राष्ट्रीय आंदोलन में सरस्वती, प्रताप, हंस, कर्मवीर, माधुरी, मतवाला, चांद, विशाल भारत, स्त्री दर्पण, प्रभा जैसी पत्रिकाओं ने हिंदी साहित्य और भाषा के निर्माण में खास भूमिका निभाई थी और हिंदी पट्टी में प्रगतिशील चेतना फैलाने की कोशिश की थी, लेकिन वैसी कोई कोशिश कल्याण पत्रिका ने नहीं की थी और शायद यही कारण है कि कल्याण को हिंदी साहित्य इतिहास में कभी गंभीरता से नहीं लिया गया। हिंदी के किसी बड़े आलोचक ने उसके समर्थन में कोई लेख नहीं लिखा या उसकी खुलकर तारीफ भी नहीं की। यह अलग बात है कि कल्याण में कविगुरु रवींद्रनाथ ठाकुर, महात्मा गांधी, मदन मोहन मालवीय, एनी बेसेंट, प्रेमचंद, निराला, हजारी प्रसाद द्विवेदी, किशोरी दास बाजपेई, रामनरेश त्रिपाठी जैसे अनेक लेखकों के लेख छपे थे। यह भी सच है कि उसके संपादक हनुमान प्रसाद पोद्दार के उस जमाने में देश के प्रमुख राजनीतिकों से संबंध रहे, लेकिन हिंदी समाज में कभी भी इसे कोई बौद्धिक पत्रिका नहीं माना गया और रामचंद्र शुक्ल, नंददुलारे वाजपेई, हजारी प्रसाद द्विवेदी, रामविलाश शर्मा वगैरह ने इसे कभी नोटिस नहीं लिया।
करीब 10 वर्ष पहले जब अंग्रेजी के पत्रकार अक्षय मुकुल ने गीता प्रेस: हिंदू राष्ट्र का निर्माण पुस्तक लिखी तो गीता प्रेस की ऐतिहासिक भूमिका पर लेखक जगत में काफी चर्चा हुई और इस किताब का भरपूर स्वागत किया गया। अरुंधति राय, रामचंद्र गुहा और शाहिद अमीन जैसे लेखकों और इतिहासकारों ने इस किताब को महत्वपूर्ण बताया। हिंदी के वरिष्ठ पत्रकार-लेखक रामशरण जोशी ने भी इस किताब का स्वागत किया और उससे हिंदुत्ववादियों को एक्सपोज करने में एक आवश्यक शोध ग्रंथ बताया।
पिछले दिनों जब मोदी सरकार ने गीता प्रेस को गांधी शांति पुरस्कार देने की घोषणा की तो हिंदी के बौद्धिक समाज में इसको लेकर काफी तीखी प्रतिक्रिया सामने आई। हिंदी के लेखकों ने यह पुरस्कार देने पर आपत्ति व्यक्त की क्योंकि गांधी की हत्या में जिन 25000 लोगों को गिरफ्तार किया गया था, उसमें इस पत्रिका के संपादक हनुमान प्रसाद पोद्दार भी शामिल थे। अक्षय मुकुल के अनुसार इस पत्रिका में गांधीजी की हत्या के बारे में कोई निंदा नहीं छापी गई थी। ऐसी पत्रिका के प्रकाशक को मोदी सरकार द्वारा सम्मानित किया जाना हैरत की बात है। क्या सरकार यह पुरस्कार देकर हनुमान प्रसाद पोद्दार के कथित ‘हिंदू राष्ट्र’ के निर्माण में किए गए प्रयासों को समर्थन नहीं दे रही और गांधी के विरोधियों को सम्मानित नहीं कर रही?
फेसबुक पर हिंदी के कवि कृष्ण कल्पित ने जब गीता प्रेस के समर्थन में एक पोस्ट लिखी, तो यह मामला विवादास्पद हो गया। उनका कहना था कि अगर गीता प्रेस नहीं होती और कल्याण जैसी पत्रिका नहीं होती तो वे हिंदी के कवि नहीं बनते, बल्कि चरवाहा होते। इतना ही नहीं, हिंदी के प्रख्यात कवि आलोक धन्वा ने भी गीता प्रेस की पुस्तकों के सस्ते होने को लेकर उसकी प्रशंसा की, जिससे विवाद को बल मिला। कृष्ण कल्पित ने अपनी बात के समर्थन में दावा किया कि हिंदी के लेखक ज्ञानरंजन ने भी कल्याण और गीता प्रेस का समर्थन किया है। ज्ञानरंजन को इसका खंडन करना पड़ा। बाद में कृष्ण कल्पित ने ज्ञानरंजन के बारे में अपनी पोस्ट हटा ली। ज्ञानरंजन का कहना है कि उनके गांधीवादी लेखक पिता रामनाथ सुमन का हनुमान प्रसाद पोद्दार से गहरा संबंध था और उन्होंने गांधी जी के बारे में अनेक लेख कल्याण में लिखे थेः ‘‘मेरे पिता ने अपनी पूरी लाइब्रेरी पोद्दार को सौंप दी थी।’’ उनका कहना है कि वे गीता प्रेस और कल्याण का समर्थन नहीं करते। उन्होंने यह सवाल जरूर खड़ा किया कि आखिर हिंदू राष्ट्र के निर्माण में केवल गीता प्रेस को ही क्यों दोषी ठहराया जा रहा है? इतिहासकार हितेंद्र पटेल का कहना था कि हनुमान प्रसाद पोद्दार ने राष्ट्र निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी इसलिए इस मुद्दे पर सरलीकृत ढंग से नहीं सोच सकते। कुछ लोगों का कहना है कि सरकार को चाहिए था कि वह गीता प्रेस के बजाय नवल किशोर प्रेस को सम्मानित करती क्योंकि उन्नीसवीं सदी में एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के निर्माण में उसकी बड़ी भूमिका थी। वह गीता प्रेस से पुरानी भी है और उसने उर्दू फारसी समेत कई भाषाओं में 5000 से अधिक किताबें छापीं, यहां तक कि गालिब की भी। नवल किशोर प्रेस की तरह इंडियन प्रेस, खड्गविलास प्रेस ने भी भारतीय समाज और राष्ट्र के निर्माण में बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी लेकिन उनके बारे में इतिहासकार भी नहीं लिखते। सरकार को पुरस्कार देना ही था तो खुद उसकी संस्था राष्ट्रीय पुस्तक न्यास का बड़ा योगदान है। क्या मोदी सरकार ने हिंदू मतदाता को अपने प्रभाव में लाने के लिए और 2024 के चुनाव में करोड़ों हिंदू जनता के वोट को खींचने के लिए गीता प्रेस को सम्मानित किया?
गीता प्रेस अब तक सात करोड़ से अधिक रामायण, महाभारत की पुस्तकें छाप चुकी है। कल्याण पत्रिका की तो मासिक प्रसार संख्या दो लाख तक थी। इस तरह गीता प्रेस और कल्याण पत्रिका ने उत्तर भारत में लोगों में हिंदू मानसिकता का निर्माण करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। अक्षय मुकुल का तो यह भी कहना है कि 1949 में अयोध्या मंदिर में रामलला को स्थापित करने में हनुमान प्रसाद पोद्दार का भी हाथ है लेकिन कपिला वात्स्यायन जैसी विदुषी भी गीता प्रेस और हनुमान प्रसाद पोद्दार की भूमिका को महत्वपूर्ण मानती थीं। आज कांग्रेस के संचार प्रमुख जयराम रमेश गीता प्रेस को गांधी पुरस्कार देने की आलोचना करते हैं, तो यह सवाल भी उठता है कि कांग्रेस सरकार ने पोद्दार को भारत रत्न देने की पेशकश क्यों की थी? पोद्दार ने नामंजूर कर दिया था।
यह सही है कि पंडित जवाहरलाल नेहरू को छोड़ दिया जाए तो देश का कोई ऐसा प्रमुख नेता नहीं है जो पोद्दार से न जुड़ा रहा हो। केवल नेहरू ने कल्याण में कभी नहीं लिखा लेकिन एक बार नेहरू जी गोरखपुर में गीता प्रेस के दफ्तर गए थे और पोद्दार ने उन्हें किताबें भेंट की थीं।
बहरहाल, इस पूरे विवाद से यह फायदा हुआ कि नई पीढ़ी कल्याण के स्त्री विरोधी विचारों से परिचित हुई। कल्याण के 1948 में छपे नारी अंक में स्त्रियों के खिलाफ इतनी तीखी बातें लिखी गईं जिसके बारे बहुतों को पता नहीं था। आज से करीब 30 वर्ष पूर्व दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर भगवती प्रसाद शर्मा ने कृति संधान पत्रिका में कल्याण के नारी अंक की तीखी आलोचना की थी और बताया था कि किस तरह गीता प्रेस और कल्याण समाज में स्त्रियों के खिलाफ विद्वेष फैलाने और उनकी छवि को प्रतिगामी बताने में लगे हुए हैं।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार निजी हैं)