डिजिटल कंटेंट के संबंध में सबसे प्रमुख बात यह है कि जैसे-जैसे तकनीक की उन्नति हुई, वैसे-वैसे हमारे कथानक बदलने लगे। अगर हम आधुनिक समय के नैरेटिव को देखें, तो आज हम उस तरह की कहानियों को परदे पर नहीं देख रहे, जैसा अस्सी और नब्बे के दशक में देखा करते थे। जैसे-जैसे देश की जनसंख्या युवा होती गई, नए कथानकों का प्रादुर्भाव होता गया। आज सोशल मीडिया का जमाना है। एक 30 सेकंड की इंडस्ट्री पैदा हुई है, जो 30 सेकंड में किसी की प्रतिष्ठा को बर्बाद कर देती है या किसी को हीरो बनाकर सिर आंखों पर बिठा लेती है। हमारे देश में 70 प्रतिशत जनसंख्या 35 साल से कम उम्र वालों की है। हम भले ही बहुत पुरानी सभ्यता हैं, लेकिन साथ ही साथ हम एक बहुत ही युवा और आधुनिक राष्ट्र भी हैं। जब हम इन युवाओं की बात करते हैं, तो उनकी न सिर्फ आकांक्षाएं और आशाएं हैं, बल्कि उनकी सिनेमा देखने और समझने की दृष्टि भी बिलकुल नई है।
इसी परिप्रेक्ष्य में पिछले कुछ वर्षों में डिजिटल क्रांति से अमेजन प्राइम वीडियो, नेटफ्लिक्स जैसे विदेशी से लेकर हमारे अपने देश के ‘ऑल्ट बालाजी’ जैसे ओवर-द-टॉप प्लेटफॉर्म का प्रादुर्भाव हुआ है। आज प्रादेशिक भाषाओं में गैर-हिंदी राज्यों में भी डिजिटल कथानकों की लोकप्रियता बढ़ी है। यह एक नया माध्यम है। अभी हम यह भी नहीं जानते हैं, संख्या के हिसाब से कितने लोग इसे देखते हैं। पिछले दशक में हम यह जान चुके हैं कि कितने करोड़ लोग टेलीविजन के कार्यक्रम देखते हैं। हमें यह भी पता चल गया कि उनमें से कितने प्रतिशत लोग समाचार, खेलकूद, सास-बहू जैसे पारिवारिक या धार्मिक सीरियल देखते हैं। यह स्थिति अभी डिजिटल माध्यम की नहीं आई है। कहने का तात्पर्य है कि हम इस बात से अब तक अवगत नहीं हैं कि आखिर आज कितने लोग डिजिटल माध्यम का उपयोग कर देख रहे हैं।
जब केबल टीवी रेगुलेशन एक्ट बना था तो उस पर एक दशक तक चर्चा हुई थी। 1982 के एशियाई खेलों के बाद भारतीय टेलीविजन पर नए कथानक के साथ हमलोग और बुनियाद जैसे सीरियल का जमाना आया। तत्पश्चात सैटेलाइट चैनलों का प्रादुर्भाव हुआ। लेकिन कई साल की बहस के बाद यह पता चला कि देश के युवा या महिलाएं या मध्यम वर्ग टीवी पर क्या देखना चाहता है? इस नए डिजिटल माध्यम को लेकर चमत्कृत करने वाली बात है कि हम इस बात से अभी तक वाकिफ नहीं कि इसके दर्शक क्या पसंद कर रहे हैं? यह एक थाली में परोसे गए विश्व प्रसिद्ध भारतीय व्यंजनों की तरह है, लेकिन किसे कौन-सा व्यंजन पसंद है, इसकी जानकारी अभी हमें नहीं है। जैसे देश के हर प्रदेश के व्यंजनों की अपनी-अपनी विशेषताएं हैं, डिजिटल कंटेंट भी उस थाली की तरह है लेकिन खाने वालों का उसके प्रति क्या रुख है, यह फिलहाल हम नहीं जानते। अगर हम इन कार्यक्रमों के रेगुलेशन के परिप्रेक्ष्य में देखें, तो एक बात तो साफ है कि हम जिस तरह से फिल्मों को सेंसर बोर्ड के द्वारा प्रमाणित करते हैं, उस तरह डिजिटल कंटेंट को प्रमाणित करने की बात नहीं कर सकते।
इसका कारण यह है कि सिनेमा का कंटेंट बड़े स्क्रीन पर 2,000 तक लोग एक साथ अंधेरे कमरे में बैठकर देखते थे। यह सामूहिक रूप से देखा जाता था। जहां तक डिजिटल कंटेंट की बात है, लोग व्यक्तिगत रूप से अपनी हथेलियों में देखते हैं। हाल ही आए एक सर्वे के अनुसार, 75 से 80 प्रतिशत लोग डिजिटल कंटेंट अपने स्मार्ट फोन पर देखते हैं, न कि कंप्यूटर या आइपैड पर। यह कंटेंट प्राइवेट और व्यक्तिगत उपयोग के लिए है। इसका मतलब है कि सिनेमा की यात्रा सामूहिक से वैयक्तिक हो रही है। निजी कंटेंट का प्रदर्शन अगर सार्वजानिक रूप से होगा, तो उसका प्रभाव और परिप्रेक्ष्य निस्संदेह बदल जाएगा। जैसे अगर आप अपनी लिखी कोई कविता अपने घर में पढ़ते हैं तो वह व्यक्तिगत है, लेकिन जब वही कविता आप एक कवि सम्मलेन में पढ़ते हैं, तो वह सार्वजानिक हो जाती है। डिजिटल कंटेंट को भी व्यक्तिगत और सार्वजानिक के परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए।
थिएटर में किसी फिल्म का प्रदर्शन उस कंटेंट से जुदा है जो आप अपनी हथेलियों में देखते हैं। इसे फिल्मों के सर्टिफिकेशन के लेंस से देखना अनुचित होगा। लेकिन एक बात यह भी है कि हमारा जनतंत्र विविधताओं से भरा है। हम सांस्कृतिक रूप से बहुत संवेदनशील देश हैं और हमारी विविधताएं बहुत ज्यादा हैं। यहां हर 50 किलोमीटर पर न सिर्फ भाषाएं, बल्कि खानपान, रीति-रिवाज और परंपराएं बदलती हैं। इस कारण यहां की जिंदगी को देखने का नजरिया और सांस्कृतिक विविधताओं को समझना जरूरी है। जो कंटेंट पाश्चात्य देशों से आता है, उसका एक परिप्रेक्ष्य उस देश का होगा जहां वह बना है, लेकिन हमारा सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य अलग हो सकता है। पिछले दिनों एक बड़े प्लेटफॉर्म पर मुझे किसी कंटेंट के बारे में कहा गया कि वह हमारे लिए बड़ा अपमानजनक था। मुझे लगता है कि बिना पूरी तरह समझे जल्दबाजी में इस तरह का आकलन गैर-जरूरी है। हमारा लोकतंत्र पुख्ता और सशक्त है। जैसे इस देश में क्रिकेट और राजनीति की तरह सिनेमा भी एक तरह का धर्म है। हमें अपने दर्शकों की समझ का अपमान नहीं करना चाहिए। अगर उन्हें लगेगा कि कोई कंटेंट गटरछाप है तो वे उसे कूड़ेदान में फेंकने में जरा भी देर नहीं करेंगे।
हमारे दर्शक विचारोत्तेजक कंटेंट को समझते हैं। यह स्वतंत्रता जनतंत्र का अहम हिस्सा है जिसका सौदा नहीं किया जाना चाहिए, लेकिन हमें इसका जरूर ध्यान रखना चाहिए कि हम कुछ भी दिखाकर किसी की भावनाओं को ठेस न पहुंचाएं। अगर किसी तरह के चित्रण से हिंसा होती है या किसी की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचती है तो उसके लिए हमारा संविधान और कानून है। मुझे नहीं लगता कि अभी तक किसी कंटेंट की वजह से बड़े पैमाने पर कोई प्रतिक्रिया हुई हो। अगर कल कोई ऐसा कंटेंट दिखाया जाता है, तो उस पर कानूनसम्मत कार्रवाई जरूर होगी। हमारा युवा दर्शक बहुत समझदार है और मेरा विश्वास है कि वह किसी भी तरह के अपमानजनक कंटेंट को स्वीकार नहीं करेगा। मिसाल के तौर पर, एक नारी विरोधी फिल्म कबीर सिंह ने भले ही 250 करोड़ रुपये का बॉक्स ऑफिस पर व्यवसाय किया हो, उसकी फजीहत भी उतनी ही हुई। यह भी देखा जाना चाहिए कि किस तरह के कथानक पसंद किए जा रहे हैं। अगर किसी वेब सीरीज का दूसरा सीजन नहीं आता है तो यह समझने के लिए काफी है कि दर्शकों ने उसे नकार दिया है। यह सही है कि शुरुआत में पुरातनपंथी निर्माता डिजिटल कंटेंट से सशंकित थे। उन्हें समझ में नहीं आ रहा था कि इसके आने से क्या फर्क पड़ेगा। लेकिन धीरे-धीरे उन्हें पता चल गया कि इस माध्यम में भी असीम संभावनाएं हैं जिनका प्रयोग करना चाहिए। फिल्म इंडस्ट्री को भी यह समझ में आने लगा है।
इसका स्वागत इस कारण से भी होना चाहिए कि यह युवा स्वतंत्र फिल्मकारों को अंतहीन अवसर प्रदान करता है। एक समय था जब फिल्म इंस्टीट्यूट से निकला युवा पहले अपने दस वर्ष किसी बड़े निर्देशक के सहायक के रूप में बिता देता था। उसके अगले पांच साल अपनी फिल्म के रिलीज करने में बीत जाते थे। अब उन्हें किसी के सामने मुंह बाये नहीं खड़ा रहना है। वह स्वयं फिल्म बना सकता है। यह फिल्म निर्माण का जनतंत्रीकरण है, जो इस माध्यम की सबसे बड़ी खूबी है। इसकी चुनौतियां भी हैं लेकिन चुनौती तो हर कला को अंजाम तक पहुंचाने में आती है।
डिजिटल माध्यम में हासिल स्वतंत्रता युवाओं को एक अस्त्र के रूप में मिली है। कई तरह के कथानक जो पहले देश के बाहर नहीं जा सकते थे, अब एक साथ 190 देशों में दिखाए जाते हैं, चाहे वह सेक्रेड गेम्स हो बार्ड ऑफ ब्लड हो या मिर्जापुर। यह भी वैश्वीकरण की एक बड़ी मिसाल है। एक फिल्मकार की कृति एक मिनट में पूरे विश्व में पहुंच जाती है, जो मेक इन इंडिया ग्लोबल की अवधारणा को आगे ले जाती दिखती है। मैं सेंसर बोर्ड की सदस्य जरूर हूं, लेकिन मैं समझती हूं कि बिना अच्छे तरीके से अध्ययन किए किसी चीज को रेगुलेट करना स्थिति को बेहतर नहीं बनाएगा। वेब सीरीज एक कमाल का नया माध्यम है, जिसे पहले समझना जरूरी है। मुझे लगता है कि युवा फिल्मकार और कथाकार पूरी जिम्मेदारी के साथ इसका उपयोग कर इसका फायदा उठाएंगे।
(लेखिका सेंसर बोर्ड की सबसे युवा सदस्य हैं, ये उनके निजी विचार हैं)
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यह थाली में परोसे गए विश्व प्रसिद्ध भारतीय व्यंजनों की तरह है, लेकिन किसे कौन-सा व्यंजन पसंद है, इसकी जानकारी अभी हमें नहीं है