विधानसभा चुनावों की घोषणा के बाद देवभूमि उत्तराखंड में सियासी माहौल खासा गर्म है। राज्य की 70 विधानसभा सीटों के लिए 14 फरवरी को मतदान होना है। सत्तारूढ़ भाजपा इस बार वापसी करके मिथक तोड़ने की कोशिश में है, तो मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस में सत्ता पाने की बेचैनी झलक रही है। इस बार के चुनाव में तीसरे खिलाड़ी के रूप में आम आदमी पार्टी भी दमदार तरीके से अपनी मौजूदगी दर्ज करा रही है। इन सबके बीच अहम बात यह है कि इस बार चुनाव से जनता के मुद्दे गायब हैं। मुद्दों पर कोई बात ही नहीं कर रहा है और सभी सियासी दल लुभावने वादों से ही मतदाताओं को रिझाने की कोशिश में हैं।
उत्तराखंड को उत्तर प्रदेश से अलग हुए 21 साल हो गए। राज्य विधानसभा का यह पांचवां चुनाव कोरोना संक्रमण के बढ़ते मामलों के बीच लड़ा जा रहा है। इसलिए ज्यादातर मौकों पर प्रत्याशियों और जनता के बीच मौजूदगी वर्चुअल ही होगी। एक तरह से भाजपा और कांग्रेस के लिए यह सही मौका कहा जा सकता है। जनता के बीच जाकर संवाद की उनके पास कोई खास वजह इसलिए भी नहीं है, क्योंकि अधिकतर इलाकों में जनता के मुद्दे वही हैं जो वर्षों पहले थे। राज्य में बारी-बारी से दो-दो बार सत्ता में रह चुकी भाजपा और कांग्रेस के प्रचार में जनता के वे मुद्दे नहीं हैं, जिनसे वे रोजाना जूझते हैं।
उत्तराखंड में सत्तारूढ़ भाजपा अपने चुनाव प्रचार में डबल इंजन सरकार के विकास कार्यों को सामने ला रही है। प्रचंड बहुमत वाली भाजपा सरकार में पुष्कर सिंह धामी तीसरे मुख्यमंत्री हैं। वे केंद्र सरकार की योजनाओं और कार्यों का जिक्र करना नहीं भूलते। रेल और बिजली परियोजनाओं, राष्ट्रीय राजमार्गों, कोविड वैक्सीनेशन, चारधाम विकास परियोजना, सेवारत एवं पूर्व सैनिकों के कल्याण की केंद्रीय योजनाओं पर ज्यादा फोकस किया जा रहा है। इसके विपरीत उत्तराखंड के खासकर पर्वतीय जिलों के स्थानीय मुद्दों, जो पलायन, रोजगार, पानी, शिक्षा, स्वास्थ्य, सड़क, परिवहन, यातायात, कृषि से जुड़े हैं, पर कोई प्रभावी रोडमैप नहीं दिया जा रहा है। हर वर्ष आपदा से जूझने वाले उत्तराखंड के संवेदनशील गांवों में सुरक्षा प्रबंधन पर बात नहीं हो रही है।
चुनाव आचार संहिता लागू होने से पहले भाजपा ने करोड़ों की योजनाओं के शिलान्यास एवं लोकार्पण किए, कई योजनाएं घोषित की गईं। इसके बाद एक सवाल तेजी से उठता है कि सरकारों को युवाओं और उनके रोजगार की चिंता ठीक चुनाव से पहले क्यों होती है। पिछली सरकारों के कार्यकाल में ठीक चुनाव से पहले जिन कार्यों का शिलान्यास किया गया था उनमें से अधिकतर वर्षों बाद भी शुरू नहीं हो सके। राज्य के पर्वतीय गांवों तक सड़क निर्माण अभी तक अधूरा है। सड़कों का अभाव भी गांवों से पलायन की वजह बना है।
उत्तराखंड में पलायन, कृषि, पानी, स्वास्थ्य, सड़क, शिक्षा, परिवहन से जुड़ा हर मुद्दा प्रत्यक्ष रूप से महिलाओं को प्रभावित करता है। पर्वतीय गांवों में घरों से कई किलोमीटर दूर स्रोतों तक पानी के लिए दौड़ लगाने में सबसे ज्यादा पीड़ा महिलाओं को उठानी पड़ती है, पर राजनीतिक दल महिलाओं के इस मुद्दे पर ज्यादा कुछ नहीं बोल रहे। सत्तारूढ़ भाजपा केंद्र के ‘जल जीवन मिशन’ से हर घर तक नल पहुंचाने का दावा तो कर रही है, पर देहरादून के हल्द्वाड़ी और टिहरी गढ़वाल के खेतू गांवों में लोगों को आज भी दूर से पानी ढोना पड़ रहा है।
जैविक कृषि की संभावनाओं वाले उत्तराखंड में जैविक उत्पादों की मार्केटिंग किसानों के भरोसे ही है। अधिकतर किसानों को अपनी जैविक उपज सामान्य फसलों के साथ ही बेचनी पड़ रही है, जबकि उनको सामान्य से अधिक दाम मिलना चाहिए। कृषि में महिलाओं का योगदान अधिक है, पर महिलाओं को उपज का वर्तमान बाजार भाव बताने वाला कोई तंत्र राज्य में अभी तक स्थापित नहीं हो सका है।
अवाम के मुद्दों पर कांग्रेस का मौन भी खलता है। कांग्रेस के चुनाव प्रचार अभियान के अध्यक्ष हरीश रावत बिजली सस्ती और फ्री करने, रसोई गैस सिलेंडर पर सब्सिडी देने पर तो जोर देते हैं, लेकिन गांवों को सड़कों से जोड़ने की बात वे भी नहीं करते हैं। पार्टी न तो उत्तराखंड के गांवों में स्वास्थ्य सेवाओं को मजबूत करने का रोड मैप दे रही है और न ही पलायन रोकने के लिए रोजगार के मजबूत विकल्पों पर बात की जा रही है। दूरस्थ गांवों में पढ़ाई के लिए रोजाना 15-20 किलोमीटर पैदल चलने की पीड़ा दूर करने का वादा भी किसी ने नहीं किया। कांग्रेस सबसे ज्यादा यह मुद्दा उठा रही है कि प्रचंड बहुमत के बाद भी भाजपा को पांच साल में तीन मुख्यमंत्री देने पड़े।
इस बीच पार्टी को एक नई समस्या से जूझना पड़ रहा है। भाजपा ने अपने मंत्री हरक सिंह रावत को पार्टी से छह वर्षों के लिए निष्कासित कर दिया है। उनके कांग्रेस में जाने की चर्चा है। लेकिन हरीश रावत इसके बिल्कुल खिलाफ हैं। हरीश रावत की पिछली सरकार में हरक सिंह रावत मंत्री थे। मार्च 2016 में उनकी अगुवाई में ही कांग्रेस विधायक टूटे थे और हरीश रावत सरकार अल्पमत में आ गई थी। लेकिन कांग्रेस विधायक दल के नेता प्रीतम सिंह, जिनके हरीश रावत के साथ अच्छे समीकरण नहीं हैं, और राज्य के एआइसीसी प्रभारी देवेंद्र यादव, हरक सिंह रावत को पार्टी में शामिल करने के पक्ष में हैं।
उत्तराखंड विधानसभा चुनावों में पहली बार एंट्री करने वाली आम आदमी पार्टी सरकारी विद्यालयों और अस्पतालों के लिए अपनी सरकार के दिल्ली मॉडल पर बात करती है, पर उत्तराखंड की विषम भौगोलिक परिस्थितियों में यह सब कैसे हो पाएगा इस पर वह चुप है। 'आप' की घोषणाएं भी राज्य में वोट बैंक के लिहाज से हैं। पार्टी ने महिलाओं को हर माह आर्थिक सहायता, मुफ्त बिजली, बुजुर्गों को तीर्थ यात्रा के साथ सैनिकों, पूर्व सैनिकों और शहीदों के परिवारों के लिए घोषणाएं की हैं।
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किसी भी राजनीतिक दल ने न तो मुद्दों की वास्तविक तस्वीर पेश की और न ही आंकड़ों पर बात की। न ही मुद्दों के चरणवार समाधान की ओर ध्यान दिया। दरअसल, उत्तराखंड में राष्ट्रीय एवं राज्य स्तरीय विषयों पर केंद्र सरकार की योजनाएं पहले से ही काम कर रही हैं। परन्तु कृषि, पानी, पलायन, सड़क, आजीविका, स्वास्थ्य, परिवहन जैसे विषयों पर तो स्थानीय जन प्रतिनिधियों और राज्य सरकार को ही काम करना होगा।
दरअसल, उत्तराखंड के गांवों में सुविधाओं का अभाव वोट बैंक से जुड़ा है। जनप्रतिनिधियों का ध्यान केवल उन गांवों की ओर होता है, जहां मतदाता ज्यादा होते हैं। यही वजह है कि सड़कें नहीं बन रही हैं। सड़क नहीं बन रही हैं तो पलायन हो रहा है। इन पर कोई बात करने को तैयार ही नहीं है।
अब तक के हालात इशारा कर रहे हैं कि कांग्रेस ने 2017 की तुलना में खुद को कुछ मजबूत किया है। कांग्रेस को भाजपा की पांच साल की सरकार की एंटी इंकमबेंसी पर भी भरोसा दिख रहा है। भाजपा अपने पांच सालों के कार्यकाल की बजाए डबल इंजन सरकार के फायदे गिना रही है। बताया जा रहा है कि केंद्र और राज्य में भाजपा की सरकार होने पर ही विकास तेजी से होगा। आम आदमी पार्टी दिल्ली सरकार के स्कूलों और अस्पतालों को दिखाकर और लुभावनी घोषणाएं करके अपना वजूद बनाने की फिराक में है। यह तो मतगणना के बाद ही साफ होगा कि सूबे के लोग किस सियासी दल की घोषणाओं पर यकीन करके अपना पांच साल का भविष्य उसके हाथों में सौंपते हैं।