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दोराहे पर खड़ी बसपा

बदलते राजनैतिक परिदृश्य में पहले वाली मायावती कहीं नहीं दिखतीं, केंद्र सरकार की नीतियों पर भी उनका विरोध सतही
मुश्किल दौरः सोशल इंजीनियरिंग का कमाल दिखाने वाली मायावती से कहां चूक हुई

बात ज्यादा पुरानी नहीं है। मध्य जनवरी की गुनगुनी धूप और सर्द हवाओं की ठिठुरन के बावजूद समाजवादी पार्टी के लखनऊ मुख्यालय में जबरदस्त सियासी गरमी दिख रही थी। किसी रैली जैसे माहौल में उत्साही कार्यकर्ताओं की भीड़ के बीच मंच से समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव ने बसपा के दिग्गज नेता और पूर्व मंत्री राम प्रसाद चौधरी के साथ कई पूर्व विधायकों और विधायकी का चुनाव लड़ चुके नेताओं को अपनी पार्टी में शामिल करने का ऐलान किया। इनमें से कुछ नाम निश्चित रूप से उल्लेखनीय हैं, जैसे पूर्व विधायक दूधनाथ, जितेंद्र कुमार, उमेश पांडे, अनिल कुमार और बसपा के प्रत्याशी रहे कबीर चौधरी। आम तौर पर ऐसे ‘पालाबदल’ कार्यक्रम चुनावों से पहले ही होते हैं। बसपा के पूर्व विधायकों से लेकर पूर्व जिला पंचायत अध्यक्ष, ब्लॉक प्रमुखों के आने से गदगद सपा कार्यकर्ताओं का जोश उफान पर दिखा।

बसपा में इस सेंध को सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव की एक रणनीतिक जीत और महागठबंधन से एकतरफा नाता तोड़ने के मायावती के फैसले के खिलाफ एक संदेश के तौर पर देखा गया। लेकिन बसपा में रहे नेताओं और कार्यकर्ताओं की बेचैनी को समझने के लिहाज से यह सियासी नतीजा निकालना बड़ी भूल होगी। दरअसल, इससे एक दिन पहले ही बसपा के कुछ नेताओं ने कांग्रेस की तरफ भी रुख किया था। बलिया जिले के बसपा मंडल प्रभारी मनोज कुमार की अगुआई में सैकड़ों लोगों ने कांग्रेस की सदस्यता ले ली। मनोज बसपा के मध्य प्रदेश प्रभारी भी रहे हैं। कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष अजय कुमार लल्लू का कहना है कि बसपा में दलित कार्यकर्ता उपेक्षित महसूस कर रहे हैं।

दोराहे पर खड़ी आज की बसपा के इस भटकाव को समझने के लिए अतीत में झांकने की जरूरत है। राजनीतिक विश्लेषक तथा वरिष्ठ पत्रकार डॉ. उत्कर्ष सिन्हा कहते हैं, “यूपी की राजनीति करवट ले रही है। बसपा काडर आधारित पार्टी मानी जाती है लेकिन सवाल उठ रहे हैं कि क्या नेतृत्व अब काडर की आवाज सुन रहा है। फैसलों से पहले पार्टी के भीतर ‘कोई समूह’ आंतरिक विमर्श को तवज्जो देता है। पार्टी में कितना लोकतंत्र है और उसके फैसले में कार्यकर्ताओं की कितनी सहमति है, इसका जवाब पार्टी से बाहर नहीं मिलता है।”

डॉ. उत्कर्ष कहते हैं, “मायावती ने उत्तर प्रदेश की सियासत में नए सामाजिक समीकरण गढ़कर अपनी ताकत बढ़ाई लेकिन बदलते समाज और अपने कार्यकर्ताओं की नब्ज पर उनका हाथ नहीं टिक पाया। उन्होंने दलित पहचान को स्थापित किया। उस समाज के ‘आइकन’ को नई पहचान दी। दलित समाज के अज्ञात रहे महापुरुषों के नाम पर पार्क और स्मारक बनाकर उस समाज के साथ अपना खास तरह का रिश्ता कायम किया। उनके दिलों में जगह बनाई। लेकिन उसी समाज की नई पीढ़ी की महात्वाकांक्षा को पहचानने में वह चूक गईं।” मायावती की इस कमी को पूरा करने की ओर बढ़ रहे हैं चंद्रशेखर आजाद। वह दलित समाज की नई पीढ़ी के लिए शिक्षा और सम्मान की आवाज उठाने के साथ ग्रामीण क्षेत्रों में दलित समाज के उत्पीड़न पर प्रतिक्रिया देते हैं। मायावती ने दलित समाज के राजनैतिक सशक्तिकरण की बात तो की लेकिन वह आमतौर पर दलित उत्पीड़न की घटनाओं पर उस तरह से प्रतिक्रिया देने की जरूरत नहीं समझतीं।

इसके अलावा उन्होंने दलित-ब्राह्मण-मुस्लिम कंबिनेशन बनाते हुए इन समाजों की सत्ता में हिस्सेदारी को लेकर सही सामंजस्य नहीं बिठाया। कांशीराम के समय से बसपा के साथ रहे आर.के. चौधरी, सोनेलाल पटेल और दद्दू प्रसाद जैसे जमीनी नेताओं ने इसीलिए मायावती से किनारा कर लिया। कांशीराम का नारा हुआ करता था, “जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी।” मायावती ने कांशीराम का यह मंत्र छोड़ दिया। वे नए सामाजिक समीकरण की ओर बढ़ गईं और पार्टी में धन और बल को ज्यादा ही अहमियत मिलने लगी। इन्हीं सब वजहों से वह दलित समाज से दूर होती जा रही हैं।

बदलती सियासत पर कमजोर पकड़

दरअसल, देश और प्रदेश की सियासत और सियासी धारा बदल रही है। लोगों के मुद्दे बदल रहे हैं। सियासत के प्रतिमान से लेकर उसके तौर-तरीकों में भी बदलाव आ रहा है। लेकिन सवाल उठ रहे हैं कि मायावती इस बदलती सियासत को समझने में लगातार चूक कर रही हैं या सियासी मजबूरियों से घिर गई हैं? 2019 से पहले अपने पुराने जख्मों को भूलकर सपा की ओर दोस्ती का हाथ बढ़ाना उनकी सियासी मजबूरी थी या समझदारी, यह बात राजनैतिक पंडितों को समझ में आता, इससे पहले ही उन्होंने चुनाव के तत्काल बाद एक और फैसला ले लिया। बिना किसी ठोस वजह के सपा से नाता तोड़ लिया। अपने हर फैसले के पीछे तर्क गढ़ने वाली मायावती ने सपा के साथ नाता तोड़ते हुए जो वजह बताई, वह उनके कार्यकर्ताओं को भी नहीं पच रही। उनका कहना था कि सपा प्रत्याशियों को तो बसपा के वोट ट्रांसफर हुए लेकिन सपा अपने वोट बसपा प्रत्याशियों के पक्ष में ट्रांसफर नहीं करा पाई। मायावती का यह तर्क सियासत की सामान्य जानकारी रखने वालों को भी इसलिए बेतुका लगा, क्योंकि अगर यही सच्चाई थी तो 2019 में सपा के पांच ही उम्मीदवार क्यों जीत पाए और बसपा के 10 उम्मीदवार कैसे जीत गए?

दलित सवालों पर आवाज उठाने वाले लेखक रविकांत कहते हैं, “सोशल इंजीनियरिंग से सत्ता की सीढ़ी चढ़ने वाली मायावती की लोकप्रियता उनके अपने समाज में इसलिए भी कम हुई क्योंकि ‘सर्वजन’ के दबाव में वे कांशीराम के ‘बहुजन समाज’ के कंसेप्ट से दूर होती चली गईं। बसपा से जुड़ा वह समुदाय जो कभी ये समझता था कि इस दल पर उसका अधिक अधिकार है, उसे लगने लगा कि उसका अधिकार प्रभावित होने लगा है। एससी-एसटी एक्ट को लेकर भी उन्होंने जो फैसला लिया वह भी उनके विपरीत चला गया। दलित उत्पीड़न के खिलाफ मजबूत कानून को सुप्रीम कोर्ट के होते हुए केंद्र सरकार ने जिस तरह से पलटा है, उससे बसपा की कमजोरी के रूप में संदेश गया।”

दरअसल, दलित अधिकारों के सवाल पर उनके मुद्दे तक पर बसपा के लचीले रुख ने मायावती के सियासी प्रभाव को कम करने में अहम भूमिका निभाई। दलित समाज के दूसरे मुद्दों पर बसपा का कोई बहुत सख्त रुख सामने नहीं आने से भी बहुजन समाज में उसके प्रति निराशा और उदासी बढ़ रही है। यही वजह है कि बसपा के कोर वोटर ने उनसे दूरी बनाई या कहें कि उनका भरोसा टूटता दिख रहा है।

एक सच्चाई यह भी है कि भाजपा और आरएसएस ने जिस आक्रामकता के साथ सियासत को आगे बढ़ाया या दूसरे दलों के वोट बैंक में सेंध लगाई, बसपा उसे काउंटर नहीं कर पा रही है। भाजपा ने गैर-जाटव वोटरों के बीच पैठ बढ़ाई। उसने गैर-जाटव समाज के बीच यह मुद्दा खड़ा किया कि आरक्षण का लाभ केवल जाटव ले रहे हैं। इसके अलावा हिंदुत्व के उभार के जरिए भी भाजपा ने बसपा के वोटर को जोड़ने की कोशिश की। भाजपा के इस नए सामाजिक समीकरण की काट बसपा नहीं तलाश पा रही है। उल्टे उनसे कुछ ऐतिहासिक गलतियां भी हुईं। भाजपा ने जब रामनाथ कोविंद को राष्ट्रपति उम्मीदवार बनाया तो बसपा की ओर से प्रतिक्रिया आई कि कोरी समाज का कितना वोट है। बसपा में उत्तराधिकारी के सवाल पर मायावती का यह कहना कि कोई जाटव ही पार्टी का अगला नेता होगा, साफ संकेत दे गया कि यह केवल कुछ जाति-विशेष के हितों का संरक्षण करने वाली पार्टी है। बसपा की ये गलतियां ही उसके विरोधियों की ताकत बन गई। इससे बसपा की विश्वसनीयता सवालों के घेरे में है, जिसे  कांशीराम ने बहुत मेहनत, समय और संयम से खड़ा किया है।

पुराने समीकरण पर नहीं कायम

सामाजिक समीकरण को साधकर मुख्यमंत्री की कुर्सी पर चार बार पहुंचीं मायावती सियासत में सोशल इंजीनियरिंग की मास्टर माइंड मानी जाती रहीं। उनसे पहले चौधरी चरण सिंह ने अहीर-जाट-गूजर-राजपूत (अजगर) वोटों का गठजोड़ बनाकर अपनी सियासत को नई धार दी थी। लेकिन मायावती ने कांशीराम के बहुजन समाज की धारा को बदल दिया। पुराने बसपाई और कांशीराम की सियासी धारा के समर्थक पूर्व मंत्री दद्दू प्रसाद कहते हैं, “मायावती ने कांशीराम के नारे को उलट दिया। उन्होंने नारा दिया, “जिसकी जितनी तैयारी.. उसकी उतनी हिस्सेदारी।” इसका सियासी मतलब यह लगाया गया, जिसकी जितनी थैली भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी।” दद्दू कहते हैं, “मुझे इस बात का मलाल है कि मैं इस बदली हुई बसपा में भी देर तक... बहुत देर तक इंतजार करता रहा कि कांशीराम ने जिस मकसद के साथ पार्टी खड़ी की है, उसकी ओर हम सब बढ़ेंगे। शोषण के खिलाफ शोषितों की आवाज बनेंगे।” लेकिन डेमोक्रेसी अब पूरी तरह नोटक्रेसी में बदल चुकी है। मौजूदा तंत्र शोषकों के दुष्चक्र का शिकार हो चुका है। सत्ता पर शोषकों का प्रभाव जब समाप्त होने लगता है, तो वे तरह-तरह के जतन करके उसे दोबारा हासिल करने का प्रयास करते हैं। मायावती को इस्तेमाल कर शोषक वर्ग ने एक बार फिर सत्ता और नीतियों पर उसी तरह नियंत्रण कर लिया।

दद्दू कहते हैं कि कांशीराम ने दलित उत्थान के लिए काम नहीं किया, ऐसा कहने वाले उनकी उपलब्धियों को छोटा कर दिखाना चाहते हैं, जबकि उनकी उपलब्धि है लोकतंत्र का प्रमोशन। लोकतंत्र को ताकतवर बनाने के लिए उन्होंने वोटों की बिकवाली को रोकने के लिए मंत्र दिया। कांशीराम कहते थे, “वोट की बिक्री अपनी बहन और बेटी को बेचने के बराबर है।”

वोटों की बिक्री बंद हो जाती है तो शोषक उसे लूटना शुरू कर देते हैं। बूथ कैप्चरिंग के उस दौर को भी बसपा ने कांशीराम के नेतृत्व में पार किया। 1984 से 1998 के बीच काशीराम ने वोटों की खरीद-बिक्री का दौर समाप्त कर दिया। वोट की रिटेल बिक्री उत्तर भारत में समाप्त हो गई। तब शोषक वर्ग ने अपनी दूसरी रणनीति बनाई और वोट के होलसेल खरीददार के रूप में वे सामने आ गए। मायावती यूपी की चार बार मुख्यमंत्री रहीं। लेकिन भाजपा और संघ के लोग दावा करते हैं कि मायावती को सत्ता के शीर्ष तक पहुंचाने में उनकी भूमिका है। मायावती ने दलित समाज के लिए विलेन की भूमिका निभाई, जिन्होंने शोषक वर्ग को अपने साथ सत्ता में भागीदारी देकर उन्हें अपने हिसाब से कानून बनाने में साथ दिया।

 पाला बदलः बसपा के निराश नेता और कार्यकर्ता सपा में भी खुद को सहज मान रहे

दलित-बाह्मण-मुस्लिम समीकरण भी बिखरा

दलित के नाम पर केवल एक खास जाति उनके साथ दिख रही है, पर अति पिछड़े और मुसलमानों का भरोसा पार्टी पूरी तरह कायम नहीं रख पाई। लोकसभा चुनाव के बाद मुनकाद अली उत्तर प्रदेश में बसपा के अध्यक्ष जरूर बना दिए गए, लेकिन अल्पसंख्यक समाज में बसपा की साख को लेकर सवाल है। राज्य विधानसभा के हुए उप-चुनाव में अल्पसंख्यकों के प्रभाव वाली जलालपुर सीट का बसपा से छिन जाना इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। अलग-अलग समाज को जोड़े रखने के लिए मायावती ने अमरोहा के सांसद दानिश अली को हटाकर आंबेडकरनगर के सांसद रितेश पांडेय को लोकसभा में संसदीय दल का नेता बनाने सरीके बदलाव किए।

पूरे उत्तर भारत में घट रही ताकत

मध्य प्रदेश में उसके एकमात्र विधायक सत्ताधारी पार्टी की जरूरत थे, तो राजस्थान में भी बसपा का दखल था। लेकिन राजस्थान कांग्रेस ने उसके सभी विधायकों को अपनाकर बसपा को खाली हाथ छोड़ दिया है। सियासत की डगर पर मायावती खुद को बहुत सधी हुई धावक भले मानती हों, पर अनेक मामलों में उनके अजब-गजब फैसले पार्टी के लिए मुश्किलें पैदा कर रहे हैं। नागरिक संशोधन कानून (सीएए) के विरोध में वे देश के हालात की तुलना इमरजेंसी से कर रही हैं, वहीं वे अपने कार्यकर्ताओं को सड़कों पर उतरने से रोकते हुए विरोध-पत्र भेजने की अपील करती हैं।

क्या भाजपा के दबाव में हैं मायावती

बसपा के फैसले में ढृढ़ता के लिए कहीं न कहीं उसके ऊपर दबाव की बात भी सियासी गलियारों में चर्चा का विषय है। चुनावी गठबंधन और मोर्चा बनाने पर मायावती के फैसलों को उनके सियासी अनुभव के मुकाबले कमजोर माना गया। चर्चा रही कि केंद्र सरकार में काबिज भाजपा की घुड़कियों ने मायावती को कई फैसलों से रोका। उन्होंने टिकट के बारे में ऐसे फैसले लिए, जिससे कांग्रेस को नुकसान हो और भाजपा को उसका लाभ मिले।

अंदर की खबर रखने वाले सूत्र दावा करते हैं कि केंद्र सरकार ने उनके भाई के खिलाफ जिस तरह की ‘आर्थिक घेरेबंदी’ कर ली है, उसने सुप्रीमो की जुबान सिल दी है। प्रवर्तन निदेशालय, आयकर और सीबीआइ की फाइलों में बसपा का स्वाभाविक रिएक्शन कैद है। सीएए पर मुखर विरोध से मायावती के परहेज के पीछे भी यही वजह बताई जा रही है। जबकि सभी जानते हैं कि अल्पसंख्यक समुदाय के सवाल पर मायावती का रुख पहले क्या रहा है। अपने इसी सियासी संकोच की वजह से बसपा ऐसे दोराहे पर दिख रही है। यूपी में विधानसभा चुनाव अभी दूर हैं लेकिन सपा और कांग्रेस जिस आक्रामक राजनीति में कूदती दिख रही हैं, बसपा वहां नदारद है। ये गंभीर सवाल है। लेकिन मीडिया से अपनी सहूलियत से संवाद करने वाली पार्टी को अपने वोटर को ये जवाब तो देना ही होगा।

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कांशीराम ने बड़े जतन से बसपा के साथ दलित वर्ग को जोड़ा लेकिन बदलते दौर में मायावती उसे अपने साथ जोड़े रख पाने में नाकाम होती जा रही हैं

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रिक्त होते सियासी शून्य को चंद्रशेखर आजाद बखूबी भर रहे हैं। वे दलितों के सम्मान के लिए मजबूत आवाज उठाते हैं

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