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संपादक की कलम से/स्टेन स्वामी को किसने मारा?

स्वामी को सरकार के साथ-साथ न्यायपालिका ने भी बुरी तरह झटका दिया
स्टेन स्वामी

काम के भारी दबाव में उलझा पिछले पखवाड़े का वह दिन मेरे लिए कुछ ज्यादा ही परेशानी वाला था, लेकिन आदिवासी हकों के लिए अरसे से सक्रिय 84 वर्षीय स्टेन स्वामी की मौत की खबर ने उसे सबसे बुरे दिनों की फेहरिस्त में डाल दिया।

हक-हकूक से सबसे ज्यादा वंचित झारखंड के आदिवासियों के बीच अथक काम की बदौलत अनेक लोगों के प्यार और आदर के हकदार बने स्वामी की दुनिया से विदाई की कई वजहें बताई जा सकती हैं। वे बूढ़े और बीमार थे। लेकिन जिन हालात में आखिरकार उन्होंने अंतिम सांस ली, वह बेहद दुखदायी है। एल्गार परिषद मामले के सिलसिले में पिछले साल गिरफ्तार स्वामी दुनिया को अलविदा कहते वक्त राज्य की हिरासत में थे, जिसे कई लोग पहले महाराष्ट्र पुलिस और फिर एनआइए के जरिए सियासी बदले की कार्रवाई से अलग कुछ नहीं मानते। स्वामी को सरकार के साथ-साथ न्यायपालिका ने भी बुरी तरह झटका दिया, जिसके दरवाजे पर वे लगातार मदद की गुहार लगाते रहे।

स्वामी के आखिरी दिन और महीने हमें हमेशा याद दिलाते रहेंगे कि हमारी व्यवस्था में कितनी डरावनी गड़बडि़यां हैं। एनआइए ने स्वामी को अचानक उठा लिया और कैद में उनकी हालत और बिगड़ती गई। वे बार-बार मदद के लिए याचिकाएं डालते रहे या कहिए छोटी-मोटी दया की भीख मांगते रहे, लेकिन उनकी याचिकाएं बेरुखी की मोटी दीवार से टकरा कर वापस आती रहीं। इस देश में कई धनी-मानी दोषियों को बुढ़ापे के कारण सजा से छुटकारा मिल जाती रही है मगर स्वामी तो दोषी भी नहीं, आरोपी भर थे, फिर भी उन पर दया नहीं दिखाई गई। वे अपने आखिरी महीनों ऐसे जिंदा रहे कि अदने-से सिपर और स्ट्रॉ जैसी चीजों के भी मोहताज हो गए, जिससे उन्हें पानी पीने में थोड़ी सुविधा हो जाती। वे बार-बार अदालत का दरवाजा खटखटाते रहे, लेकिन थोड़ी भी राहत नहीं मिली।

दरअसल उनकी मौत की खबर जब आई तो एक अदालत उनकी नई जमानत याचिका पर सुनवाई के लिए बैठी थी। उनकी विदाई से अब हमारी न्यायपालिका को यह सोचने पर जरूर मजबूर होना चाहिए कि जब उसकी सबसे ज्यादा जरूरत थी, वह नाकारा, बेरुखी और शायद निकम्मी क्यों साबित हुई।

जरा यह सोचिए: स्वामी जिंदा रहते जमानत के लिए बार-बार अदालतों का दरवाजा खटखटाते रहे मगर कोई नहीं पसीजा। जब बॉम्बे हाइकोर्ट पहुंचे तो उसने भी जमानत की अर्जी खारिज कर दी मगर उन्हें अपने खर्चे पर इलाज कराने की छूट दे दी, जबकि वे सरकार की हिरासत में थे और पार्किंसन रोग से पीडि़त स्वामी को तालोजा जेल में कोविड संक्रमण के लक्षण दिखने लगे थे। टेस्ट में वे पॉजिटिव पाए गए और उनकी सेहत बिगड़ने लगी।

एक तो वृद्ध और गंभीर बीमारी से ग्रस्त व्यक्ति की गिरफ्तारी ही विवादास्पद है, मगर इसमें दो राय नहीं हो सकती कि वे आखिरकार हमारी असंवेदनशील व्यवस्था की बलि चढ़ गए। उनकी आखिरी इच्छा रांची भेज दिए जाने की थी, जहां वे अपने लोगों के बीच मर सकें। वह भी पूरी नहीं की गई।

अब स्वामी चले गए हैं तो जवाबदेही की मांग तो उठानी ही होगी। सबके अलावा यह तो पूछा ही जाना चाहिए कि कैसे गंभीर बीमारियों (कोमॉरबिडिटी) से ग्रस्त कैदी को जेल में कोविड संक्रमण लगा? क्या सरकार को यकीनन यह अधिकार है कि वह जिसकी जिंदगी की गारंटी नहीं दे सकती, उसे कैद में रखे? कई सारे सवाल अनुत्तरित हैं। ऐसे में सरकार को वाकई इस पर विचार करना चाहिए कि क्या उसे यह बेमानी दावा करने का भी हक है कि वह लोगों की सेवक है।

साथ ही एल्गार परिषद से जुड़े मामले जैसे कई हाइ-प्रोफाइल मामलों की नई समीक्षा जरूरी हो सकती है। मसलन, दिल्ली दंगों के सिलसिले में जाने-माने सामाजिक कार्यकर्ताओं से लेकर बौद्धिकों तक कई लोग गंभीर मगर अपुष्ट आरोपों में बंद हैं। कानूनी कार्रवाइयां तारीख-दर-तारीख झेल रही हैं और आरोपियों की जिंदगी अधर में झूल रही है।

स्वामी की मृत्यु देश में इंसाफ में देरी की वजह से नाइंसाफी की पहली घटना नहीं है। लेकिन यह बददिमाग बेरुखी दिखाने की वजह से हमेशा याद की जाएगी। इसकी समीक्षा की बेतरह दरकार है कि कैसे सरकार और अदालतों ने स्वामी को मौत की ओर ढकेल दिया। हम यह उम्मीद और प्रार्थना ही कर सकते हैं कि कोई तो इस व्यवस्था में होगा, जो इतना शर्मसार होगा कि इसकी संवेदनशीलता को वापस लाने के लिए फौरन उठ खड़ा होगा। तब तक सरकार अपने खून से सने हाथ लिए जीये...और हम अपनी सामूहिक शर्मिंदगी लिए।

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