गजब इत्तेफाक है कि दिल्ली में जब-जब वसंत आता है, चुनाव को साथ लेकर आता है। गली कासिम जान में बैठे मिर्जा गालिब ने डेढ़ सौ साल पहले जब कहा था कि सर-ए-आगाज-ए-मौसम में दिल्ली को छोड़कर लाहौर जाने वाला कोई अंधा ही होगा, तब यहां चुनाव नहीं हुआ करते थे। ऐसा लगता है कि देश आजाद होने पर जो गणतंत्र बना और यहां संवैधानिक लोकतंत्र आया वह था तो सबकी नजरों की बेहतरी के लिए ही, पर उसने हर मौसम में आंखों पर पट्टी बांध कर दिल्ली में जीने की सहूलियत पैदा कर दी। वरना और क्या वजह हो सकती है कि पिछले वसंत में गालिब के चांदनी चौक से इच्छामृत्यु के लिए उठी दो सौ दलित परिवारों की आवाज इस वसंत तक भी सियासतदानों के कान तक नहीं पहुंची, उनकी आंखों में पानी नहीं ला सकी। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की राजधानी में अगर कुछ लोगों को सामूहिक खुदकशी के लिए राष्ट्रपति को चिट्ठी लिखनी पड़ जाए, तो चुनावी लोकतंत्र के लिए इससे बड़ी शर्म कुछ नहीं हो सकती।
आप का घोषणा-पत्र जारी करते आतिशी, मनीष सिसोदिया, केजरीवाल और संजय सिंह
इस वसंत खैबर पास मेस चौरासी लाइन के लोगों को साल भर हो जाएगा जब उन्होंने राष्ट्रपति को चिट्ठी लिखकर इच्छामृत्यु मांगी थी। राष्ट्रपति भवन से महज 12 किलोमीटर दूर सिविल लाइंस से सटा यह इलाका चांदनी चौक की विधानसभा में आता है। इस इलाके में दलित समाज के दो सौ परिवार बीते लगभग पचास वर्षों से अधिक समय से रहते आ रहे हैं। ये परिवार अपनी तीन पीढ़ियों से सफाईकर्मी, धोबी, माली, चौकीदार जैसी सेवाएं दे रहे हैं। इनकी पहली और दूसरी पीढ़ी के लोग भारतीय सेना को ये सेवाएं दिया करते थे। इन्हीं सेवाओं के चलते भारतीय सेना के सर्वेंट क्वार्टर्स में भारत सरकार ने इनकी पहली पीढ़ी को बसाया था। पिछले साल इन्हें उजाड़ दिया गया, विस्थापित कर दिया गया। आज ये हजारों लोग सड़क पर दर-ब-दर हैं लेकिन 70 विधानसभाओं के 699 प्रत्याशियों के बीच उनकी सुनने वाला कोई नहीं है। बीते साल लोकसभा चुनाव से ठीक पहले एक मार्च को केंद्रीय आवास और शहरी मामलों के मंत्रालय के अधीन आने वाले भूमि तथा विकास विभाग ने उनके घरों पर एक नोटिस चस्पा किया था। उसमें उन्हें अपने मकान खाली करने का आदेश दिया गया था। नोटिस में उन्हें अतिक्रमणकारी और अवैध कब्जाधारी कहकर संबोधित किया गया था। बेदखली और उत्पीड़न से खुद को बचाने के लिए लोगों ने बड़ी मुश्किल से एक वकील करके दिल्ली हाइकोर्ट का दरवाजा खटखटाया, लेकिन सरकारी पक्ष कोर्ट को यह विश्वास दिलाने में कामयाब रहा कि ये लोग कभी उस जमीन पर लंबे वक्त से रहे ही नहीं।
भाजपा का राम कैलेंडर दिखाती एक महिला
लोकसभा चुनाव से पहले एक बार भाजपा सांसद प्रवीण खंडेलवाल उनसे मिलने आए थे। उन्होंने कहा था कि एक बार भाजपा की सरकार बन जाने दो, फिर दिक्कत नहीं आएगी। अबकी दिल्ली विधानसभा चुनाव के दौरान चांदनी चौक से कांग्रेस के प्रत्याशी मुद्रित अग्रवाल भी इन दलित परिवारों से मिलने गए। उनका भी यही जवाब था कि अबकी कांग्रेस की सरकार बन जाने दो, समस्या हल हो जाएगी। जिस पार्टी की दिल्ली में सरकार है, उसका कोई नुमाइंदा आज तक इन लोगों के पास नहीं आया है। सवाल है कि आम आदमी पार्टी पांच साल से दिल्ली में कर क्या रही है!
आम आदमी बनाम आप
बिलकुल यही सवाल दिल्ली के परिवहन विभाग से छह साल पहले रिटायर हुए बुजुर्ग सुंदरलाल पूछते हैं, ‘‘ये पेंशन आखिर बनाता कौन है?” जमनापार रामनगर में रहने वाले सुंदरलाल की पेंशन आज तक नहीं शुरू हुई। घर की माली हालत यह है कि वे लोगों के यहां जाकर रात का राशन मांगते फिरते हैं और एक कप चाय के लिए घंटों किसी के यहां बैठे रहते हैं। गणतंत्र दिवस से एक दिन पहले सुंदरलाल स्थानीय भाजपा विधायक के कार्यालय में इस उम्मीद से अपना नाम पता दर्ज करवाने आए थे कि अगर दिल्ली में भाजपा की सरकार आ गई, तो शायद उनकी सुनवाई हो जाए। विधायक प्रतिनिधि ने जब उन्हें बताया कि केजरीवाल सरकार ने बरसों से पेंशन रोक रखी है, तो सुंदरलाल गुस्से में बोले, ‘‘कहां रहता है ये केजरीवाल?” सुंदरलाल के पास कुल जमा एक पोटली थी। पोटली में कहीं से मांगा हुआ चावल था। कह रहे थे कि थोड़ा सा राशन और मिल जाए तो पत्नी के लिए रात के खाने का जुगाड़ हो।
जी-20 के चक्कर में गरीब-गुरबों, रेहड़ी-ठेलों को सतह से छांट कर ऊपर से सुंदर बना दी गई दिल्ली में सुंदरलाल जैसे लोग अब तलछट में भटकते मिलते हैं। खैबर पास मेस चौरासी लाइन जैसे इलाके अब नजर से ओझल किए जा चुके हैं, जहां लगभग एक दशक से सीवर ओवरफ्लो कर रहा है और गंदा पानी अक्सर घरों में जमा हो जाता है। सुंदर और हरित दिल्ली वाले बहुत से लोग नहीं जानते कि इसी शहर के देवली गांव में आज भी लोगों को टैंकर से पानी लेना पड़ता है और यहां बाकायदा टैंकर-लिंटर माफिया का राज चलता है, जिसके खिलाफ एक दलित प्रत्याशी राजाराम गौतम ‘हीरा’ भारतीय राष्ट्रवादी पार्टी से चुनाव में खड़ा है।
राजौरी गार्डेन की सभा में अमित शाह के साथ मनजिंदर सिंह सिरसा
दिल्ली के असेंबली चुनाव की असली कहानी ‘हीरा’ जैसे 421 प्रत्याशियों की उम्मीदवारी में छुपी है, जिनमें से 29 प्रत्याशी राज्यस्तरीय दलों और 254 गैर-मान्यता प्राप्त दलों से खड़े हैं जबकि बाकी 138 निर्दलीय हैं। इनमें से ज्यादातर प्रत्याशी राष्ट्रीय पार्टियों से निराशा, गुस्से और मोहभंग की पैदाइश हैं। जैसे, राजाराम भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के साथ शुरुआती दिनों से जुड़े थे और पिछले कुछ समय तक भी आम आदमी पार्टी के साथ रहे लेकिन दलितों के प्रति पार्टी के रवैये और उपेक्षा से नाराज होकर उन्होंने खुद ही एक अनाम सी पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़ना बेहतर समझा। ऐसे लोगों की लंबी फेहरिस्त है जिनके पास न तो पैसा है, न बैनर और न ही ताकत, फिर भी वे धरतीपकड़ बने हुए हैं।
बकौल राजाराम, आम आदमी पार्टी बीते पांच साल में आम आदमी से लगातार दूर होती गई है। वे कहते हैं, ‘‘मैं दस साल से लगातार अपने इलाके में माफिया के खिलाफ संघर्ष कर रहा हूं। टिकट मांगने पर हर बार वे कहते थे कि पार्षदी का चुनाव लड़ जाओ। दस साल में इन्होंने टैंकर और लैंटर माफिया पर अपनी पकड़ बना ली। जिसका राज उसका माफिया। ऐसे में मैं वहां कैसे रुक सकता था। मैंने पार्टी छोड़ दी। मेरे जैसा आम आदमी अब आप से दूर हो चुका है।’’
छतरपुर में भाटीकलां के मामराज बीते दस साल से आम आदमी पार्टी को वोट देते रहे हैं लेकिन इस बार वे नोटा दबाने की बात कह रहे हैं। यहां आप का विधायक इस बार भाजपा से खड़ा है। मामराज कहते हैं, ‘‘उसने दस साल में एक काम नहीं किया। उस पर से पैसे देकर भाजपा से टिकट ले लिया। उसे डर है कि उसने जितने पैसे कमाए हैं दस साल में, कहीं उसके ऊपर ईडी का छापा न पड़ जाए।’’ मामराज और उनके गांव के लोगों की उहापोह यह है कि वे किसे वोट दें क्योंकि आम आदमी पार्टी से जो प्रत्याशी खड़ा है वह भाजपा से आया है और विधायक के परिवार से ही है। वे कहते हैं, ‘‘अब दोनों एक ही परिवार के हैं। उसे वोट दो चाहे इसे। इससे बेहतर है नोटा दबा दूंगा। कांग्रेस इन सब से बेहतर थी, लेकिन उसका चांस नहीं दिख रहा वरना मैं उसके कैंडिडेट को ही वोट देता।’’
दलीय समीकरण
दिल्ली के आम मतदाता से इतर, राष्ट्रीय दलों का अपना-अपना चुनावी समीकरण है जिसे समझना इतना आसान नहीं है। दिल्ली में कांग्रेस और भाजपा दोनों के प्रत्याशियों के लिए तीन विधानसभाओं में चुनाव प्रबंधन का काम कर रही एक एजेंसी के मालिक नाम न छापने की शर्त पर बताते हैं कि यह लड़ाई ऊपर से जैसी दिख रही है वैसी है नहीं। उनके मुताबिक भाजपा के एक महासचिव करोल बाग में कांग्रेस प्रत्याशी के लिए काम करने वाले लोगों से मिले थे और उन्हें खूब प्रोत्साहित किया था कि मन लगाकर काम करें। वे बताते हैं, ‘‘उन्होंने कहा कि कांग्रेस के लिए दम लगाकर काम करो। कोई जरूरत पड़े तो बताना।’’ वे आश्चर्य जताते हैं कि भाजपा का एक नेता कांग्रेस के प्रत्याशी को चुनाव लड़वाने में इतनी दिलचस्पी क्यों ले रहा है। नई दिल्ली से कांग्रेस प्रत्याशी संदीप दीक्षित ने हाल ही में एक इंटरव्यू में कहा कि उनके पास कम से कम तीन मौकों पर भाजपा की ओर से पार्टी में आने का न्योता मिला था। इन्हीं सब कारणों से एक बात दिल्ली की चुनावी फिजा में धड़ल्ले से तैर रही है कि आम आदमी पार्टी को इस बार उखाड़ने के लिए भाजपा और कांग्रेस मिलकर चुनाव लड़ रहे हैं, हालांकि कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष देवेंद्र यादव इससे साफ इनकार करते हैं (देखें, देवेंद्र यादव का इंटरव्यू)। वे कहते हैं कि आम आदमी पार्टी और भाजपा दोनों की समान शत्रु कांग्रेस है, इसलिए ऐसा कहना ठीक नहीं है।
भाजपा के नेता इस सवाल पर बस इतना कहते हैं कि कांग्रेस अगर आम आदमी पार्टी के वोट काटेगी तो फायदा भाजपा को ही होगा क्योंकि कांग्रेस के पुराने वोटबैंक को ही आम आदमी पार्टी ने बीते कुछ वर्षों में कब्जाया है। जहां तक आम आदमी पार्टी के विधायकों और प्रत्याशियों की बात है, एकाध को छोड़कर ज्यादातर का कोई स्वतंत्र वजूद नहीं है क्योंकि वे सभी केजरीवाल के चेहरे पर चुनाव लड़ते आए हैं। छतरपुर के मामराज बताते हैं कि सहीराम पहलवान जैसे एकाध विधायकों को छोड़ दें, तो बाकी किसी की अपनी कोई हैसियत नहीं है। दिल्ली सरकार में मंत्री रह चुके दलित नेता राजेंद्र पाल गौतम का मानना है कि केजरीवाल की निजी छवि को जो नुकसान पहुंचा है उसके कारण अब उनके विधायकों का जीतना मुश्किल है (देखें, राजेंद्र पाल गौतम का इंटरव्यू)।
उत्तर-पूर्वी दिल्ली से आम आदमी पार्टी के एक प्रत्याशी खुद इस बात को मानते हैं कि उनके चुनाव लड़ने से कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि सरकार के पास दिल्ली में पिछले पांच साल से कोई पावर ही नहीं है। इसलिए वे जीत भी गए तो उन्हें भरोसा नहीं है कि वे पार्टी में रहेंगे, हालांकि यह बात वे दबी जुबान में कहते हैं। उनका चुनाव मैनेज कर रहे उनके एक करीबी मित्र और प्रबंधक की मानें, तो ‘‘दिल्ली में आम आदमी के कोई दर्जन भर से ज्यादा विधायक ऐसे हैं जो चुनाव के बाद अगर जीत गए तो अपनी बोली लगाए जाने का इंतजार कर रहे हैं।’’
वे बताते हैं, ‘‘उत्तरी दिल्ली से एक विधायक इस बार आप से टिकट नहीं चाहते थे लेकिन पार्टी ने उन्हें जबरदस्ती यह कह कर चुनाव में उतार दिया जब जीतने की बारी थी तब तो कुछ नहीं बोले और जब हारने का मौका आया है तब भाग रहे हो।’’ उनके मुताबिक आप अगर चालीस से ऊपर सीटें भी ले आई तो जरूरी नहीं है कि वह सरकार बना ही पाए क्योंकि विधायकों की आप की सरकार में रहने में कोई दिलचस्पी नहीं बची है। इसके पीछे एक वजह पिछले वर्षों में आप के बड़े नेताओं को अलग-अलग मामलों में हुई जेल और काम करने से रोका जाना है, जिसने कार्यकर्ताओं और नेताओं के मनोबल को तोड़ने का काम किया है।
क्या चुनाव के बाद उन्हें फिर से जेल हो सकती है? इस सवाल पर दिल्ली सरकार में पूर्व मंत्री और शकूर बस्ती से प्रत्याशी सत्येंद्र जैन बहुत उदासीन ढंग से जवाब देते हैं, ‘‘वो अपना काम कर रहे हैं, हम अपना काम।’’ (देखें, सत्येंद्र जैन का इंटरव्यू)
बेकामी के पांच साल
भ्रष्टाचार-विरोधी आंदोलन का पहला धरना अन्ना हजारे ने 5 अप्रैल, 2011 को दिया था। उसकी पैदाइश अरविंद केजरीवाल को दस साल बाद 17 मार्च, 2021 को वापस जंतर-मंतर पर आना पड़ा। कारण? उनकी दिल्ली लुट चुकी थी। उस दिन केजरीवाल अपने समर्थकों के बीच मंच पर खड़े चिल्ला रहे थे:
‘‘केंद्र की भाजपा सरकार संसद में अभी तीन दिन पहले एक कानून लेकर आई है। उस कानून में लिखा है... कि अब से दिल्ली सरकार का मतलब होगा एलजी। भाईसाब फिर हमारा क्या मतलब होगा? जनता का क्या मतलब होगा? फिर आपका क्या मतलब होगा? फिर देश की जनता का क्या मतलब होगा? अगर दिल्ली सरकार का मतलब एलजी होगा तो दिल्ली की जनता कहां जाएगी? दिल्ली की जनता की चलेगी नहीं चलेगी? मुख्यमंत्री कहां जाएगा? फिर चुनाव क्यूं कराए थे? जनता लाइन में क्यूं लगी थी? जनता ने वोट क्यूं दिया था? जनता के वोट का कोई मतलब नहीं बचा? जनता के चुनाव का कोई मतलब नहीं बचा? जनता की सरकार का कोई मतलब नहीं बचा? अगर दिल्ली सरकार का मतलब एलजी है तो ये तो जनता के साथ धोखा हो गया। ये तो गलत हो गया।’’
दिल्ली राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र सरकार संशोधन कानून 2021 को राज्यसभा ने 24 मार्च 2021 को पास किया, राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने 28 मार्च को इस पर अपनी मुहर लगाई, इसके प्रावधान 27 अप्रैल को लागू हो गए, और इस तरह दिल्ली अरविंद केजरीवाल के हाथ से चली गई। यही वह निर्णायक बिंदु था जिसने 2025 के विधानसभा चुनाव की पृष्ठभूमि रची। जिस दिन केजरीवाल जंतर-मंतर पर दिल्ली की जनता से पूछ रहे थे कि अब मुख्यमंत्री कहां जाएगा, सोशल मीडिया पर लोगों ने उन्हें याद दिलाया कि कश्मीर के जब दो टुकड़े किए गए और वहां से अनुच्छेद 370 और 35ए हटाया गया तब केजरीवाल के संवैधानिक मूल्य कहां चले गए थे। तब उनकी संघीयता कहां सोयी पड़ी थी, जो उन्होंने आंख बंद कर के कश्मीर पर केंद्र के फैसले का समर्थन कर दिया था? अब, जब अपनी जमीन लुट रही है, तो कैसा रोना-पीटना?
सीलमपुर की सभा में राहुल गांधी
वे बेशक अब भी दिल्ली के मुख्यमंत्री थे, लेकिन किस काम के? अपने हाथ से दिल्ली की पावर छिनने पर उन्होंने जो ‘काम’ किए उस पर एक नजर डाल लेनी चाहिए। उन्होंने दिल्ली के स्कूलों में एक ‘देशभक्ति पाठ्यक्रम’ शुरू किया ताकि बच्चों को देशभक्त बनाया जा सके। उन्होंने दिल्ली के बुजुर्गों से वादा किया कि अयोध्या में राम मंदिर बन जाने पर वे उन्हें मुफ्त दर्शन करवाएंगे। मुसलमानों को उन्होंने अजमेर शरीफ और सिखों को करतारपुर साहिब का मुफ्त दर्शन करवाने का वादा किया था। अक्टूबर में वे खुद अयोध्या होकर आए। फिर अपने जन्मदिन पर बालाजी सालासर गए और वहां की तस्वीरें प्रचारित कीं। उत्तराखण्ड में वे वादा कर बैठे कि जीतेंगे तो जनता को तीर्थयात्रा मुफ्त में करवाएंगे। गोवा के मतदाताओं को भी वे मुफ्त तीर्थ का वादा कर आए। फिर यूपी में 300 यूनिट मुफ्त बिजली और पंजाब में हर महिला मतदाता को 1000 रुपये प्रतिमाह का वादा कर के आए। और इस बार दिल्ली में उन्होंने पंडों और ग्रंथियों के लिए वेतन का ऐलान कर दिया है।
मतलब वे जहां सत्ता में थे वहां उनके पास करने को कुछ खास नहीं था और जहां-जहां सत्ता में नहीं थे वहां उन्होंने मुफ्त के वादे किए। पिछले असेंबली चुनावों के बाद हालांकि सबसे बड़ी विडम्बना यह रही कि जिन्हें वे कभी भ्रष्ट मानते और कहते थे आज केंद्रीय राजनीति में इंडिया अलायंस के भीतर उन्हीं के साथ हैं। उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के साथ चुनावी गठजोड़ की कोशिशों के दौरान लोगों ने सोशल मीडिया पर उन्हें याद दिलाया था कि बरसों पहले सबसे भ्रष्ट नेताओं की अपनी सूची में वे मुलायम सिंह यादव को रख चुके हैं। दिल्ली में तो शुरुआत में ही वे कांग्रेस की मदद से 2013 में सरकार बना चुके थे। फिर कर्नाटक में जेडीएस के कुमारस्वामी के शपथ ग्रहण में वे जा पहुंचे (2018) जिन्हें उन्होंने कभी अपनी सबसे भ्रष्ट नेताओं की सूची में डाला था। उसके बाद उन्होंने ममता बनर्जी की रैली में शरद पवार के साथ भी मंच साझा कर लिया (2019)। पवार भी उनके मुताबिक सबसे भ्रष्ट नेताओं में थे। कह सकते हैं कि अरविंद केजरीवाल की राजनीति का कांटा दस साल में 2021 तक आते-आते पूरा एक चक्कर घूम गया। फिर उसी साल के अंत में एक ‘टर्निंग प्वाइंट’ आया जिसे शराब घोटाला कहा गया (देखें जितेंद्र महाजन का साक्षात्कार)।
दिल्ली का वाटरलू
दिल्ली का कथित शराब घोटाला सामने आने के बाद सबसे बड़ा तंज जो अरविंद केजरीवाल की सरकार पर किया गया वो यह था कि जिसने राजधानी में शिक्षा की कमान संभाल रखी थी वही शराब के ठेके भी खुलवा रहा था। घोटाले में जेल गए मंत्री मनीष सिसोदिया को लेकर लोगों में बैठी यह धारणा इतना असर कर गई कि इस चुनाव में उन्हें पटपड़गंज से हटाकर जंगपुरा भेज दिया गया, जहां उनकी जंग और कठिन हो गई है।
सिसोदिया के आवास पर 2022 में पड़े सीबीआइ के छापे के महज दो दिन बाद कांस्टिट्यूशन क्लब में कांग्रेस नेता राहुल गांधी के साथ स्वयंसेवी संस्थाओं, जन आंदोलनों और नागरिक समाज के प्रतिनिधियों की एक अहम बैठक हुई। यह बैठक कांग्रेस की प्रस्तावित ‘भारत जोड़ो यात्रा’ के संबंध में थी। जिस नागरिक समाज ने 2011 में अरविंद केजरीवाल को अपनी गोद में बैठाया था, उसके लिए भूल-सुधार का यह निर्णायक अवसर था। नतीजा, 22 अगस्त 2022 को एक समूचे तबके की घर वापसी हो गई जो दिल्ली में मतदाताओं के बड़े तबके को प्रभावित कर सकता है।
इसके ठीक हफ्ते भर बाद 29 अगस्त 2022 को दिल्ली विधानसभा में केजरीवाल का लाया ‘ट्रस्ट वोट’ और उसी रात उपराज्यपाल विनय कुमार सक्सेना के खिलाफ ‘आप’ के विधायकों का संगीतमय धरना इस बात के अप्रत्यक्ष संकेत दे रहा था कि आम आदमी सत्ता का इकबाल कमजोर पड़ चुका है, भले उसका बहुमत कायम हो। वरना क्या वजह थी कि केजरीवाल को अपने विधायकों का विश्वास बाकायदा प्रस्ताव लाकर जांचना पड़ा?
सिसोदिया की गिरफ्तारी और विश्वास मत के नाटक से काफी पहले ही शराब के निजी ठेकों को लेकर पूरी दिल्ली में आंदोलन चला था। जमनापार के रोहतास नगर से लेकर सुभाष नगर तक रिहायशी इलाकों में ठेके खोले जाने के खिलाफ औरतों ने कमान संभाली, तो आप के अपने नेता ही उसके दबाव में फिरंट हो गए। नवंबर 2021 में भाजपा के नेताओं के साइकिल मार्च और घेराव से शुरू हुआ आंदोलन अगस्त 2022 में आम आदमी पार्टी की कतारों तक पहुंच गया, जब पार्टी के एक पार्षद मनोज नागपाल सहित कई छोटे नेताओं-कार्यकर्ताओं को इस्तीफा देना पड़ा (देखें आउटलुक का सितंबर 2022 का अंक)। आउटलुक ने उस समय पार्टी से बागी हो चुके एक पुराने नेता विनीत उपाध्याय का बयान छापा था कि, ‘भ्रष्टाचार-विरोधी पार्टी ने भ्रष्टाचार को अब स्वीकार कर लिया है।'
कथित शराब घोटाला सामने आने के बाद से लेकर अब तक दिल्ली में जो कुछ घटा है, वह बेकामी और अविश्वास का एक ऐसा प्रसंग है जिससे बनी धारणा के ऊपर यह समूचा चुनाव टिका हुआ है। आप के नेताओं का मानना है कि शराब घोटाले में हुई गिरफ्तारियों से पार्टी को जनता की सहानुभूति मिली है जबकि कांग्रेस और भाजपा के नेताओं का मानना है कि इससे अरविंद केजरीवाल की निजी छवि को बहुत धक्का पहुंचा है। यह 8 फरवरी को आने वाले चुनाव नतीजे तय करेंगे कि दिल्ली के नेपोलियन के लिए शराब घोटाला वाटरलू साबित होता है या नहीं।
जमीनी हालात
दिल्ली एक ऐसा शहर या राज्य है जहां की जनांकिकीय स्थिति लगातार बदलती रही है, और उसी ने यहां की सत्ता तय की है। दिल्ली को पांच दशक से जानने वाले, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की पहली पीढ़ी से निकले शिक्षाविद् अनिल चौधरी बताते हैं, "दिल्ली तीन चरणों में बदली है। आजादी के बाद दिल्ली का सभी दिशाओं में जब विस्तार हुआ और विस्थापित बसाये गए, तो साठ से अस्सी के दशक में पंजाबियों और जनसंघ का दबदबा रहा। फिर एशियाई खेलों के लिए हुए निर्माण कार्य के लिए बड़ी संख्या में मजदूरों ने दिल्ली का रुख किया। उनके यहीं बस जाने से दिल्ली के समीकरण बदले और आजादी के बाद से कायम विभाजन-पीड़ितों के दबदबे को चुनौती मिली। लिहाजा, यूपी-बिहार यानी पूरब की राजनीति चालू हुई। इसके बाद तीसरा चरण आइटी सेक्टर के उछाल से आई मध्यवर्गीय बसावट का था, जिसने आम आदमी पार्टी के लिए सत्ता की जमीन बनाई।"
आज 1.55 करोड़ को पार कर चुकी दिल्ली की आबादी में दब चुकी पुरानी पहचानें फिर से उछाल मार रही हैं। इस चुनाव में जाटों और पूर्वांचलियों का मुखर स्वर बताता है कि सतह के नीचे दिल्ली में पहचानें टकरा रही हैं (देखें, आउटलुक का पिछला अंक)। इसके बावजूद, मोटे तौर से दो बातें इस चुनाव में मतदाताओं की ओर से सुनने में आ रही हैं। एक, दिल्ली का दलित मतदाता आम आदमी पार्टी के साथ ही जाएगा और दूसरे, मुस्लिम मतदाता अब आम आदमी पार्टी से पलट कर कांग्रेस की ओर खिसक रहा है।
ओखला में रहने वाले दिल्ली के पुराने पत्रकार सुलतान भारती कहते हैं कि मुसलमानों के वोटिंग पैटर्न में इस बार बदलाव देखने को मिलेगा। वजीराबाद निवासी सामाजिक कार्यकर्ता अहमर खान का कहना है, ‘‘वजीराबाद और संगम विहार को छोड़ दें, तो कहीं भी मुस्लिम आबादी इतनी निर्णायक नहीं है कि किसी पार्टी को अपने दम पर सीट जितवा दे। परिसीमन के बाद आबादी को इस तरह से बांट दिया गया है कि मुसलमान चाह कर भी कांग्रेस का खाता अपने दम पर नहीं खुलवा सकते, फिर भी कांग्रेस कुछ वोट जरूर ले जाएगी जिससे भाजपा को लाभ मिलेगा।’’
सबसे चौंकाने वाले आकलन नई दिल्ली विधानसभा सीट के मिल रहे हैं, जहां थोड़े से दलितों को छोड़ दें तो ज्यादातर सरकारी कर्मचारी निवास करते हैं जिन्हें मुफ्त बिजली-पानी आदि की खास जरूरत नहीं होती। यहां कांग्रेस के एक पुराने विधायक की तीसरी पीढ़ी से आने वाले सामाजिक कार्यकर्ता मयंक का कहना है कि बाजी पलट भी सकती है। वे कहते हैं, ‘‘नई दिल्ली की सीट अगर केजरीवाल ने जीती भी, तो मार्जिन बहुत कम होगा।’’ दिल्ली की मुख्यमंत्री आतिशी की कालकाजी सीट भी फंसी हुई बताई जा रही है, जहां से भाजपा के नेता रमेश बिधूड़ी खड़े हैं। जंगपुरा में मनीष सिसोदिया फंसे हुए हैं। अकेले शकूर बस्ती से सत्येंद्र जैन और मालवीय नगर से सोमनाथ भारती की सीट अपेक्षाकृत सुरक्षित मानी जा रही है।
पांच फरवरी को होने वाले मतदान के नतीजे इस बात से तय होंगे कि आखिरी के पांच-छह दिनों में किसकी हवा बन पाती है। भाजपा के लिए हवा बनाने में आरएसएस इस बार खुलकर काम कर रही है। दावा है कि पांच महीने पहले से ही उसके विस्तारक शहर की विधानसभाओं में डेरा डाले हुए हैं और हर विधानसभा में पन्ना प्रमुखों के सम्मेलन लगभग पूरे हो चुके हैं। उधर, गणतंत्र दिवस से पहले सदर, मुस्तफाबाद और मादीपुर की तीन रैलियों से राहुल गांधी के लगातार गायब रहने को लेकर अटकलें जोरों पर हैं कि कांग्रेस इस बार का चुनाव बहुत ‘साइलेंट’ खेल रही है ताकि लड़ाई भाजपा और आप के बीच ही बनी रहे। जहां तक आप की बात है, वह खुद को पहली बार चौतरफा फंसा और घिरा हुआ पा रही है।
चुनावी रंग
. प्रचार में अपने विरोधियों को निशाना बनाने के अजब-गजब लतीफे चल रहे हैं। उत्तरी दिल्ली के एक प्रत्याशी के बारे में सत्ताधारी पार्टी के उसके विरोधी यह कहानी घूम-घूम कर सुना रहे हैं कि वह अमेरिका से आया तो लोगों ने उसे कहा कि किसी ऐसे क्षेत्र को पकड़ो जिसके नाम में बस्ती लगा हो, तो पैसा झोंक के चुनाव जीत लोगे। प्रत्याशी ने ऐसा ही किया और नाम में ‘बस्ती’ लगी हुई विधानसभा को लड़ने के लिए चुन लिया। बाद में पता चला कि जिस बस्ती के कारण उस सीट का ऐसा नाम पड़ा था वह बस्ती तो परिसीमन में दूसरी असेंबली में चली गई और बस्ती की जगह बच गईं आरडब्लूए की पॉश कॉलोनियां।
. जमनापार के पटपड़गंज से आम आदमी पार्टी का उम्मीदवार कोचिंग चलाने वाले कारोबारी अवध ओझा को बनाया गया है। उन्हें मनीष सिसोदिया की वीआइपी सीट से ही टिकट क्यों दिया गया इसके पीछे का कारण यह बताया जा रहा है कि उक्त विधानसभा क्षेत्र में प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करने वालों की अच्छी-खासी तादाद रहती है। प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करने वाले छात्रों की इस मामले में अलग ही राय है। अव्वल तो, ज्यादातर 18 साल से ऊपर के युवा यहां के वोटर ही नहीं हैं। जो हैं भी, उनका कहना है कि अगर ओझा सर वोट के बदले कुछ छूट दें अपनी कोचिंग में, तब तो उन्हें वोट देने का मतलब है वरना फोकट में...
. दक्षिणी दिल्ली से भाजपा के एक नेता अपने प्रत्याशी का प्रचार करने निकले थे। सभा में उन्होंने ‘बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ’ के नारे पर अरविंद केजरीवाल की खिंचाई करनी शुरू कर दी। काफी देर तक उन्होंने महिलाओं के बारे में अपनी वीरता का जब बखान कर लिया, तो एक संवाददाता ने उन्हें याद दिलाया कि यह नारा केजरीवाल का नहीं, नरेंद्र मोदी का है। उसके बाद नेताजी झेंप गए और बोले- मैं नरेंद्र मोदी से भी कहना चाहता हूं नारे से काम नहीं चलेगा...।