दोपहर के करीब दो बजे हैं और मेरी गाड़ी पश्चिम बंगाल के पूर्वी बर्धमान जिले के गहाक गांव में दाखिल हो रही है। धान के खेतों और गोल खपरैल वाले मकानों इस गांव में दिन के वक्त भी अजीब सन्नाटा है। मुझे यहां लेकर आए लोकल कोऑर्डिनेटर ने पहले ही आगाह कर दिया था कि इस इलाके में जाना खतरनाक हो सकता है, क्योंकि चुनाव के तनाव भरे माहौल में कब क्या हो जाए, कोई नहीं जानता। मैं यहां शिड्यूल कास्ट के लोगों से बातचीत करने आया हूं, जिनके साथ करीब सप्ताह भर पहले कथित तौर पर तृणमूल कांग्रेस के कार्यकर्ताओं ने मारपीट की थी।
स्थानीय लोगों ने सहमी आवाज में अपनी आपबीती बताई कि वे दोपहर के समय अपने संगठन के समर्थन में दीवारों पर पोस्टर चिपका रहे थे, तभी कुछ लोग आकर गाली-गलौज करने लगे। जब इन लोगों ने विरोध किया, तो उन्होंने मारपीट शुरू कर दी और औरतों के साथ बदसलूकी करने लगे। जयदेब, जो खुद भी इस मारपीट का शिकार हुए थे, बताते हैं, “अपने संगठन के समर्थन में पोस्टर लगाना हमारा अधिकार है, पर तृणमूल के स्थानीय कार्यकर्ताओं की गुंडागर्दी के कारण यहां सब दूभर हो गया है। हमने कोशिश की और इसका खामियाजा हमें मार खाकर भुगतना पड़ा। हमारी औरतों को हमारी आंखों के सामने बेइज्जत किया गया।” पुलिस में रिपोर्ट लिखवाने के सवाल पर जयदेब कहते हैं, “हम पुलिस के पास शिकायत लेकर गए थे, पर उन्होंने हमें यह कहकर भगा दिया कि हम झूठ बोल रहे हैं।” वोट देने के सवाल पर जयदेब साफ कहते हैं, “अगर रास्ते में पुलिस लगी होगी, तो हम घर से भी नहीं निकलेंगे। हमें पुलिस पर जरा भी भरोसा नहीं है, हम दोबारा मार खाना नहीं चाहते। हां, अगर पैरामिलिट्री जवान तैनात होंगे, तो जरूर जाएंगे।”
इलाके के लोग बताते हैं कि पिछड़ी जाति के लोगों के खिलाफ यहां ऐसी घटनाएं आम हैं और चुनाव का माहौल गरम है, इसलिए बात-बात पर गहमा-गहमी होती रहती है। तृणमूल कांग्रेस के दबदबे वाले इस इलाके के आम लोगों में पार्टी के खिलाफ काफी गुस्सा देखने को मिला। रोजमर्रा के सामान की छोटी-सी दुकान चलाने वाली चंद्रमोनी बागदी खीझकर कहती हैं, “क्या बताएं हम! मुंह खोलेंगे, तो कोई आकर धमकाने लगेगा। सब गुंडागर्दी करते हैं, किसी को चैन नहीं है यहां।”
तृणमूल कांग्रेस के प्रति आम लोगों के गुस्से के कारण ही पश्चिम बंगाल के कई अंदरूनी इलाकों में भाजपा की पकड़ धीरे-धीरे मजबूत होती दिख रही है। इसकी पुष्टि पिछले साल के पंचायती चुनाव के नतीजे करते हैं, जिसमें भाजपा तृणमूल कांग्रेस की मुख्य प्रतिद्वंद्वी पार्टी के रूप में उभरी और दूसरा स्थान हासिल किया। इससे पहले साल 2017 के नगर निकाय चुनावों में भी तृणमूल के बाद भाजपा दूसरे स्थान पर आई थी। हालांकि 2016 के विधानसभा चुनाव में भाजपा को सिर्फ 10.2 फीसदी वोट मिले थे। अगर 2011 के चुनाव के नतीजों से तुलना करें तो तब भाजपा को जितने फीसदी वोट मिले थे, यह आंकड़ा उससे ढाई गुना ज्यादा है। इस बारे में कटवा शहर में ऑटोपार्ट्स का बिजनेस करने वाले उत्तम मैत्र कहते हैं, “पिछले लोकसभा चुनाव में बंगाल के ग्रामीण इलाकों में भाजपा कहीं नजर नहीं आती थी। हालत यह थी कि गांवों में पार्टी का एक झंडा तक नहीं दिखता था, पर अब ऐसा नहीं है, इस बार भाजपा वाले गांवों में काफी प्रचार कर रहे हैं।”
हालांकि पिछले तीन-चार साल में जैसे-जैसे पश्चिम बंगाल में जमीनी तौर पर भाजपा का विस्तार हुआ है, वैसे-वैसे यहां सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति भी बढ़ने लगी है। भाजपा के नेता राज्य सरकार को मुस्लिम तुष्टीकरण और हिंदुओं के उत्पीड़न जैसे मसलों पर लगातार घेरने की कोशिश करते रहे हैं। भाजपा अध्यक्ष अमित शाह कभी मदरसों की फंडिंग को लेकर तो कभी रामनवमी में जुलूस निकालने से रोके जाने को लेकर ममता बनर्जी सरकार पर निशाना साधते रहते हैं। हालांकि भाजपा भले ही यह सब करके यहां के हिंदू वोटों को अपनी ओर खींचने की कोशिश में हो, पर पार्टी के ये हाथकंडे हर किसी को पसंद नहीं आ रहे हैं।
बर्धमान के कॉलेज स्टूडेंट प्रबीर दास कहते हैं, “भाजपा हो और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण न हो, यह कैसे मुमकिन है? एक तरफ जहां पश्चिम के देशों में ब्लैक होल की पहली तस्वीर ली जा रही है, वहीं इन्होंने हमें अब भी रामनवमी और मदरसों में उलझा रखा है।” इस बार वोट किसे देंगे, इस सवाल पर प्रबीर निराशा से कहते हैं, “क्या फायदा वोट देने का, सब एक-जैसे हैं।” जबकि मेमाड़ी कस्बे में फूलों की दुकान चलाने वाले बजुर्ग शोम मालाकार वोट देने के सवाल पर मुस्कुराते हुए कहते हैं, “अभी मैंने इस बारे में कुछ सोचा नहीं हैं, पर भाजपा को तो नहीं दूंगा।” इसका कारण पूछने पर वे साफ कहते हैं, “पिछली बार इन्हीं को वोट दिया था, पर इन्होंने कोई वादा पूरा नहीं किया, ऊपर से नोटबंदी कर की। एटीएम की लाइन में लगे-लगे मैं एक बार बेहोश हो गया, तब सोच लिया कि भाजपा से दूर रहना है।”
हालांकि अब भी इलाके के बहुत से लोग विकास के लिए भाजपा की ओर उम्मीद से देख रहे हैं। बर्धमान जिले के कालना शहर की गृहिणी बारूनी गायेन भाजपा को अपनी पहली पसंद बताते हुए कहती हैं, “पूर्वी बर्धमान के कैंडीडेट परेश चंद्र दास ने हमारे इलाके में सुपर स्पेशियलिटी हॉस्पिटल खोलने का वादा किया है। वे पढ़े-लिखे हैं, आइसीएएस अफसर भी रह चुके हैं, इसलिए उम्मीद है कि काम करके दिखाएंगे।”
लोकसभा सीटों की बात करें, तो उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र के बाद पश्चिम बंगाल में सबसे ज्यादा 42 सीटें हैं। 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को राज्य में सिर्फ दो सीटें हासिल हुईं थीं, एक आसनसोल और दूसरी दार्जिलिंग। माना जाता है कि दार्जिलिंग की जीत गोरखा जनमुक्ति मोर्चा से मिले समर्थन के चलते हासिल हुई थी। आसनसोल में भाजपा के बाबुल सुप्रियो की जीत का कारण उनका मशहूर कलाकार होना रहा है। यही वजह है कि तृणमूल कांग्रेस की तरफ से इस बार बाबुल सुप्रियो के खिलाफ अभिनेत्री मुनमुन सेन को उतारा गया है, जो पिछली बार बांकुड़ा सीट से जीतकर लोकसभा में पहुंची थीं।
रही बात कांग्रेस और माकपा की, तो राज्य में उनका पतन लगातार जारी है। पिछले कुछ समय से दोनों दलों के बड़े नेता लगातार भाजपा या तृणमूल में शामिल होते रहे हैं। कई को तो इस बार टिकट भी दिए गए हैं। इसी साल जनवरी में मालदा उत्तर से कांग्रेस सांसद मौसम नूर तृणमूल में शामिल हो गई और माकपा के विधायक खगेन मुर्मू ने भाजपा का दामन थाम लिया। उपलब्ध जानकारी के अनुसार राज्य के लिए घोषित भाजपा उम्मीदवारों में से करीब एक-चौथाई दूसरे दलों से आए हैं। रायना गांव में सब्जियों की दुकान चलाने वाले मुजीब-उर-हक माकपा के बारे में दो-टूक लहजे में कहते हैं, “बंगाल में माकपा के नेता घर के बूढ़ों जैसे हो गए हैं, जो बस बड़बड़ाते रहते हैं पर उनकी सुनता कोई नहीं है। उनके लिए न विकास कोई मुद्दा है, न रोजगार, तो भला उन्हें कोई वोट क्यों दे? ममता बनर्जी कम-से-कम विकास की बात तो करती हैं।” वहीं, पूर्बस्थली कस्बे के अचिंत्य चकलादार माकपा को कोसते हुए कहते हैं, “वैसे तो ये लोग बड़े ईमानदार बनते हैं, पर जब प्रदेश में इनकी सरकार थी, तो कोई भी काम बिना पैसा खिलाए नहीं होता था। इसी कारण जनता ने उन्हें सत्ता से बाहर किया था। हालांकि तृणमूल के राज में भी खास बदलाव नहीं आया है।”
इसमें कोई दोराय नहीं है कि माकपा से बंगाल का मोहभंग होता जा रहा है। तभी तो 2014 के लोकसभा चुनावों में पार्टी को बंगाल की सिर्फ दो सीटें हासिल हुई थीं। 2016 के विधानसभा चुनाव के नतीजे भी इसी बात की तस्दीक करते हैं, जब माकपा को कांग्रेस से भी कम, मात्र 28 सीटें मिली थीं। माना जा रहा है कि इस बार के लोकसभा चुनाव में माकपा का पत्ता पूरी तरह साफ भी हो सकता है।
इस बात से माकपा भी अच्छी तरह वाकिफ है और शायद यही वजह है कि इस बार पार्टी वोटरों तक सीधी पहुंच बनाने के लिए गैर-पारंपरिक तरीके अपना रही है। भाजपा और टीएमसी की तरह बड़ी-बड़ी सभाएं और रोड शो करने से ज्यादा माकपा का ध्यान सीधे वोटरों के घर जाकर उन्हें वोट देने के लिए मनाने में लगा हुआ है। पार्टी संगठन में कार्यकर्ताओं की संख्या अच्छी-खासी है, इसलिए उनके लिए इस तरह प्रचार करना आसान भी है।
बहरहाल, यह देखना बेहद दिलचस्प होगा कि इन सारे पहलुओं को ध्यान में रखने वाले वोटर अपना वोट देते समय किस पार्टी के उम्मीदवार पर भरोसा जताएंगे। 23 मई के नतीजे चाहे जो आएं, तब तक आप ममता बनर्जी और भारतीय जनता पार्टी के नेताओं के बीच हर रोज होने वाली तीखी बयानबाजी का आनंद उठाइए।