मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की सरकार ने बिहार में जाति गणना की कवायद शुरू कर दी है। सात जनवरी से शुरू हुए इस अभियान के पंद्रह दिनों के पहले चरण में मकानों की गिनती होगी जबकि 1 अप्रैल से 30 अप्रैल तक चलने वाले दूसरे चरण में लोगों से उनके स्किल (कौशल) के साथ-साथ जाति भी पूछी जाएगी। इस बड़े अभियान में लगभग 500 करोड़ रुपये खर्च होने का अनुमान है और लगभग दो लाख कर्मी इसमें भाग लेंगे। इसी वर्ष इसकी रिपोर्ट भी आ जाएगी। नीतीश के अनुसार, जाति गणना से राज्य सरकार को नीति निर्धारण करने और प्रदेश में हर तबके का उत्थान करने की दिशा में काफी मदद मिलेगी।
गौरतलब है, बिहार में सभी जातियों की गणना आखिरी बार ब्रिटिश शासनकाल के दौरान 1931 में हुई थी। वर्ष 2011 में केंद्र में मनमोहन सिंह की सरकार के कार्यकाल के दौरान सामाजिक-आर्थिक जाति सर्वेक्षण (एसईसीएस) तो हुआ लेकिन डेटा में आई खामियों का हवाला देकर बाद में जातियों की मौजूदा संख्या को सार्वजनिक नहीं किया।
बिहार में यह मुद्दा उसके बाद हर चुनाव में उभरता रहा है। इसी कड़ी में वर्ष 2021 में नीतीश के नेतृत्व में एक सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल देश भर में जाति गणना करवाने की मांग लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मिला, लेकिन केंद्र से मांग खारिज किए जाने के बाद बिहार सरकार ने अपने स्तर पर राज्य में जाति गणना करवाने की घोषणा की।
बिहार के उप-मुख्यमंत्री तेजस्वी यादव भी जाति मतगणना के पक्ष में
सत्ता के गलियारों में नीतीश के निर्णय के राजनीतिक मायने निकाले जा रहे हैं। सियासी जानकारों का मानना है कि अगले चुनाव के लिए बिहार में सत्तारूढ़ गठबंधन का एजेंडा निश्चित हो गया है। उनका कहना है कि जनता दल-युनाइटेड और राष्ट्रीय जनता दल अपने सभी सहयोगी दलों के साथ अगले लोकसभा और विधानसभा चुनावों में इसे एक बड़ा मुद्दा बनाकर भारतीय जनता पार्टी को घेरने की कोशिश की रणनीति के तहत यह कर रहा है।
जाहिर है, इस पर अभी से विवाद शुरू हो गए हैं। बिहार में हो रही जाति गणना के लिए जारी नीतीश सरकार की अधिसूचना को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई है जिस पर इसी महीने सुनवाई होनी है। सामाजिक कार्यकर्ता अखिलेश कुमार द्वारा दायर याचिका में कहा गया है कि बिहार सरकार का फैसला अवैध, मनमाना, तर्कहीन और असंवैधानिक है, जिसके जरिये प्रदेश में जातिगत दुर्भावना पैदा करने की कोशिश की जा रही है। याचिकाकर्ता ने इस फैसले पर तत्काल रोक लगाने की मांग की है।
नीतीश इस तरह के विरोध पर आश्चर्य प्रकट कर रहे हैं। उनका कहना है कि जाति गणना पर विवाद पैदा करने का औचित्य उन्हें समझ में नहीं आ रहा है। मुख्यमंत्री मीडिया से कहते हैं, “इसका कोई मतलब नहीं है। इस पर ऐतराज क्यों है, यह मेरी समझ से परे है। गरीबों के उत्थान के लिए ही यह हो रहा है। सभी पार्टियों की सहमति से हो रहा है।”
यह सही है कि बिहार विधानमंडल से जाति गणना का प्रस्ताव दो बार सर्वसम्मति से पारित करवा के 2019 और 2020 में केंद्र सरकार को भेजा गया था। इस प्रस्ताव को भाजपा का भी समर्थन प्राप्त था और बाद में पार्टी इस संबंध में प्रधानमंत्री से मिलने वाले प्रतिनिधिमंडल में भी शामिल थी। इसके बावजूद विरोधी दलों का मानना है कि भाजपा शुरू से ही जाति गणना के पक्ष में नहीं रही है।
जाति आधारित मतगणना शुरू करा कर बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने चला मजबूत दांव
भाजपा के वरिष्ठ नेता सुशील कुमार मोदी ऐसे आरोपों को सिरे से खारिज करते हैं। उनका कहना है कि भाजपा जाति गणना के पक्ष में 100 प्रतिशत है। उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में इसके विरोध में दायर याचिका के खिलाफ बिहार सरकार को मजबूती से लड़ने की सलाह दी है। उन्होंने यह भी कहा कि भाजपा चाहती है कि इस मुद्दे पर सरकार एक सर्वदलीय बैठक बुलाए जिसमें इससे जुड़े तमाम तथ्यों को स्पष्ट किया जाए।
यह सही है कि भाजपा ने बिहार में जाति गणना के मुद्दे पर अपना समर्थन दिया है, लेकिन पूर्व में प्रदेश के नेता अपने स्तर पर इसका लगातार विरोध करते रहे हैं। उनके अनुसार प्रदेश में सिर्फ दो जातियां अमीर और गरीब हैं और जाति गणना कराने का कोई औचित्य नहीं है। 2015 के विधानसभा चुनाव के ठीक पहले नीतीश के राजद अध्यक्ष लालू यादव से हाथ मिलाने के बाद लगातार बदलती राजनीतिक परिस्थितियों में उसने अपना रुख बदला। जानकारों के अनुसार, नीतीश और लालू जाति गणना को गरीबों के हित के लिए निहायत जरूरी बताकर भाजपा को इसके विरोधी के रूप में चित्रित कर रहे हैं।
जाहिर है, ऐसे प्रदेश में जहां चुनावी राजनीति की धुरी जातिगत समीकरणों के इर्द-गिर्द दशकों से घूमती रही है, भाजपा अपनी छवि इस गणना के विरोधी के रूप में दिखाने का खतरा नहीं मोल ले सकती।
नब्बे के दशक की शुरुआत में लालू ने केंद्र में तत्कालीन वी.पी. सिंह सरकार द्वारा मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू करने के बाद ओबीसी और अन्य पिछड़ी जातियों को गोलबंद करके लंबे समय तक सत्ता में बने रहने में सफलता पाई थी। अब भाजपा फिर से लालू या उनके सहयोगी नीतीश को वैसा मौका देना नहीं चाहती। यही नहीं, पिछले आठ-नौ वर्षों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व के कारण भाजपा ने बिहार सहित देश की पिछड़ी जातियों में अपनी पैठ बढ़ाई है जिसे वह खोना नहीं चाहती।
विपक्षी पार्टियां भाजपा पर लगातार हमलावर हैं और पार्टी पर जाति गणना रोकने के लिए कोर्ट केस सहित तमाम तरह के अड़ंगे लगाने का आरोप लगा रही हैं। बिहार के उप-मुख्यमंत्री तेजस्वी प्रसाद यादव पूछते हैं कि जाति गणना गलत कैसे है। वे कहते हैं, “यह जाति आधारित सर्वे है जिसे कई राज्यों ने अपने स्तर पर कराया है। इससे लोगों की आर्थिक स्थिति का पता चलेगा और यह कल्याणकारी योजनाओं को सटीक तरीके से लागू करने के लिए जरूरी है। इससे बहुत फायदा होगा।”
ऐसी ही दलील तेजस्वी के पिता लालू यादव वर्षों से दे रहे हैं। केंद्र सरकार द्वारा 2011 में कराए गए आर्थिक-सामाजिक सर्वेक्षण के जाति संबंधित आंकड़ों को बाद में भाजपा सरकार द्वारा सार्वजनिक न करने के विरोध में लालू ने 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव से पहले इस मुद्दे को पुरजोर तरीके से उठाया था। उन्होंने कहा था कि सरकार जानवरों की गिनती करवा कर रिपोर्ट सार्वजनिक कर सकती है लेकिन एक साजिश के तहत जातियों की वर्तमान संख्या बताने से परहेज कर रही है। लालू के मुताबिक, 1931 की जाति गणना में ओबीसी की संख्या 54 प्रतिशत थी और अगर उनकी संख्या फिलहाल 60 फीसदी भी पहुंची हो तो अनुसूचित जाति और जनजाति के 30 प्रतिशत को मिलाकर पिछड़ी आबादी की संख्या अब लगभग 90 प्रतिशत होनी चाहिए। इसलिए जाति गणना, उनके अनुसार समय की मांग है ताकि न सिर्फ गरीबों की संख्या का पता चले, बल्कि उनके लिए उनकी संख्या के मुताबिक कल्याणकारी योजनाएं बनाई जा सकें। लालू ने उस समय अपनी मांग को लेकर पटना में राजभवन तक मार्च भी किया और मंडल से भी बड़ा आंदोलन शुरू करने की चेतावनी दी थी।
वर्ष 2017 में नीतीश के महागठबंधन से बाहर होकर भाजपा से फिर संबंध जोड़ने के बाद राजद ने इस मांग को दोबारा दोहराया, जिसके बाद नीतीश सरकार ने विधानमंडल से दो बार इसका प्रस्ताव पारित करवा कर केंद्र सरकार को भेजा ताकि सिर्फ राजद को इसका सियासी लाभ न मिल सके।
अब नीतीश और लालू फिर एक साथ आ गए हैं और अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव के मद्देनजर अब यह मामला फिर तूल पकड़ने लगा है। समाजशास्त्रियों का मानना है कि जाति गणना के माध्यम से समाज के वंचित तबकों की वास्तविक संख्या पता लगने से सरकार और नीति-निर्धारकों को उनके लिए कल्याणकारी योजनाएं बनाने में अवश्य मदद मिलती है, बशर्ते इसे सिर्फ सियासी वजहों से न किया जा रहा हो।
बहरहाल, राजनैतिक विश्लेषकों के अनुसार इस पूरी कवायद को प्रदेश की चुनावी राजनीति से अलग कर के नहीं देखा जा सकता। चाहे जो भी हो, नीतीश सरकार के इस फैसले का असर बिहार में होने वाले आगामी चुनावों पर नहीं होगा, ऐसा तो फिलहाल नहीं कहा जा सकता।