सच्ची-मुच्ची ‘खेला होबे’। कोलकाता से लेकर धुर देहात की दीवालों पर लिखा और जगह-जगह गूंजने वाला यह नारा मानो हाल में ही घोषित चार राज्यों पश्चिम बंगाल, असम, केरल, तमिलनाडु और एक केंद्रशासित पुदुच्चेरी में होने जा रहे विधानसभा चुनावों की ताशीर का अंदाजा दे रहा है। ऐसा नहीं है कि 26 फरवरी को चुनाव आयोग के चुनाव की तारीखों के ऐलान के बाद खेल शुरू हुआ। शुरुआत तो नवंबर में बिहार की विधानसभा चुनावों के संपन्न होने के बाद ही हो गई थी। अलबत्ता, कुछ अड़ंगा दिल्ली की सीमाओं पर 26 नवंबर से आ डटे किसान यूनियनों की वजह से लगा। लेकिन 26 जनवरी को लाल किले की घटना के बाद फोकस चुनावी राज्यों की ओर मुड़ गया। दनादन नेताओं के दौरे और योजनाओं-परियोजनाओं के ऐलान शुरू हो गए, जो चुनाव ऐलान की तारीख तक जारी रहे। लेकिन हर चुनाव अपनी राह अलग बनाता है और ऐन प्रचार या कई बार विभिन्न चरणों के मतदान के बीच मुद्दे बदलते देखे गए हैं। यह अनिश्चय इन चुनावों में कहीं ज्यादा देखा जा सकता है। इसी वजह से भिन्न-भिन्न चरणों के हिसाब से पार्टियां रणनीतियां भी बदलती रहती हैं। इस बार भी ऐसा देखने को मिलेगा ही।
शायद यही वजह है कि मतदान के चरण भी विवाद का विषय बन गए। इसकी एक वजह तो कई वर्षों से चुनाव आयोग की साख पर उठ रहे सवाल हैं, लेकिन खासकर बंगाल के मतदान आठ चरणों में बांटने पर राज्य में सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस ने न सिर्फ हैरानी जताई, बल्कि भाजपा की रणनीति का हिस्सा बताया, जिसके इन चुनावों में सबसे ज्यादा दांव बंगाल पर ही लगे हैं। तृणमूल नेता, मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने कहा, “जो उसके (भाजपा के) दफ्तर में दिखा, वही ऐलान में पाया गया।” वे इसके बेतुकेपन को जाहिर करने के लिए दक्षिण 24 परगना जिले का उदाहरण देती हैं, जिसके विधानसभा क्षेत्रों को तीन चरणों के मतदान में बांटा गया है। इस पर भाजपा की प्रतिक्रिया तो खास नहीं आई मगर कांग्रेस और वाम मोर्चे ने भी कोई खास शिकायत दर्ज नहीं कराई।
बंगाल में इस विवाद की एक वजह यह भी बताई जा रही है कि दूसरे राज्यों असम (दो चरण), तमिलनाडु, केरल या पुदुच्चेरी में मतदान इतनी लंबी अवधि में नहीं फैलाए गए, जहां भाजपा का खास दांव पर नहीं लगा है या उसे बड़ी चुनौती नहीं मिल रही है। केरल में उसकी नाममात्र की मौजूदगी है। तमिलनाडु में वह अन्नाद्रमुक गठजोड़ को जीतते देखना चाहती है, लेकिन वह छोटी खिलाड़ी है। द्रमुक-कांग्रेस गठजोड़ के जीतने से उसे केंद्र में ज्यादा दबाव झेलना पड़ सकता है। पुदुच्चेरी में हाल में चार विधायकों के इस्तीफे से कांग्रेस की एन. नारायणस्वामी की सरकार गिराकर उसने अपने दांव जरूर बढ़ाए हैं लेकिन वह बेहद छोटा राज्य है। वहां उसका मकसद सिर्फ कांग्रेस को कमजोर करना लगता है।
हां, असम में जरूर उसके दांव बड़े हैं, जहां पांच साल से उसकी अगप के साथ गठजोड़ में मुख्यमंत्री सर्वानंद सोनोवाल की सरकार है। लेकिन मुख्यमंत्री से भी ताकतवर नेता वित्त और स्वास्थ्य मंत्री हेमंत बिस्वा सरमा की पूरी पूर्वोत्तर में तूती बोलती है। सरमा के ही जोड़तोड़ के करिश्मे से मणिपुर, त्रिपुरा, मिजोरम में उसकी सरकारें हैं। इसलिए वह असम में कोई कमजोरी नहीं देखना चाहेगी। उसे अपने इन दोनों नेताओं पर भरोसा है और हाल के कुछ जनमत सर्वेक्षणों में उसकी वोट हिस्सेदारी 46 फीसदी के आसपास आंकी गई है। लेकिन वहां भी कांग्रेस और बदरुद्दीन अजमल की पार्टी एआइयूडीएफ के साथ बोडोलैंड ट्राइबल फ्रंट (बीटीएफ) के गठजोड़ बना लेने से उसके लिए चुनौती कड़ी हो सकती है। बीटीएफ हाल तक एनडीए का हिस्सा था। भाजपा असम की 126 सीटों में से 100 पार का लक्ष्य रखे हुए है। कांग्रेस और एआइयूडीएफ भी इसी के आसपास सीटों पर दांव लगा रहे हैं लेकिन बीटीएफ के नेता ने कहा कि हमें 70 सीटों पर फोकस करना चाहिए, ताकि ताकत ज्यादा न बिखरे क्योंकि बहुमत का आंकड़ा 64 का है। इस वजह से भी चुनाव प्रबंधन की अहमियत बढ़ गई है।
जाहिर है, प्रबंधन कौशल की सबसे अधिक दरकार 294 सीटों वाले बंगाल में ही है। इसलिए तृणमूल ने प्रशांत किशोर की टीम को इसकी जिम्मेदारी सौंपी है। भाजपा को केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह, पार्टी अध्यक्ष जेपी नड्डा, महासचिव कैलाश विजयवर्गीय के प्रबंधन पर भरोसा है और वे लगातार फोकस भी कर रहे हैं। लेकिन 28 फरवरी को कोलकाता के ब्रिगेड परेड ग्राउंड में विशाल रैली में वाम मोर्चा, कांग्रेस और फुरफुरा शरीफ दरगाह के मौलाना के इंडियन सेकूलर फ्रंट के गठजोड़ ने तीसरे मोर्चे की मौजूदगी दर्ज करा दी है, जिसे अभी तक खास अहमियत नहीं मिल रही थी। जानकार यही कयास लगा रहे हैं कि इससे तृणमूल को फायदा मिलेगा या भाजपा को। मगर 2016 के चुनावों में करीब 10 फीसदी से 2019 के संसदीय चुनावों में तकरीबन 40 फीसदी वोट हिस्सेदारी पाने वाली भाजपा को कांग्रेस और वाम मोर्चे से टूटकर गए वोटों का लाभ मिला था। अगर ये वोट मूल पार्टियों की ओर लौटते हैं तो भाजपा कमजोर हो सकती है। हालांकि भाजपा ने चुनावों के ठीक पहले तृणमूल के नेताओं को अपने पाले में लाकर कुछ विस्तार किया है। लेकिन ममता की लोकप्रियता अब भी काफी है और भाजपा या तीसरे मोर्चे का कोई नेतृत्व पद का चेहरा जाहिर नहीं है।
बहरहाल, केरल और तमिलनाडु में लड़ाई पहले से तय दो ध्रुवों के बीच ही होनी है। केरल में मुख्यमंत्री पिनराई विजयन की अगुआई में वाम लोकतांत्रिक मोर्चा की स्थिति कांग्रेस की अगुआई में संयुक्त लोकतांत्रिक मोर्चे से फिलहाल बेहतर बताई जा रही है। तमिलनाडु में मुख्यमंत्री ई. पलानीस्वामी के नेतृत्व में अन्नाद्रमुक के बरअक्स द्रमुक-कांग्रेस गठजोड़ की स्थिति बेहतर है। अन्नाद्रमुक के दस साल राज को सत्ता-विरोधी रुझान के साथ हाल में जेल से छूट कर आईं शशिकला से भी झटका मिल सकता है, बशर्ते उनके साथ कोई तालमेल न हो जाए। खेल इसलिए भी तीखा हो सकता है कि देश में किसान आंदोलन का दायरा बढ़ता जा रहा है और पेट्रोल-डीजल की कीमतें शतक के आसपास पहुंचने से महंगाई का दंश भी बढ़ रहा है। जो भी हो, 2 मई को नतीजे बेशक आगे की सियासत की राह तय कर सकती हैं।