‘बदला सब, बदला बिलकुल’
करीब एक सदी पहले आयरिश कवि डब्ल्यू.बी. यीट्स ने 1916 के ईस्टर विद्रोह की हिंसा, रक्तपात और कई युवाओं की मौत को इन बेमिसाल पंक्तियों में अभिव्यक्त किया, “बदला सब, बदला बिलकुल, भयावह छवि आई सामने।” उसके 70 साल बाद, मैंने 1986 में अपनी किताब आफ्टर एमनेशिया (विस्मृति के बाद) के पहले संस्करण के लिए नोट दर्ज करना शुरू किया। यह किताब 1992 में छपी।
1986 से 1992 के दौरान देश और दुनिया में बाकी जगहों पर भी चीजें तेजी से बदल रही थीं। जब मैंने पहले मसौदे के लिए अपने नोट्स को गूंथना शुरू किया, तो हमारे पास अपना टेलीविजन नहीं था। स्कूल में पढ़ रही हमारी बेटी रामायण या शायद महाभारत की हर हफ्ते आने वाली कड़ियां देखने पड़ोसी के घर जाया करती थी। हमारे पास अपना टीवी सेट न था, और न ही लैंड-लाइन टेलीफोन। अमूमन लोग लोकल कॉल के लिए दफ्तरों में लगे फोन का इस्तेमाल किया करते थे। बाहर कॉल करने के लिए तो डाकघर में कॉल बुक करनी पड़ती थी और एक-दो या कई घंटे इंतजार करना पड़ता था। बंबई (अब मुंबई) और दिल्ली जैसे शहरों को छोड़कर बाकी जगहों पर अपना टेलीफोन कनेक्शन लेना बड़ा ही मुश्किल था और उसके लिए दो से पांच साल तक भी इंतजार करना पड़ता था। 1992 में, देश के लगभग सभी छोटे-बड़े शहर के हर मध्यम वर्गीय और कई निम्न मध्यम वर्गीय परिवारों में अपने टीवी आ गए। श्वेत-स्याम ही नहीं, रंगीन टीवी भी। टीवी के, टीवी में और बड़े-बड़े होर्डिंग्स के विज्ञापन बेहद उत्तेजक और रंगीन होने लगे थे। ये विज्ञापन पत्रिकाओं में भी छपने लगे थे, जो अब रंगीन होने लगी थीं। मध्यम वर्गीय घरों में रेफ्रिजरेटर और एयर-कंडीशनर भी पहुंचने लगे थे। इसके अलावा, यह भी देखा गया कि अधिकांश परिवार शहरी इलाकों में घर बनाने या खरीदने लगे।
लेकिन, जिस तेज बदलाव के दौर को मैं याद कर रहा हूं, उससे यह गलतफहमी नहीं होनी चाहिए कि अचानक समृद्धि या राष्ट्रीय संपदा में कोई भारी वृद्धि हो गई थी। शायद इसका उलटा ही ज्यादा सही हो सकता है। गांवों से शहरों की ओर पलायन में अप्रत्याशित तेजी आ गई और खेती लगातार घाटे का पेशा बनती चली गई। ऐसे में शहरी इलाकों में उपभोक्ताओं की महत्वाकांक्षा अचानक बढ़ने लगी। मकान और विलासिता के सामान की बिक्री में भ्रामक वृद्धि के बावजूद केंद्र सरकार पर व्यापार, उद्योग और धंधों से राज्य के सुरक्षात्मक अंकुश को खत्म करने का जबरदस्त दबाव लगातार बढ़ रहा था। विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की शर्तों पर अपनी अर्थव्यवस्था को पूरी दुनिया के लिए खोलने पर पहले ही राजी हो चुके भारत ने 1991 में 'उदारीकरण' का फैसला किया।
उधर, यूरोप में संकीर्ण राष्ट्रवाद तेजी से ‘यूरोप के बुनियादी विचार’ के रूप में अपनी जगह बना रहा था, जिसमें सभी यूरोपीय देश बाजार और उद्योग-धंधों की एकरंगी दुनिया में आसानी से अपनी जगह बना सकते थे। समता, सुरक्षा और न्याय जैसे शब्द थोड़े घिसे-पिटे माने जाने लगे और उनकी जगह टिकाऊपन, पारदर्शिता और नवोन्मेष जैसे नए शब्द आम बोलचाल में शामिल होने लगे। ‘अच्छे’ विचारों के बारे में बात करने का यह नया ढंग, सरकार की ‘विनिवेश’ क्षमता के संदर्भ में समाज की आर्थिक भलाई को आंकने का यह नया तौर-तरीका, अब तक ‘आवारा’ अंतरराष्ट्रीय पूंजी का गुपचुप विस्तार और उस पर कॉरपोरेट का संपूर्ण नियंत्रण, ये सभी नए युग के सूत्रपात के अहम निशान थे।
एक मायने में, मैंने 1980 के दशक में एमनेशिया पर जो लेख लिखा, जब वह 1992 में छपा, तो वह पुराना पड़ चुका था, क्योंकि तब तक एक बिलकुल नई दुनिया आकार ले चुकी थी। मैंने अपने लेख में तर्क दिया था कि स्मृति, किसी समाज की गैर-व्यक्तिनिष्ठ और सामूहिक स्मृति है और कुछ खास ऐतिहासिक चरणों में भले वह खो जाए मगर वह अपने ‘वास्तविक’ रूप में कायम रहती है। जब तक यह लेख छपकर आया, इन दोनों विचारों को न सिर्फ दर्शन की दुनिया में, बल्कि आम बोलचाल और प्रचलन में गंभीर चुनौती मिल चुकी थी। आम तौर पर इसका श्रेय या दोष टेक्नोलॉजी में बदलाव के भूमंडलीकृत अर्थव्यवस्था पर डाल देने का प्रचलन है। यहां दुनिया भर में हुए कुछ और बड़े बदलावों की चर्चा लाजिमी है। इन बदलावों में शामिल हैं, लाइट एमिटिंग डायोड का आविष्कार, एंटी-मैटर की अवधारणा और नए साइबर स्पेस का जन्म। इनसे सोच-समझ का पूरा ढंग ही बदल गया और एक ऐसे व्यक्तिकेंद्रित विचार का उदय हुआ, जिसे 'बिंदास व्यक्तिवाद' कहा जा सकता है। इन बदलावों ने आदमी के जीवन और सोच पर गहरा प्रभाव डाला। इसके महत्व को नजरअंदाज करना नासमझी होगी।
उत्तर-स्मृति व्यक्तिकेंद्रीयता
अमेरिकी आलोचक एम.एच. एब्राहम्स की द मिरर एंड द लैंप नाम की एक ज्ञानवर्धक किताब है। सरल शब्दों में इसका सिद्धांत यह है कि क्लासिकल साहित्य काफी हद तक आईने की तरह है, जबकि रोमांटिक साहित्य ने दीए की तरह ‘आंतरिक प्रकाश’ पैदा किया। मैं जिन वर्षों में अपनी किताब लिख रहा था, उन्हीं दिनों मुझसे चार साल छोटा एक जापानी इंजीनियर बिजली को प्रकाश में बदलने की एक नई तकनीक पर काम कर रहा था। शूजी नाकामुरा के नए बिजली बल्ब का पहला संस्करण 1992 में आया और इसे एलईडी (लाइट एमिटिंग डायोड) कहा जाता है। नाकामुरा और उनके दो सहयोगियों को 2014 में भौतिकी का नोबेल पुरस्कार मिला। एलईडी लैंप में उसके पहले आए फ्रैंक डेवी के फ्लोरोसेंट लैंप से बहुत कम ऊर्जा की खपत होती है। ऊर्जा बचत के लिहाज से एलईडी पूरी दुनिया में बेहद उपयोगी साबित हुई।
ऊर्जा बचत का रुझान सिर्फ गहराते पेट्रोलियम संकट का नतीजा नहीं था। यह उतना ही विकास की उस अवधारणा से जुड़ा था जिसके मुताबिक ‘ऊर्जा’ सबको समान रूप से उपलब्ध होनी चाहिए। यह विचार 1960 के दशक में आया और 1980 के अंत तक सभी अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों ने इसे पूरी तरह से स्वीकार किया। तब तक, गणितीय गणनाओं से उस ऊर्जा की मात्रा का आकलन करना संभव हो गया, जो आदमी की खपत के लिए उपलब्ध हो जाएगी, बशर्ते पृथ्वी तक पहुंचने वाली सभी प्रकाश किरणों को किसी संभावित शेल में संजोना संभव हो जाए। फ्रीमैन डायसन का 1960 में साइंस पत्रिका में “साइंस फॉर आर्टिफिशियल स्टेलर सोर्सेज ऑफ इन्फ्रा-रेड रेडिएशन” नाम से एक शोधपत्र छपा, जिसमें पहली बार ऐसी ऊर्जा संजोने वाले शेल की औपचारिक अवधारणा का जिक्र था।
डायसन के शोध से आदमी के इस्तेमाल के लिए ऊर्जा की मात्रा कई खरब गुना बढ़ जाने की उम्मीद बनी। डोना हारावे ने कहा कि “आदमी और तकनीक के गहराते जाते अंतर-संबंध को व्यक्तिनिष्ठता पर नए सिरे से मगर नैतिक ढंग से विचार करने का मौका मानना चाहिए।” हारावे कहते हैं, “बीसवीं सदी के अंत में, हमारा वक्त, पौराणिक समय की तरह है। हम सभी चिमेरा या जलपरी की तरह वर्णसंकर हैं, जीवन और मशीन के वर्णसंकर। संक्षेप में हम साइबोर्ग (साइबर और मनुष्य का मिश्रण) हैं। साइबोर्ग ही हमारी पहचान है; इसी से हमारी राजनीति जन्म लेती है।”
पैन कार्ड और यूआइडी या आधर कार्ड के साथ भारत के लोग पहले ही डिजिटल पहचान के दौर में पहुंच गए हैं। हालांकि, भारत में समुदायों की नए सिरे से व्याख्या के लिए मंडल आयोग कोई बहुत पुरानी घटना नहीं है, लेकिन यह भी सच है कि आज व्यक्तियों की पहचान जितना भौतिक संदर्भ में है, उतनी ही संख्या और डिजिटल अंकों के रूप में। डिजिटल और भौतिक अस्तित्व के बीच अंतर्संबंध ने भारत को पोस्टट्रुथ युग की दहलीज पर ला खड़ा किया है। भारतीय समाज में प्रतीकों के महत्व को निर्धारित करने में नई चुनौतियां उत्पन्न हुई हैं। बॉड्रिलार्ड ने ऐसे ऐतिहासिक पलों का वर्णन करने के लिए ‘पलायन वेग’ का विचार दिया है। यह ऐसा वेग है, जिसमें ग्रह के गुरुत्वाकर्षण से बचने के लिए शरीर की आवश्यकता है। “आधुनिकता, तकनीक, घटनाओं और मीडिया की तेज रफ्तार, सभी आर्थिक, राजनैतिक और यौन संदर्भों ने हमें ‘पलायन वेग’ की ओर धकेला है, जिसके परिणामस्वरूप हम वर्तमान और इतिहास के संदर्भ क्षेत्र से मुक्त हो गए हैं। (बॉड्रिलार्ड, 1994. 1)”
ऐसे बुनियादी बदलाव के लिए 25 वर्ष लंबा समय नहीं है। फिर भी भारतीय समाज और इस तरह देश की छवि और विचार में बदलावों से संकेत मिलता है कि हमारी आंखों के सामने ही अप्रत्याशित तरह के बदलाव हो रहे हैं। ऐसा लगता है कि भारत भविष्य की एक ऐसी यात्रा पर निकल चुका है, जिसकी अतीत में कोई मिसाल नहीं है।
विदेशी साबुन का बिंब
इस बदलाव की, कम से कम सतह पर, बानगी का बेहतर इजहार मेरी नजर में मशहूर चित्रकार भूपेन खक्खर के गुजराती कथानक में होता है। कहानी नहाने के साबुन की है, जिसे कोई अचानक एक निम्न मध्यम वर्गीय बस्ती में लाता है। इस नई-नवेली चीज के प्रति फौरन लोग लालायित हो उठते हैं। पहले उससे नायक नहाता है, फिर उसका पड़ोसी, फिर उसकी पत्नी-बेटा और बेटे का कुत्ता भी। आखिर में साबुन घिसकर खत्म हो जाता है। खक्खर अपनी तीक्ष्ण नजरों से समाज की उस कमजोरी की ओर इशारा करते हैं कि कैसे वह उपभोक्ता-नेटवर्क में बदलता जा रहा है।
कहानी का समय नव-उदारवादी आर्थिक नीतियों से मेल खाता है, जिसने तब तक भारत को जातीय-पहचान की राजनीति के रूप में बदलना शुरू कर दिया था। उपभोग के व्यापक सामान की उपलब्धता ने व्यक्तियों को उपभोक्ता में बदलना शुरू कर दिया और विलासिता के सामान वैसी ही वासना और उत्सुकता जगाने लगे, जैसा पहले सेक्स और आध्यात्मिकता को लेकर हुआ करता था। लॉरेंस बिरकेन का अमेरिकी समाज के बारे में कहा, अब भारतीय समाज का भी सच होने लगा, “जैसे आर्थिक रुझान वाला आदमी अपनी आजादी बाजार के नियम-कायदों में तलाशता है, उसी तरह हर पुरुष और महिला मानसिक सुख और आजादी की तलाश सेक्स बाजार के नियम-कायदों में करते हैं।”
1980 के दशक में भारत को अभावों से जूझना पड़ता था। उस दौर में यही सुनाई पड़ता था कि कोई पूरी उम्र काम करने के बाद करिअर के अंत में परिवार के लिए छोटा-सा घर बनाने के बारे में सोचता था। लेकिन 1990 के दशक में पहली नौकरी पाने वाले नौजवान भी बैंक या अन्य स्रोतों से कर्ज उठाकर समान मासिक किस्त (ईएमआइ) पर घर खरीदने लगे। मतलब यह कि 1980 के दशक तक वर्तमान- अतीत में अर्जित लाभ-हानि का कुल योग हुआ करता था। लेकिन 1990 के दशक में वर्तमान-भविष्य की संभावनाओं का कुल योग बन गया। भाषा रूपी विदेशी साबुन की टिकिया भी जुबान को ललचाने लगी और दिमाग सब भुला देने के किनारे पहुंच गया।
बोली, बुद्धि और नेटवर्क
आफ्टर एमनेशिया की पांडुलिपि इतालवी पोर्टेबल टाइपराइटर पर टाइप की गई थी। लेकिन, 1980 के दशक के अंत तक भारत में कई तरह के इलेक्ट्रॉनिक टाइपराइटर दिखाई देने लगे। 1990 के दशक की शुरुआत से ही टाइपराइटरों की जगह कंप्यूटर लेने लगे। 21वीं सदी में तो कंप्यूटर आम हो गए। फिर, 2005 तक हर कॉलेज जाने वाले लड़के या लड़की को लैपटॉप के साथ देखा जा सकता था। इसी तरह समाज के हर वर्ग के लोगों के हाथ में मोबाइल आ गए। शुरुआत में मोबाइल का आकार छोटा था, लेकिन 2015 तक बड़े आकार के मोबाइल आ गए, फिर लैपटॉप की जगह उनका इस्तेमाल किया जाने लगा। अब कोई भी कंप्यूटर ऐप, डिजिटल कैमरा, इलेक्ट्रो-मैग्नेटिक तरंगों के स्पेक्ट्रम- 2जी, 3जी, 4जी वगैरह-की चर्चा से अलग नहीं है और उसकी एक अंगुली पर आर्टिफिशियल मेमोरी की लाखों या करोड़ों 'बाइट्स' होती हैं।
1980 के दशक तक आदमी अपनी स्वाभाविक बुद्धि और स्मृति से जो कुछ कर सकता था, वह सबकुछ अब आर्टिफिशियल मेमोरी (कृत्रिम स्मृति) के हवाले किया जा चुका है। इस तरह सामूहिक तौर पर स्मृति को इतने बड़े पैमाने पर आउटसोर्स किया जा रहा है कि आज वर्ष 2000 से पहले की तरह स्मृति का समाजशास्त्र लिखना संभव नहीं रह गया है। स्वाभाविक स्मृति के संदर्भ में देखें, तो एमनेशिया एक 'भूलने की बीमारी' थी। 'एमनेसिस' (याददाश्त वापस पाना) चमत्कार जैसा होता था। तकनीक से नियंत्रित और प्रोसेस्ड मेमोरी को ‘ठीक’ किया जा सकता है, उसे बढ़ाया, नवीनीकृत, दबाया, एंक्रिप्ट, स्थानांतरित और अलग किया जा सकता है। मनुष्यों की आउटसोर्स मेमोरी काफी हद तक गैर-लौकिक है और उसका मौजूदा समय से सीधा संबंध है। यह इस कदर है, मानो इतिहास, या कहें इतिहास का विचार ही मर-सा गया है।
लौकिक बुद्धि के ठहराव के इस मोड़ पर लगता है मानव बुद्धि आगे बढ़ने के बदले मनुष्य-मशीन-मस्तिष्क की नई संस्कृति या हारावे के शब्दों में 'साइबोर्ग' के किनारे चलने लगी है। भौतिक ब्रह्मांड का अस्तित्व तो बना हुआ है, लेकिन आदमी के बोलचाल के संदर्भ आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के शब्द ज्ञान और शैलियों के अनुसार ढलने लगे हैं, उसकी भाषा ‘बाइट्स’ और ‘स्पेक्ट्रम्स’ के व्याकरण के करीब जा रही है। और, समाज किसी समुदाय के बजाय एक नेटवर्क के रूप में संगठित होने लगा है।
ज्ञान और व्यावहारिक भाषा के क्षेत्र में स्वाभाविक स्मृति का हमेशा से ही विशेष महत्व रहा है, इसलिए स्वाभाविक स्मृति से कृत्रिम या मशीनी स्मृति का यह संक्रमण ‘ज्ञान’ और ‘भाषा’ दाेनों ही क्षेत्रों में गंभीर बदलाव ला रहा है। ‘ज्ञान’ और ‘भाषा’ दोनों का ही 20वीं सदी के अंत तक साहित्यिक समालोचना में अहम स्थान रहा है। इस व्यापक बदलाव से ‘ज्ञान’ और ‘भाषा’ दोनों के संदर्भ में और आदमी के व्यावहारिक और कल्पना की दुनिया में इनके महत्व पर गहरे सवाल खड़े हो गए हैं।
(भाषाविद, विचारक, संस्कृति-कर्मी, पीपुल्स लिंग्वेस्टिक सर्वे ऑफ इंडिया और आदिवासी अकादेमी के संस्थापक। साहित्य अकादेमी पुरस्कार से सम्मानित। कई किताबों के लेखक)
-- डिजिटल और भौतिक अस्तित्व के बीच गहराते अंतर्संबंध ने भारत को पोस्ट-ट्रुथ युग की दहलीज पर ला खड़ा किया है
-- आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस पर निर्भरता इस कदर है, मानो इतिहास, या कहें इतिहास का विचार ही मर-सा गया है