लगभग हर रोज ऐसी खबरें पढ़ने और सुनने को मिल रही हैं कि विश्वास ही नहीं होता कि हम इक्कीसवीं शताब्दी के दो दशक पूरे कर चुके हैं। इन खबरों के कारण मन में यह सवाल भी उठता है कि हमारा समाज किस दिशा में जा रहा है? यह प्रगति है या दुर्गति? क्या उन्नीसवीं और बीसवीं शताब्दियों में हुए नवजागरण और समाज सुधार आंदोलनों, पिछले कई दशकों के दौरान स्त्री-पुरुष और विभिन्न सामाजिक वर्गों के बीच समानता के बारे में हुए विमर्श और वैज्ञानिक चेतना जगाने के सारे प्रयास व्यर्थ ही रहे?
गुजरात से दो खबरें आई हैं। भुज में श्री सहजानंद गर्ल्स इंस्टिट्यूट के छात्रावास में लंबे समय से उन छात्राओं को अन्य छात्राओं से अलग करके एक अंधेरे-से कमरे में बंद रखने की प्रथा जारी थी, जिन छात्राओं को मासिक धर्म हो रहा था। यही नहीं, एक रजिस्टर में उन्हें अपने मासिक धर्म चक्र का ब्योरा भी लिखना पड़ता था। लेकिन हद तो तब हो गई जब पिछली ग्यारह फरवरी को सभी छात्राओं को निर्वस्त्र करके अध्यापिकाओं ने जांच की कि उन्हें मासिक धर्म हो रहा है या नहीं। इस सबके पीछे यह दकियानूसी मान्यता है कि मासिक धर्म के दौरान महिला अपवित्र हो जाती है और इस अवधि के दौरान उसके साथ अछूत जैसा बर्ताव किया जाना चाहिए। गुजरात से ही एक खबर और आई है। बनासकंठा जिले में सेना में कार्यरत एक निचली समझी जाने वाली जाति के दूल्हे की बारात पर अपने को ऊंची जाति का समझने वालों ने पथराव किया, जिसमें दूल्हा बाल-बाल बच गया लेकिन उसके कुछ रिश्तेदार घायल हो गए। दूल्हे का गुनाह यह था कि उसने घोड़ी पर चढ़कर बारात निकालने की जुर्रत की थी।
महाराष्ट्र के अमरावती जिले में एक महिला विद्यालय में राष्ट्रीय सेवा योजना में भाग लेने वाली 40 छात्राओं से वेलेंटाइन डे से एक दिन पहले यह शपथ दिलाई गई कि वे न प्रेम करेंगी और न प्रेम विवाह, और अपने माता-पिता का कहा मानेंगी। तीन दशक पहले बजरंग दल और उसी की तरह के हिंदुत्ववादी संगठनों ने वेलेंटाइन डे पर होने वाले आयोजनों पर हिंसक हमले करने और उन्हें बलपूर्वक बंद कराने का अभियान शुरू किया था। इस तरह की घटनाओं के बारे में सुनकर राही मासूम रज़ा की एक गजल का यह मतला याद आता है, “क्यों मेरी मुहब्बत को, पत्थर ये समझते हैं? क्यों इतने परीशां हैं, शीशे के मकां वाले?”
क्या भारतीय परंपरा, जो इनकी मान्यता के अनुसार हिंदू परंपरा ही है, प्रेम के और अपनी इच्छानुसार विवाह करने के खिलाफ है? अगर प्रेम के खिलाफ है तो फिर राधा-कृष्ण के प्रेम का इतना महिमामंडन क्यों? अर्जुन ने मन में सुभद्रा के प्रति प्रेम उत्पन्न होने के कारण उसे अपने साथ भागने के लिए प्रेरित किया। उसकी आलोचना क्यों नहीं की जाती? जयदेव का गीत गोविन्द कृष्ण, राधा और अन्य गोपियों के प्रेम और कामकेलि के प्रसंगों से भरा पड़ा है। हिंदी के रीतिकालीन कवि कृष्ण और राधा का आश्रय लेकर संयोग और वियोग शृंगार का काव्य रचते थे। कालिदास ने कुमारसम्भव में शिव-पार्वती के प्रेम और सम्मिलन का विशद चित्रण किया है। कोणार्क और खजुराहो के मंदिर के मूर्तिशिल्प के बारे में तो सब जानते ही हैं। हिंदू धर्म की ही बात करें, तो वह धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष— इन चार पुरुषार्थों को करने की हिदायत देता है। प्रेम और काम के प्रति जैसी निर्दोष, नैसर्गिक और कुंठारहित दृष्टि प्राचीन और मध्य काल में थी, वैसी आज क्यों नहीं पाई जाती?
इस सबके पीछे अतीतोन्मुखी और पितृसत्तात्मक दृष्टि है जिसकी बुनियाद में स्त्री को हर प्रकार की आजादी से वंचित रखने की कामना है। उसे न अपनी देह पर अधिकार है न मन पर। उसका हर निर्णय उसके परिवार के पुरुषों द्वारा लिया जाना चाहिए। उसे किसके साथ अपना जीवन गुजारना है, यह तय करने का अधिकार नहीं है। किशोरावस्था से ही मासिक धर्म के दौरान उसे अपनी देह पर लज्जित होने के लिए तैयार किया जाता है। परिवारों की यह पितृसत्तात्मक संरचना केवल हिंदू समाज तक ही सीमित नहीं है। लगभग हर धर्म और समुदाय के परिवारों में कमोबेश यही स्थिति है। उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध तक कन्याओं को अशिक्षित रखने की प्रथा थी। अगर कुछ परिवारों में उन्हें पढ़ाया भी जाता था, तो केवल इतना भर ताकि वे रामायण और अन्य धर्म ग्रंथ पढ़ सकें। विधवा विवाह का चलन नहीं था। उन्हें संपत्ति में हिस्सा भी नहीं मिलता था। उनका संसार घर की चारदीवारी के भीतर सिमटा हुआ था।
पिछले दो सौ साल में हुए समाज सुधारों के कारण अब वैसी स्थिति नहीं रही। लेकिन वे मान्यताएं आज भी सतह के नीचे जीवित हैं और हम जरा भी गाफिल हुए, तो वे फिर से प्रभावकारी हो सकती हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सर्वोच्च नेता सरसंघचालक मोहन भागवत कई बार इस आशय के बयान दे चुके हैं कि पत्नी को घर संभालना चाहिए और पति को कमा कर लाना चाहिए। और पत्नी उसकी देखभाल में कोताही करे, तो पति उसे त्याग सकता है। हमारे परिवार भी इसी प्रकार की विचारधारा बच्चों में कूट-कूटकर भरते हैं और इसका व्यापक पैमाने पर सामाजिक उत्पादन जारी रहता है। शिक्षा संस्थाएं अक्सर आधुनिक और समानतामूलक मूल्यों को सिखाने के बजाय प्रतिगामी मूल्यों का ही प्रसार करती हैं। हमारे संविधान में वैज्ञानिक चेतना के प्रसार की बात कही गई है। लेकिन अन्य अनेक बातों की तरह ही यह भी अधिकांशतः कागज पर ही धरी रह गई है। जरूरत एक देशव्यापी जनचेतना अभियान चलाने की है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, राजनीति और कला-संस्कृति पर लिखते हैं)
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प्रेम और काम के प्रति जैसी निर्दोष, नैसर्गिक और कुंठारहित दृष्टि प्राचीन और मध्य काल में थी, वैसी आज क्यों नहीं है? जरूरत एक देशव्यापी जनचेतना अभियान चलाने की है