’ जुड़ा होता है, वे बुद्धिजीवी प्रोफेसर होते हैं। “इसलिए स्कूल के रिकॉर्ड में मैंने नाम पंकज तिवारी की जगह पंकज त्रिपाठी करवा दिया।”
न्यूटन की भूमिका के लिए मिला राष्ट्रीय पुरस्कार
उन दिनों गांव के हर घर का कोई न कोई व्यक्ति नाटकों में भाग लेता था। पंकज को अब लगता है कि वहां नाटकों की संस्कृति शायद उन्हीं के लिए थी। “कई बार लगता है कि नियति आपके लिए रास्ता बना रही होती है। शायद ईश्वर ने मेरे गांव में नाटक का संस्कार मेरे लिए ही दिया था। अगर मैं यहां दो साल नाटक नहीं करता तो शायद अभिनय में मेरी दिलचस्पी नहीं जगती और मैं वहां नहीं पहुंचता जहां मैं आज हूं, वरना मेरे घर में तो कला, अभिनय, संगीत जैसी चीजों से कोई लेनादेना नहीं था।”
जाहिर है, शुरुआती दिनों में नाटक करना उनके लिए महज शौक था। उनके पिता, पंडित बनारस तिवारी उन्हें डॉक्टर बनाने चाहते थे, और उन्होंने पंकज को कोचिंग और पढ़ाई के लिए पटना भी भेजा, लेकिन पढ़ाई में उनका मन नहीं लगता था। पंकज कहते हैं, “एक दिन मेरे एक चाचा ने किसी अखबार में पढ़ लिया कि यूरोप और जापान में भारतीय रसोइयों की काफी मांग है। मैंने बारहवीं की परीक्षा पास कर ली थी। उनकी सलाह पर मैंने प्रतियोगिता परीक्षा देकर पटना स्थित फूड क्राफ्ट इंस्टिट्यूट में दो-वर्ष के कोर्स के लिए दाखिला लिया। उसी दौरान मुझे पटना के मौर्या होटल में इंडस्ट्रियल ट्रेनिंग करने का मौका मिला। मैं सोच रहा था कि मुझे जापान में रसोइए की नौकरी मिल जाएगी और जिंदगी सेटल हो जाएगी।”
इंटर्नशिप के दौरान पंकज को उस होटल में बेकरी के एक्सपर्ट माने जाने वाले मिर्जापुर के नासिर उस्ताद के साथ छह महीने काम करने का मौका मिला। “मैं वहां केक का बेस और ब्रेड बनाता था। मेरा काम बढ़िया था तो होटल में मुझे अस्थायी नौकरी मिल गई।”
पंकज को उन दिनों सांस्कृतिक कार्यक्रमों में जाना पसंद था। वे कहते हैं, “एक बार मैं हवाई चप्पल पहने साधारण कपड़ों में पटना विश्वविद्यालय के मगध महिला कॉलेज चला गया और स्पिक-मैके द्वारा आयोजित उस्ताद बिस्मिल्लाह खान के शहनाई वादन के कार्यक्रम में पहुंच गया, जहां शहर की नामचीन हस्तियां मौजूद थीं। मुझे शास्त्रीय संगीत की बिलकुल समझ नहीं थी, लेकिन दूसरों को देखकर मैं भी वहां वाह-वाह करता। उस्ताद जी बीच-बीच में मंच से मुझे देखकर मुस्करा देते थे, शायद यह सोचकर कि कच्ची उम्र में भी इस नौजवान को शास्त्रीय संगीत में कितनी दिलचस्पी है!”
गुंजन सक्सेना में स्नेही पिता
लेकिन नाटकों या सांस्कृतिक कार्यक्रमों में दिलचस्पी होने के बावजूद उनमें पेशेवर अभिनेता बनने की कोई ख्वाहिश तब तक न थी। संयोगवश, पटना में रंगमंच की धुरी कहे जाने वाला कालिदास रंगालय होटल के करीब था, जहां रोज नए नाटक का मंचन होता था। वे वहां नियमित रूप से जाने लगे। “मैंने होटल में रात 11 बजे से सुबह के सात बजे वाली नाईट शिफ्ट वाली ड्यूटी करवा रखी थी। मेरा काम किचेन की सफाई और सुबह के नाश्ते के तैयारी करना होता है। मेरे पास एक साइकिल थी जिसे चला कर मैं रोज कालिदास रंगालय नाटक देखने चला जाता था। वहां स्टैंड में साइकिल रखने के लिए एक रुपया देना पड़ता था, लेकिन एक महीने बाद साइकिल स्टैंड के इंचार्ज सुनील ने मुझसे पैसे लेने से इनकार कर दिया। उन्होंने मुझसे कहा कि रंगमंच को तुम्हारे जैसे सुधि दर्शकों के जरूरत है। जब मैंने उनसे सुधि का मतलब पूछा तो उन्होंने कहा कि जो नाट्य कला को समझ सके, प्रोत्साहन दे सके।“
उसके बाद से यह सिलसिला साल भर चलता रहा। सुनील स्वयं एक रंगकर्मी थे और उन्हीं की मदद से पंकज अंधा कुआं नाटक के निर्देशक संदीप से मिले। वे रंगमंच की दुनिया में अभिनय करना चाहते थे। “मुझे वह पसंद आने लगा था।”
नब्बे के दशक में पंकज पटना में पढ़ाई के दौरान छात्र आंदोलन से भी जुड़े और अखिल भारतीय विधार्थी परिषद के सक्रिय सदस्य भी रहे। उन दिनों एक पुलिस फायरिंग के विरोध में प्रदर्शन करने के लिए उन्हें एक सप्ताह जेल में भी गुजारना पड़ा, लेकिन बाद में उनका छात्र राजनीति से मोहभंग हो गया। उसी बीच उन्होंने व्यापार करने की भी सोची। “मैंने कोलकाता से लाकर पटना और गोपालगंज में जूते बेंचे और दुकान पर भी बैठा, लेकिन मेरा मन उसमें भी नहीं लगा। रंगमंच की दुनिया में पहली बार मुझे लगा कि मैं यह काम बगैर किसी की चमचई के और अपनी रीढ़ की हड्डी सीधी रखकर कर सकता हूं। मुझे लगा जिसकी तलाश मुझे थी, मुझे मिल गया है।”
पंकज को जल्द ही एक नाटक में अभिनय का मौका मिला। उसके बाद उन्होंने अपने आपको पूरी तरह रंगमंच के लिए समर्पित कर दिया। संयोगवश, उन्होंने वर्ष 1998 में पटना के अप्सरा सिनेमा में प्रदर्शित सत्या फिल्म देखी, जिसमें मनोज बाजपेयी का भीखू म्हात्रे का किरदार उन्हें काफी पसंद आया। कुछ दिनों बाद उन्हें पता चला कि मनोज बिहार के ही बेतिया जिले के बेलवा गांव से मुंबई गए है। “मेरे गांव से मात्र 20 किलोमीटर दूर गंडक नदी बहती है, नदी के उस पार बेतिया है। मुझे लगा कि अगर वहां के गांव का कोई नौजवान हिंदी सिनेमा में अपना परचम लहरा सकता है, तो मैं क्यों नहीं?” पंकज कहते हैं कि मनोज की सफलता ने उनके हौसलों को नई उड़ान दी। कुछ दिनों बाद शूल (1999) की शूटिंग के लिए मोतिहारी जाते वक्त मनोज मौर्या होटल में रुके, जहां उनकी चप्पल छूट गई। जब पंकज को हाउसकीपिंग स्टाफ से पता चला तो उन्होंने उनकी चप्पल अपने पास रख ली। पंकज उस चर्चित घटना के बारे में बतलाते हैं, “मुझे लगा कि मनोज भैया की चप्पल पहनकर शायद मेरी तकदीर का दरवाजा खुल जाए।”
कुछ ऐसा हुआ भी। पंकज को 2001-04 बैच के लिए प्रतिष्ठित राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (एनएसडी), दिल्ली में दाखिला मिल गया, लेकिन कालिदास रंगालय में तमाम नाटक करने के बावजूद उन्हें ‘जेंडर काम्प्लेक्स’ का सामना करना पड़ा। शुरुआत में वे महिला सह-कलाकारों से साथ अंतरंग दृश्य करने में असहज होते थे। “मैं गांव के पास जिस हाइस्कूल में पढ़ता था, वहां छठी कक्षा से को-एजुकेशन था, लेकिन मुझे याद नहीं कि मैंने अपनी किसी सहपाठी लड़की से दसवीं क्लास तक कभी बात की हो। मेरे क्लास में पांच लड़कियां थीं जो शिक्षक के आने के बाद ही प्रवेश करती थीं। क्लास खत्म होने पर शिक्षक तब तक बैठे रहते जब तक लड़कियां लड़कों से पहले निकल न जाएं। मैं ऐसे परिवेश से गया था। पटना के रंगमंच में भी खुलापन न था लेकिन एनएसडी में मेरी झिझक खुल गई, जहां स्त्री और पुरुष कलाकार किसी दृश्य को बेहतर करने के समान उद्देश्य लिए साथ अभिनय करते थे।”
पंकज 2004 में एनएसडी से एक्टिंग का कोर्स कर पटना लौटे और उन्होंने सैयां भये कोतवाल नाटक का निर्देशन भी किया, लेकिन जल्द ही उन्हें एहसास हुआ कि नाटक करने के लिए फंड इकट्ठा करना पड़ता हैं। “मुझे लगा कि मुझे कला और संस्कृति विभाग के दफ्तरों के चक्कर काटने पड़ेंगे जो मैं नहीं कर सकता था। छह महीने बाद मैं एनएसडी के बैचमेट भानु उदय की सलाह पर 16 अक्टूबर 2004 को मायानगरी में अपनी किस्मत आजमाने निकल पड़ा।”
बॉलीवुड में लंबे समय से एनएसडी के पूर्ववर्ती छात्रों ने अपना विशेष मुकाम बना लिया था, लेकिन पंकज को जल्द ही पता चल गया कि वहां उन्हें अपने बल पर ही सब कुछ करना पड़ेगा। वे कहते हैं, “मुंबई फिल्म इंडस्ट्री में कोई किसी की मदद नहीं करता। आपको खुद ही कुआं खोदना है और खुद ही उसमें से पानी निकालना है।”
पंकज को बोनी कपूर के फिल्म रन (2004) में एक छोटी-सी भूमिका मिली, लेकिन अगले कई साल तक वे एक स्टूडियो से दूसरे स्टूडियो के चक्कर काटते रहे। वे कास्टिंग एजेंटों से मिलते, ऑडिशन देते, लेकिन उन्हें निराशा ही हाथ लगती। कई वर्षों तक उनके पास कोई काम नहीं था। भाग्यवश, संघर्ष के उन दिनों में उनके पत्नी मृदुला ने नौकरी कर घर की सारी जिम्मेदारी संभाली। अंततः अनुराग कश्यप की गैंग्स ऑफ वासेपुर (2012) के लिए उन्हें आठ घंटे के ऑडिशन के बाद चुन लिया गया। फिल्म के प्रदर्शन के बाद उनके किरदार को दर्शकों और समीक्षकों ने सराहा। मनोज बाजपेयी और नवाजुद्दीन सिद्दीकी जैसे कलाकारों के फिल्म में रहते ऐसा होना पंकज के लिए बड़ी उपलब्धि थी। हालांकि वह फिल्म उनके गांववालों तक नहीं पहुंची। “उन दिनों मेरे गांव में लोगों को लगता था मैं फिल्म इंडस्ट्री में अभिनय नहीं, कुछ और करने गया हूं। वे सोचते थे की शायद मैं कॉस्टयूम या सेट डिजाइन वाले डिपार्टमेंट में कुछ कर रहा होऊंगा, या फिर कहीं कोने में झाल-ढोलक बजा रहा होऊंगा।”
दुर्भाग्यवश, पंकज नेटवर्किंग की कला न जानने के कारण गैंग्स ऑफ वासेपुर की सफलता को भुना नहीं पाए और इंडस्ट्री में पैर जमाने में कुछ और वर्ष गुजर गए। मसान (2015), निल बटे सन्नाटा (2016) और बरेली की बर्फी (2017) से अच्छे अभिनेता की पहचान मिली, लेकिन बेलसंड में उनकी पूछ तब हुई, जब उन्हें न्यूटन (2017) के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार मिला और स्थानीय अखबारों के कुछ पत्रकार उनके गांव पहुंच गए। उसके बाद उनके करियर की गाड़ी फर्राटे से निकल पड़ी। तबसे उन्होंने न सिर्फ कई बेहतरीन फिल्में, बल्कि कई हिट वेब सीरीज में भी काम किया, जिसमें सबसे चर्चित उनका मिर्जापुर में कालीन भइया का किरदार रहा। आज पंकज ने तकरीबन सभी बड़े कलाकरों के साथ काम कर लिया है। वे कहते हैं, “बच्चन साहब के साथ कौन बनेगा करोड़पति में भी आ गया।’’ इस गेम शो के सेट पर अमिताभ बच्चन ने पंकज से कहा कि वे परदे पर इतना सहज अपने जीवन के अनुभवों के कारण दिखते हैं। पंकज उनसे इत्तेफाक रखते हैं। वे कहते हैं, “मुझे लगता है कि आप जीवन में जितना अनुभव प्राप्त करते हैं, उतना ही वह आपके क्राफ्ट में दिखता है, चाहे आप कवि हों, चित्रकार हों, गायक हों या अभिनेता। आप जो देखते और अनुभव करते हैं, वही आपके अंदर से निकलता है। मेरे कई किरदारों में मेरे गांव के लोगों की झलक मिलती है। मेरे गांव में एक रघुनाथ बाबा जबरदस्त किस्सागो थे, जिनकी झलक मेरे स्त्री (2018) के किरदार में दिखी। मैं उनके जैसे लोगों को गौर से देखा करता था।”
पंकज के लिए सिर्फ रघुनाथ बाबा जैसी ग्रामीण ही शिक्षक न थे, उन्होंने बहुत कुछ प्रकृति से भी सीखा। वे कहते हैं, “मानसून के दिनों में मेरी घर के पीछे बहने वाली नदी को मैं खिड़की से घंटों देखता रहता था। बारिश रुकने के बाद भी हमारे खपरैल मकान की छत से पानी बहुत देर तक टप-टप कर चूता रहता था। उसमें एक खास तरह का संगीत होता था जो मैं सुनता रहता था। मुझे उस समय नहीं पता था वह भी मेरे जीवन में एक रिद्म (लय) बना रहा है। बाद में यह भी मेरे अभिनय में काम आया।”
पंकज के अनुसार, जिंदगी की छोटी-मोटी असफलताएं कभी-कभी बड़ी सफलताओं के लिए आपको तैयार करती हैं। वे कहते हैं, “अगर धूप में खड़े होना आपकी नियति में है, तो यह सोचिये कि आपको सनबर्न नहीं, अधिक विटामिन डी मिल रहा है। आप कंटेंट तो नहीं बदल सकते, लेकिन कॉन्टेक्स्ट जरूर बदल सकते हैं। संघर्ष हर फील्ड में अपने तरह का होता है। यहां आसान कुछ भी नहीं, चाहे सिविल सर्विसेज के परीक्षा पास करनी हो या अपर डिवीजन क्लर्क की। तमाम मुश्किलों के बावजूद मैं तो मुंबई बहुत ज्यादा तैयारी करके गया था, उस खिलाड़ी की तरह, जो कई वर्ष तक रोज प्रैक्टिस करता है ताकि जिस दिन उसको मौका मिले, वह अच्छा प्रदर्शन करे।”
पंकज कहते हैं कि सिनेमा आसान नहीं हैं लेकिन अगर आप ईमानदारी से एकाग्रचित्त होकर, स्वयं का आकलन कर अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए प्रयास करेंगे तो सफलता अवश्य मिलेगी। “मैं खुद इसका उदाहरण हूं कि आप बिना मार्केटिंग की तिकड़म के भी अभिनेता बन सकते हैं। मैं फिल्मी पार्टियों में आम तौर पर नहीं जाता। जब जाना चाहता था तो लोग बुलाते नहीं थे और अब बुलाते हैं तो मुझे उसकी जरूरत नहीं।”
हालांकि पंकज न तो अपने स्टारडम को गंभीरता से लेते हैं और न ही खुद को स्टार समझते हैं। वे मानते हैं कि जीवन में कुछ भी स्थायी नहीं है। उन्हें संघर्ष के दिनों में कई कटु अनुभव हुए लेकिन बाद में उन्होंने कई ऐसे लोगों के साथ काम किया जिन्हें कभी उनसे मिलना गवारा न था। “मैं जब समुद्र के किनारे जाता हूं तो देखता हूं कि लोग जो भी कचरा उसमें फेंकते हैं, वह वापस तट पर छोड़ देता है, स्वीकार ही नहीं करता। मैंने जीवन में इससे बहुत कुछ सीखा है।”
पंकज को यह सालता है कि बिहार के बाकी गांवों की तरह बेलसंड से भी रोजगार और करियर के लिए बड़े पैमाने पर पलायन हुआ है। “आधे घरों में या तो ताला लटका है या बुजुर्ग दंपती अकेले रह रहे हैं, जिनके बच्चे पंजाब या किसी अन्य प्रदेश में काम कर रहे हैं।” वे कहते हैं, “गांव में अब छठ पर्व के अवसर पर नाटक नहीं होते। नई पीढ़ी को डांस पसंद है।”
शायद बेलसंड की नई पीढ़ी के युवाओं को पता नहीं कि उनके गांव में नाटकों की पुरानी परंपरा से ही पंकज त्रिपाठी जैसे बहुमुखी प्रतिभा वाले कलाकार का जन्म हुआ है। स्टार भले ही वे मुंबई में बने, एक्टर तो वर्षों पूर्व वे बेलसंड में ही बन चुके थे। यही सबक नई पीढ़ी को याद रखने की दरकार है।