भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की अगुआई वाली केंद्र सरकार विदेश नीति के मोर्चे पर अपनी कामयाबी का डंका पीटकर घरेलू राजनीति में अपनी ताकत ठोस राष्ट्रवादी के नाते बढ़ाती रही है। यह छवि प्रचारित हुई कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी वैश्विक ताकतों के विशाल आकाश में विराजमान हैं और अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प, पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा और चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग जैसे शक्तिशाली नेताओं के साथ बैठकें कर रहे हैं। 2015 में, जब ओबामा राष्ट्रपति थे और गणतंत्र दिवस परेड में मुख्य अतिथि के रूप में भारत आए थे, तो मोदी ने कूटनीतिक प्रोटोकॉल तोड़कर उन्हें उनके पहले नाम बराक से संबोधित किया था। जबकि ओबामा ने बदले में औपचारिक कूटनीतिक और थोड़े अलग अंदाज में मिस्टर प्राइम मिनिस्टर कहा था।
हालांकि कई दक्षिणपंथी लोकप्रिय नेताओं के विपरीत, मोदी अपने अंतरराष्ट्रीय बयानों में सावधानी बरतते रहे हैं और संयमित स्वर में बोलने की पूरी कोशिश करते रहे हैं। मसलन, यूक्रेन पर रूसी आक्रमण के वर्ष में उनके इस बयान को देखें कि ‘‘यह युद्ध का समय नहीं है।’’ इसे प्रबुद्ध बुजुर्ग राजनेता के विश्व की स्थिति पर प्रवचन देने के उदाहरण की तरह देखा गया था। यह घरेलू मोर्चे पर उनके अधिक कठोर बयानों के विपरीत है, जब उन्होंने 2019 में सुझाव दिया था कि नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) के खिलाफ सड़कों पर विरोध प्रदर्शन करने वालों की पहचान उनके कपड़ों से की जा सकती है, जिससे उनकी धार्मिक पहचान का संकेत मिलता है।
विदेश नीति के मोर्चे पर कथित सफलता का एक घटक मोदी की विदेश यात्राओं का सिलसिला रहा है, जहां उन्होंने वैश्विक मंच पर भारत को स्थापित करने के उद्देश्य की भावना व्यक्त की है। इस सफलता का बड़ा हिस्सा विदेश मंत्री एस. जयशंकर से जुड़ा है, जो पेशेवर राजनयिक हैं और अंतरराष्ट्रीय कूटनीति की भाषा कुशलता से बोल सकते हैं, साथ ही मोदी शासन के कुछ विशिष्ट नीतिगत तत्वों को भी व्यक्त करने की क्षमता रखते हैं। स्लोवाकिया में ग्लोबसेक 2022 फोरम में जब जयशंकर से यूक्रेन पर रूसी आक्रमण पर भारत की स्थिति के बारे में पूछा गया, तो उन्होंने कहा कि यूरोप को अपनी समस्याओं को दुनिया की समस्याओं के रूप में देखना बंद कर देना चाहिए।
मोदी की विदेश नीति के तीन विरोधाभास
ट्रम्प के 50 प्रतिशत तक टैरिफ लगाने की घोषणा से भारत की विदेश नीति की सफलताएं धूमिल हो गई हैं। भारत के मुताबिक सस्ते रूसी तेल की खरीद इसकी एक वजह है। शायद ट्रम्प भारत की आधिकारिक प्रतिक्रियाओं से नाराज हैं, जो उनके इस दावे का खंडन करती हैं कि उन्होंने इस साल मई में भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध विराम कराया था। या यह कि भारत ने नोबेल शांति पुरस्कार के लिए उनके नामांकन का पाकिस्तान की तरह समर्थन नहीं किया है। व्यक्तिगत अहंकार को छोड़ दें, तो भाजपा शासन की विदेश नीति के मूल ढांचे में एक अंतर्निहित कमजोरी है। विदेश नीति के मंच पर प्रसारित सफलताओं में तीन अलग-अलग तत्व शामिल हैं, जो अब एक-दूसरे के विरुद्ध हैं। पहला, अमेरिका के प्रति बढ़ती निकटता और उसके साथ गठबंधन। दूसरा, फरवरी 2022 से शुरू होने वाले यूक्रेन के खिलाफ रूसी सैन्य अभियानों के तुरंत बाद रूस के साथ पारंपरिक रूप से मधुर संबंधों का पुनरुत्थान। तीसरा, वैश्विक दक्षिण के नेतृत्व और ब्रिक्स की सदस्यता पर भारत का दावा। इनमें पहला तत्व सबसे लंबे समय तक जारी रहा, जिसकी शुरुआत 2014 में मोदी के प्रधानमंत्री बनने से हुई, जो ओबामा के राष्ट्रपति पद के अंतिम दो वर्षों, ट्रम्प के पहले राष्ट्रपति पद और बाइडन के राष्ट्रपति पद के पहले वर्ष में जारी रहा है।
अमेरिका के साथ बढ़ती नजदीकियों की लंबी पृष्ठभूमि है, जब हम इस बात पर विचार करते हैं कि कैसे 1998 में भारत के पोकरण परमाणु परीक्षणों के कारण अमेरिका ने उस पर प्रतिबंध लगा दिए थे। यह प्रवृत्ति तब उलट गई, जब 2001 में 9/11 हमलों के बाद आतंकवाद के खिलाफ वैश्विक युद्ध शुरू होने पर भारत वॉशिंगटन का नया सहयोगी बन गया। भारत तब भी वॉशिंगटन का मित्र बना रहा जब अटल बिहारी वाजपेयी सरकार 2004 के चुनावों में हार गई और उसके बाद मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) सरकार आई, जिसने 2008 में अमेरिका के साथ असैन्य परमाणु समझौता किया।
ट्रम्प के पहले कार्यकाल ने मोदी के प्रधानमंत्री पद पर आसीन होने के साथ अमेरिका और भारत के बीच इस बढ़ते तालमेल को और पुख्ता किया। आने वाले डेमोक्रेटिक बाइडन प्रशासन ने इस सौहार्द पर ब्रेक लगा दिया, जिसकी घोषणा करने के लिए मोदी ने कड़ी मेहनत की थी, खासकर सितंबर 2019 में टेक्सास के ह्यूस्टन में अपने ‘हाउडी मोदी’ कार्यक्रम के साथ, जहां उन्होंने खचाखच भरे दर्शकों के सामने प्रसिद्ध नारा लगाया था, ‘‘अबकी बार, ट्रम्प सरकार।’’ यह बयान एक कूटनीतिक बोझ बन गया क्योंकि यह 2020 में ट्रम्प के राष्ट्रपति पद के पुनर्निर्वाचन अभियान का समर्थन लग रहा था। इस सौहार्द पर तब और भी ज्यादा ब्रेक लग गए, जब बाइडन प्रशासन ने उम्मीद की कि भारत यूक्रेन में सैन्य कार्रवाइयों के लिए व्लादिमीर पुतिन के रूस की निंदा में पश्चिम का साथ देगा। भारत ने इस पर आपत्ति जताई और इसके बजाय रियायती दरों पर रूसी तेल का आयात शुरू कर दिया। इसने ऊपर बताए गए तीन तत्वों में से दूसरे तत्व के आगमन का संकेत दिया, मोदी की विदेश नीति ने रूस के साथ मधुर संबंधों की चिर-परिचित चमक को पुनर्जीवित कर दिया, जो शीत युद्ध के ठंडे दिनों की याद दिला रहा था।
अमेरिका की यह अपेक्षा कि भारत पुतिन के रूस की निरंकुशता के विरुद्ध अमेरिका के नेतृत्व वाले लोकतंत्रों के साथ खड़ा होगा और भारत का पुतिन के रूस के प्रति अनुकूल झुकाव, जब भारत ने अप्रैल 2022 की शुरुआत में संयुक्त राष्ट्र महासभा में 47 सदस्यीय मानवाधिकार परिषद से रूस को निलंबित करने के प्रस्ताव पर मतदान में भाग नहीं लिया, मोदी की विदेश नीति के समर्थकों ने सोचा कि सस्ता रूसी तेल खरीदने के रूप में रणनीतिक लाभ मिल गया है। तीन साल बाद, ट्रम्प द्वारा टैरिफ की घोषणा रूसी तेल खरीदने की सजा के रूप में आई है।
ट्रम्प ने भारत को दंडित करने की राह पर कदम बढ़ाया है, एक ऐसी राह हैं, जिस पर बाइडन प्रशासन ने कदम नहीं रखा। मार्च 2022 के अंत में भारत दौरे पर आए अमेरिकी उप-राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार (अंतरराष्ट्रीय अर्थशास्त्र) दलीप सिंह ने कहा था कि अमेरिका सस्ते रूसी तेल आयात के मुद्दे पर भारत के लिए कोई ‘रेड लाइन’ तय नहीं करेगा, जबकि उन्होंने स्पष्ट रूप से संकेत दिया था कि अमेरिका ‘तेज गति’ नहीं देखना चाहता। जयशंकर ने कूटनीतिक जवाब दिया, जिसने उन्हें मोदी सरकार का समर्थन करने वाले भारतीय मध्यम वर्ग का पसंदीदा बना दिया है, जब उन्होंने चुटकी लेते हुए कहा, ‘‘शायद, इस महीने हमारी कुल खरीदारी यूरोप की एक दोपहर में होने वाली खरीदारी से भी कम होगी।’’
ट्रम्प के टैरिफ का असर बुरा होने की आशंका है, जिससे स्टील और एल्युमीनियम के पुर्जे बनाने वाली फाउंड्री से लेकर सूरत में हीरा तराशने वाली इकाइयों तक, जो अमेरिकी में निर्यात करती हैं, कई भारतीय कुटीर, लघु और मझोले उद्यमों (एमएसएमई) पर असर पड़ेगा। फिर भी, भारत सरकार की प्रतिक्रिया उसके विपरीत रही है। मोदी ने ब्राजील के राष्ट्रपति लूला दा सिल्वा को फोन किया है और अगस्त के अंत में शंघाई सहयोग संगठन शिखर सम्मेलन के लिए चीन का दौरा करने वाले हैं। यह प्रतिक्रिया मोदी की विदेश नीति के तीसरे पहलू को उजागर करती है, जो भारत को वैश्विक दक्षिण, विशेष रूप से ब्रिक्स की सदस्यता के एक अग्रणी हिस्से के रूप में रेखांकित करना है।
इतिहास का दायां बाजू
मोदी के नेतृत्व में भारतीय विदेश नीति, सामान्य रूप से वैश्विक दक्षिण और विशेष रूप से ब्रिक्स सदस्य ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका द्वारा फिलस्तीन के प्रति दिखाई गई एकजुटता के संदर्भ में अपवाद बन गई है। वैश्विक दक्षिण की सदस्यता और नेतृत्व पर दावा करने के इस तीसरे पहलू का भाजपा शासन द्वारा सहारा लेना, भारत द्वारा इज्राएली कार्रवाइयों की कड़ी अस्वीकृति के अभाव के कारण खतरे में है। गाजा में चल रहे नरसंहार पर भारतीय नेताओं की आम तौर पर मौन प्रतिक्रिया के बीच, कांग्रेस सांसद प्रियंका गांधी ने हाल ही में इज्राएल द्वारा अल जजीरा के चार पत्रकारों की हत्या के खिलाफ बोलकर अपनी अलग पहचान बनाई।
मोदी की विदेश नीति, वर्षों तक बड़ी सफलता का दावा करने के बाद, खासकर डोनाल्ड ट्रम्प के साथ ‘भाईचारे’ के जरिये, अब दिशाहीन सी लगती है। दुनिया में भारत की आसन्न महानता के अतिशयोक्तिपूर्ण दावे, विदेशों में सफलता की मधुर ध्वनि पैदा करके किए गए हैं। इज्राएली प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू, जो गाजा में हमास के सफाए के लिए अपनी सैन्य कार्रवाई को सही ठहराते हैं, से लेकर अमेरिकी विश्वविद्यालय परिसरों में इज्राएली कार्रवाई का विरोध करने वालों तक, हर कोई दावा करता है कि वे सही पक्ष पर हैं। मोदी की विदेश नीति के निर्माताओं को इस बारे में सोचना चाहिए, खासकर उस विरासत के संदर्भ में जो वे अपने पीछे छोड़ जाएंगे। इतिहास के सही पक्ष को खोजने का सबसे अच्छा तरीका यह याद रखना है कि यह वह रोटी होती है, जिस पर सत्ता की ताकत से मक्खन नहीं लगाया जाता।
(जेएनयू में सेंटर फॉर पॉलिटिकल स्टडीज में प्रोफेसर, विचार निजी हैं)