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वेलेंटाइन और बॉलीवुड: क्या यही प्यार है?

रोमांस के सफर में हिंदी सिनेमा कई मुकाम से गुजरा और अपने वैभवशाली रूप में विकसित हुआ
दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे में शाहरुख-काजोल

अगर प्यार न होता तो क्या होता? और प्रेम कहानियां न होतीं तो बॉलीवुड कैसा होता? कहना मुश्किल है, मगर बॉलीवुड यकीनन वह नहीं होता, जैसा आज है! जब पर्दे पर रोमांटिक प्रेम का मतलब एक-दूसरे से प्लेटोनिक दूरी बनाए रखना था, तब से लेकर आज के डिजिटल युग में बिना किसी पर्देदारी के एक दूसरे के लिए जुनूनी होने की हद तक रोमांस के सफर में हिंदी सिनेमा कई मुकाम से गुजरा और अपने वैभवशाली रूप में विकसित हुआ। इस सफर में असंख्य प्रेम गीत गाए गए और प्यार का इजहार साल-दर-साल ज्यादा खुलकर होता गया। मगर इसी दौरान शायद कुछ पुराने ख्याल वालों ने मोहब्बत को ‘बेकार, बेदाम की चीज’ तक भी कहा। चाहे फॉर्मूला फिल्में हों या उसके विपरीत ध्रुव वाली यथार्थवादी सिनेमा, दोनों को जोड़ने वाला सूत्र प्यार रहा है।

बॉलीवुड की प्यार की जादुई दुनिया में चोरी-चोरी तिरछी नजर से ताक-झांक भर नहीं है, बल्कि दिलवाले की बाहों में दुल्हनिया आ जाती है और दिलजले हाथ में दारू की बोतल लिए बर्बाद हो जाते हैं। तो, इस दिलकश सफर का लुत्फ उठाइए!

प्यार हुआ इकरार हुआ 

स्वतंत्रता से पहले के वर्षों में हिंदी सिनेमा में प्रेम आरंभिक अवस्था में दिखता था, जब दुष्ट समाज की चुभती निगाहों से दूर, अछूत कन्या (1936) में एक दूसरे पर फिदा एक जोड़े ने गुनगुनाया था, "मैं बन की चिड़िया बनके बन-बन बोलूं रे।" अशोक कुमार इस फिल्म में ब्राह्मण के किरदार में थे, जबकि देविका रानी अछूत बनी थीं। "ये शादी नहीं हो सकती!" जालिम समाज के इस संवाद ने तब से हजारों स्क्रीन प्रेमियों के जीवन को बर्बाद किया है।

धनवान की बेटी ने निर्धन का दामन छोड़ दिया 

राज कपूर-नर्गिस

 

प्रेमी जोड़ों के आगे जाति की दीवार ही नहीं, दौलत का पहाड़ भी खड़ा होता है। राज कपूर ने अमीर-गरीब की खाई को विषय बनाया। उनकी नायिकाओं ने बहुत ही मादक तरीके से प्रेम का प्रतीकात्मक प्रदर्शन किया। एक तो उनकी बांहों में (बरसात, 1949) झूल गई, जिसने आर.के. फिल्म्स के प्रसिद्ध लोगो को जन्म दिया। दूसरी ठंडे जलप्रपात के नीचे दिखी, जो कोहरे की चादर (राम तेरी गंगा मैली, 1985) में लिपटी हुई थी। 

बंदो से पर्दा करना क्या 

प्यार के विविध रंगों और पहलुओं को सामने लाने के लिए राज कपूर आवारा बने, तो दिलीप कुमार ट्रेजेडी किंग। अक्सर हारा हुआ प्रेमी जो, "कौन कमबख्त बर्दाश्त करने को पीता है..."(देवदास, 1955) कह कर अपनी बात खत्म कर देता है। अफसोस, उसने उसकी तरफ ध्यान नहीं दिया, जिसने उसे लीवर सिरोसिस के खतरे के बारे में आगाह किया था। लेकिन एक प्रेमी के रूप में उनका एक भावुक पक्ष भी था। मुगल-ए-आजम (1960) में सलीम के रूप में उन्हें बस अनारकली (मधुबाला) के चेहरे को मोरपंख से गुदगुदी करना था। इस दृश्य ने इतना ऊंचा मापदंड तय कर दिया कि भारतीय सिनेमा में इसके आगे बढ़ना किसी के लिए भी नामुमकिन हो गया।

काटों से खींच के ये आंचल 

बिना दांत दिखाए हंसना और आंखों में शरारती चमक लिए देव आनंद ने 1950 के दशक में कई बार उनके आंचल को मुंह में पकड़कर अपनी नायिकाओं का मन मोह लिया था। लेकिन फिल्म गाइड के लिए जैसे उन्होंने अपना सर्वश्रेष्ठ बचा कर रखा था। आर.के. नारायण के उपन्यास पर आधारित 1965 की इस बहुचर्चित फिल्म में ऐसे समय में विवाहेतर संबंध के बारे में बताया गया था, जब प्यार का मतलब केवल डल झील में शिकारे पर प्लेटोनिक सवारी करना था। "कोई समझे न समझे, रोजी जरूर समझेगी", राजू गाइड के रूप में देव आनंद के उच्छ कोटि के अभिनय ने भारतीय सिनेमा में प्यार को नए ढंग से परिभाषित किया था।

मस्त बहारों का आशिक

बॉलीवुड गुरु दत्त की प्यासा (1957) और कागज के फूल (1959) जैसी शानदार क्लासिक के साथ प्रेम की दुखद कहानियों की ओर बढ़ रहा था, लेकिन साठ के दशक में ईस्टमैनकलर सिनेमा के आगमन के साथ प्रेम कहानियों ने एक नया रंग ले लिया। टूर पर कॉलेज की लड़कियों के एक झुंड का नेतृत्व करने वाली एक टॉमबॉय जैसी नायिका अनाड़ी स्थानीय खूबसूरत नौजवान से टकरा जाती है, जिसके साथ उसका मसखरा दोस्त भी है। टूर पर जब दूसरे अपना समय बर्बाद कर रहे थे, तब हमारे प्रेमी दर्शकों के लिए स्वर्गिक गुलमर्ग और पहलगाम का पता लगाते थे।

लोगों का काम है कहना

लड़कियों ने उन्हें खून से लिखे पत्र भेजे और बंबई में उनके बंगले के बाहर पार्क की गई उनकी कार इम्पाला को चूम लेती थीं। यह सब सिर्फ इसलिए हुआ क्योंकि उन्होंने प्रेमी की भूमिका बड़ी शिद्दत से निभाई थी। उन्होंने जब आराधना (1969) में "मेरे सपनों की रानी" गाया, तो हर लड़की दार्जिलिंग की उस टॉय ट्रेन को पकड़ना चाहती थी जिस पर शर्मिला टैगोर सफर कर रही थीं। राजेश खन्ना ने भारतीय परदे पर प्रेम को ऐसे चित्रित किया जिस तरह किसी भारतीय अभिनेता ने नहीं किया। चाहे हाथियों के झुंड के साथ अपनी नायिका के लिए प्रेम गीत गाना हो या फिर अपने जादुई शब्दों, "पुष्पा, आई हेट टीयर्स" के साथ नायिका को रुमाल पेश करना हो।

सलाम-ए-इश्क मेरी जां...

प्रेमिका से निराश, टूटे हुए आशिक के पास आंसू पोंछने के लिए केवल एक ही जगह थी, पास का वह कोठा जहां एक कोठेवाली नायक को फिर से जिंदगी में लौटाने के लिए न केवल मुजरा करती थी, बल्कि अपने अनकहे प्यार से उसके गहरे जख्मों पर मरहम भी लगाती थी। आज के प्रेम दृश्यों से भले ही तवायफ गायब हो गई हों लेकिन कई प्रेम कहानियों में वह बड़े दिलवाली की तरह दुनिया भर के देवदासों के लिए अपना घर, परिवार और यहां तक कि दिल भी परोस देती थीं। 

आएगा आने वाला

कई दशकों से पिछले और वर्तमान जीवन के बीच आने-जाने की यात्रा के इर्द-गिर्द बुनी गई प्रेमियों की पुनर्जन्म की कहानियों वाली दास्तां बॉलीवुड का पसंदीदा विषय रहा है। दिलीप कुमार से लेकर शाहरुख खान तक, लगभग हर शीर्ष नायक ने समृद्ध भूत-प्रेत वाली प्रेम कहानियों में भूमिका निभाई है। भले ही यह विषय इन दिनों सिनेमा में प्रचलन से बाहर हो गया हो, लेकिन एक  आजमाए हुए विषय को लंबे समय तक बाहर नहीं रखा जा सकता। बस थोड़ा इंतजार करें।

परदेसियों से न अंखियां मिलाना 

राम तेरी गंगा मैली

 

परदेसियों से न अंखियां मिलाना! किसी अजनबी से कभी प्यार मत करना। बुद्धिमान बुजुर्ग हर लड़की को समझाते थे लेकिन वे मुसीबत को न्यौता देने के लिए हर नियम की धज्जियां उड़ा देती थीं। एक बार तूफानी रात में काले बादल छा गए और वह एक सुनसान गुफा में परदेसी के साथ फंस गई। और दोनों प्यार को उसके वर्जित स्तर पर ले गए। समस्या तब हुई जब लड़की को छोड़कर अगले ही दिन परदेसी चला गया। कुछ हफ्तों बाद सावधानी हटी, दुर्घटना घटी का सही अर्थ समझ आया! नौ महीने बाद, उसे उस आदमी की तलाश में बड़े शहर में आना पड़ा, जिसने उसकी गोद में बच्चा दे दिया था।

दिल-विल, प्यार-व्यार

एंग्री यंग मैन की भूमिका में बिग बी त्रिशूल (1977) में येसुदास की आवाज में गरजे, ‘ये बेकार बेदाम की चीज है...’। सत्तर के दशक में मल्टी-स्टारर युग में नायिकाओं को अक्सर सिर्फ शो-पीस की तरह रखा जाता था। लेकिन किसी कारण या अकारण के विद्रोही उस दौर को सिगरेट के धुएं से भरे कमरे में बिस्तर पर परवीन बाबी के साथ बच्चन साहब को प्यार में दुस्साहस के स्तर को ऊपर उठाने का श्रेय दिया जा सकता है।

दोस्त, दोस्त न रहा

दो सज्जन एक ही लड़की के प्यार में पागल या दो लड़कियां एक ही लड़के का ध्यान अपनी ओर चाहती हों? दादा साहब फाल्के के जमाने से मौत के लिए प्रेम त्रिकोण का इस्तेमाल होता रहा है। लेकिन आज भी थिएटर तक दर्शकों को खींचने का यह कारगर नुस्खा है। राज कपूर ने संगम (1964) से इसे चलन में और लोकप्रिय बना दिया। इससे प्रेरित होकर फिल्म उद्योग नई बोलत में पुरानी शराब की तरह इसे बेचता रहा। फिल्म दर फिल्म तीनों में से एक अपने जीवन का बलिदान देता रहा। जाहिर सी बात है, दोस्त या महबूबा की शादी में मेहमान बन कर जाने से मरना बेहतर विकल्प था। आखिर दोनों की शादी उसकी कुर्बानी की वजह से ही तो हो रही है।

न उम्र की सीमा हो...

हिंदी सिनेमा में उम्र कोई बाधा नहीं रही। किशोरवय अपनी मां की उम्र की महिला के प्रति आकृष्ट हो गए, लंपट बूढ़े किसी सुंदरी को देख वासना से भर गए या मिसेज रॉबिन्सन किसी युवा की तलाश में निकल पड़ी... बोल्ड कहानियों के नाम पर बॉलीवुड ने हर तरह के प्रयोग किए। इस तरह की कहानियों को शायद ही गंभीरता से फिल्माया गया। इसका इरादा मुख्य रूप से दर्शकों के एक वर्ग को खुश करना था, खास कर सुबह के शो वाले दर्शकों को।

ये जवानी है दीवानी

लड़का गरीब घर से ताल्लुक रखता था लेकिन बेरोजगारी उसके लिए कोई मुद्दा नहीं थी। शहर के इकलौते अरबपति की सबसे खूबसूरत बेटी को लुभाने के लिए उसके कंधे पर हमेशा एक गिटार रहता था। (किशोर-रफी के गले के साथ शंकर-जयकिशन और पंचम के संगीत ने यकीनन इसमें मदद की!) नब्बे के दशक में कश्मीर जब पहुंच से बाहर चला गया, तब हमारे रोमांटिक हीरो ने हॉलैंड के ट्यूलिप गार्डन और स्विस आल्प्स की चोटियों की खोज की। जहां वह तो भारी-भरकम ऊनी कपड़ों से ढके हो कर युगल गीत गाता था और उसकी बेचारी प्रेमिका कांपती हुई अक्सर सिर्फ घाघरा-चोली या लाल शिफॉन में उसका साथ देती थी।

जब भी कोई कंगना बोले

कई साल तक बॉलीवुड में प्यार बच्चों का खेल नहीं था, जब तक राज कपूर  1973 में बॉबी लेकर नहीं आ गए। बिना किसी संकोच के रोमांटिक भूमिका निभाने वाले बूढ़े लोगों से ऊब चुके दर्शकों के पास आखिरकार एक ऐसी प्रेम कहानी थी जिसने हिट युवा रोमांस का खाका तैयार किया। लव स्टोरी (1981), एक दूजे के लिए (1981), कयामत से कयामत तक (1988), मैंने प्यार किया (1989) और दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे (1995) ने इसे अगले स्तर पर पहुंचा दिया। इन फिल्मों में, नायक को युवा दिखने के लिए बालों को काला करने या झुर्रियां छुपाने की जरूरत नहीं थी, जो दर्शकों के लिए बड़ी राहत थी।

दूरी ना रहे कोई! 

दयावान

 

लव-मेकिंग सीक्वेंस दिखाने की बात करें तो बॉलीवुड कई साल शरमाता रहा। सख्त सेंसरशिप के साथ, बॉलीवुड को रचनात्मक प्रतीकों का सहारा लेना पड़ा। दो फूल एक-दूसरे को सहलाते थे, बत्तियां बुझ जाती थीं या कैमरा कमरे की छत पर बस टिक जाता था, नेपथ्य में शास्त्रीय आलाप सुनाई देता था। यह सब अस्सी के दशक में बदला जब अनिल कपूर ने जांबाज (1986) में पुआल के ढेर पर डिंपल कपाडि़या के साथ प्रेम किया। तब दर्शकों ने नए बॉलीवुड का स्वाद चखा। दो साल बाद जब सेंसर बोर्ड की एक महिला सदस्य ने दयावान (1988) के लंबे खिंच गए चुंबन दृश्य पर आपत्ति की, तो निर्माता-निर्देशक फिरोज खान ने उन्हीं से पूछ लिया था, क्या पति-पत्नी के बीच वास्तविक जीवन में ऐसा नहीं होता? यह वह नजदीकी बिंदु था, जो बॉलीवुड को वास्तविक व्यावसायिकता के करीब पहुंचाने के बारे में हो सकता था।

भीगे होंठ तेरे

मर्डर

आउट-ऑफ-द-बॉक्स थीम पर मिलेनियल ऑडियंस की प्रतिक्रिया से उत्साहित, बॉलीवुड ने पिछले दो दशकों में प्रेम कहानियों के नए रंगों के साथ प्रयोग करना शुरू किया। दिल चाहता है (2001), मर्डर (2004) और लाइफ इन ए मेट्रो (2007) से लेकर द लंचबॉक्स (2013) और बधाई हो (2018) तक, इसने प्यार को नए नजरिए से देखा। दम लगा के हईशा (2005) एक मोटी लड़की के प्यार की कहानी थी, तो शुभ मंगल सावधान (2017) नायक के इरेक्टाइल डिसफंक्शन के बारे में थी। इनकी सफलता ने इस बात को रेखांकित किया कि बॉलीवुड प्रेम को अब हिल स्टेशन के पेड़ों के इर्द-गिर्द घूमना जरूरी नहीं था।

मुझे प्यार तुमसे नहीं है, नहीं है   

बॉलीवुड हमेशा शानदार, जीवन से बड़ी प्रेम गाथाओं से ग्रस्त दिखता था, जिसका वास्तविक जीवन से कोई लेना-देना नहीं था। लेकिन फिर हृषिकेश मुखर्जी, बासू भट्टाचार्य और सई परांजपे ने प्रेम कहानियों को इस तरह के हास्य और संवेदनशीलता के साथ चित्रित किया कि वे नासमझ एक्शन फ्लिक की लोकप्रियता की ऊंचाई पर भी वास्तविक लगती थीं। बल्कि परांजपे की चश्मे बद्दूर (1981) तो बॉलीवुड ने वर्षों से पर्दे पर जिस रोमांस को दिखाया बस उसका हल्का-फुल्का कटाक्ष था।

प्यार हमें किस मोड़ पे ले आया

बधाई हो

बॉलीवुड में समलैंगिक पात्रों को कई वर्षों तक हमेशा स्टीरियोटाइप किरदारों के रूप में चित्रित किया गया। लेकिन फायर (1995) ने जैसे दर्शकों को बवंडर में ला खड़ा किया। समलैंगिक प्रेम की कहानी को उस वक्त तथाकथित शुद्धतावादियों का विरोध सहना पड़ा था। बॉलीवुड ने तब से एक लंबी दूरी तय की। माई ब्रदर निखिल (2005), शुभ मंगल ज्यादा सावधान (2020) जैसी प्रगतिशील फिल्मों के साथ कई और फिल्में आईं। हाल ही रिलीज हुई चंडीगढ़ करे आशिकी में वाणी कपूर एक ट्रांस-वुमन की भूमिका में हैं। प्यार में बॉलीवुड का क्या ही तो सफर रहा है!

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