यह 28वां विश्व पुस्तक मेला है। इसका शीर्षक है ‘गांधी: राइटर्स राइटर’ यानी गांधी लेखकों के लेखक। यह वर्ष राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की 150वीं जयंती मना रहा है। विश्व पुस्तक मेले को इसी थीम पर सजाया गया। मौजूदा अति-राष्ट्रवाद के हल्ले में आप गांधी को नए सिरे से पढ़ना और यह जानना चाहते हैं कि आखिर, क्यों गांधी दुनिया भर के लेखकों के इतने प्रिय हैं, तो पुस्तक मेले में आपको यह खास अवसर उपलब्ध है, बशर्ते आप यहां बेमतलब की साज- सजावट में गांधी और बनावटी स्वदेशी को न तलाश करने लगें। यहां अलग-अलग भाषाओं में महात्मा गांधी, उनके जीवन, घटनाओं और विचारों पर आधारित 500 से ज्यादा पुस्तकें हैं।
हिंदी के पाठकों के लिए हर बार की तरह इस बार भी यहां आइएएस कैसे बनें, रहस्यमयी प्रेम और कत्ल की कथाओं से सजे स्टॉल भी दिखाई दिए। मेला है, यहां बाजार को रुचने वाली हर चीज रखी जाती है। बच्चों की शिक्षा को मनोरंजक बनाने के नाम पर अब वे खिलौने भी मिलने लगे, जिन्हें कभी देहाती जोनर का समझा जाता था। ढेरों राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय प्रकाशकों के बीच एक बार फिर वे प्रकाशक यहां हैं जो कई वर्षों से पाठकों का विश्वास बनाए हुए हैं। हर बार अपने पाठकों को कुछ नया और रोचक देने के आग्रह के साथ ही हिंदी के प्रकाशक कई युवा और वरिष्ठ लेखकों के नए कहानी संग्रह, कविता संग्रह और उपन्यास तो लेकर आए ही हैं, इसके साथ ही उन्होंने युवा पाठकों के बदले हुए रुझान को भी समझा है।
बदल रहा है रुझान
राजकमल प्रकाशन समूह के प्रबंध निदेशक अशोक माहेश्वरी कहते हैं, “साहित्य का पाठक कभी कम नहीं होता। पर पिछले कुछ वर्षों में साहित्येतर यानी नॉन-फिक्शन के पाठकों में बढ़ोतरी देखी गई है। अनूदित किताबों के साथ यात्रा वृत्तांतों ने भी पाठकों की रुचि बढ़ाई है। हिमालय संबंधी यात्रा वृत्तांतों दर्रा दर्रा हिमालय और दरकते हिमालय पर दर बदर से चर्चित हुए लेखक अजय शोडानी इस वर्ष अपनी कच्छ यात्राओं का रोचक वर्णन लेकर आए हैं इरिनालोक शीर्षक से। साहित्येतर में ही विभूति नारायण रॉय की किताब हाशिमपुरा 22 मई भी उल्लेखनीय है। अपनी भाषा से इतर के साहित्य को पढ़ने और जानने में अनुवाद महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। पिछले वर्ष नरेंद्र दाभोलकर की अनूदित किताबें खूब पसंद की गईं, वहीं इस बार ठाकरे कजन्स का हिंदी अनुवाद ठाकरे बंधु के नाम से राजकमल ने प्रकाशित किया है। मैक्समुलर की किताब का हिंदी अनुवाद भारत हमें क्या सिखा सकता है भी इसी शृंखला की एक और उल्लेखनीय किताब है। नवजागरण काल में भाषायी विवाद की पड़ताल करती इस किताब का अनुवाद सुरेश मिश्र ने किया है। कॅरिअर संबंधी किताबों का भी पाठक लगातार बना रहता है। इसी जरूरत को समझते हुए राजकमल प्रकाशन समूह ने ‘अक्षर’ नाम का एक नया उपक्रम शुरू किया है। इसके तहत प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी संबंधी पुस्तकें भी इस बार मेले में उपलब्ध हैं।”
सामाजिक बदलावों की वैज्ञानिक पड़ताल
वाणी प्रकाशन की ‘किताब वाली’ के नाम से मशहूर अदिति माहेश्वरी गोयल हिंदी के पाठकों को लगातार कुछ नया देना चाहती हैं। 2020 में आने वाली किताबों के जिक्र पर वह कहती हैं, “पिछले चार वर्षों में कथेत्तर किताबों की ओर युवा पाठकों का रुझान बढ़ा है। इसकी सबसे बड़ी वजह है कि जो लोग कहानी, कविता या उपन्यास लिख रहे हैं, उनके पास जीवन के अनुभव बहुत कम हैं।” प्राइवेट स्कूल से अपनी यात्रा शुरू करने वाली युवा पीढ़ी का जीवनानुभव क्यूबिकल ऑफिस में आकर समाप्त हो जाता है। जबकि इस शताब्दी में पाठकों में दुनिया भर के बारे में जानने की उत्सुकता है। उस पर भी यह फेक न्यूज का जमाना है। लोग जानकारी का स्रोत भी जानना चाहते हैं। अस्सी के दशक में वाणी प्रकाशन के लिए युवा वाइस चांसलर और प्रसिद्ध समाज विज्ञानी प्रो. श्याम चरण दुबे ने कहा था कि इसे हिंदी की ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस बनना है। यह हमारे लिए मार्गदर्शक वाक्य है। सामाजिक बदलावों को जो पाठक वैज्ञानिक तरीके से समझना चाहते हैं उनके लिए इस बार आलोचना की बारह नई पुस्तकें हैं। इनमें खास हैं मनोज कुमार और अमित कुमार विश्वास की गांधी की अहिंसा दृष्टि, अभय मिश्र की माटी, मानुष चून, दयानिधि मिश्र की जन-जन के राम, चंदन श्रीवास्तव की झोला वाला अर्थशास्त्र, शेखर पाठक की हरी-भरी उम्मीद, डॉ. राकेश योगी की संसदीय संवाद, मुकेश गर्ग की स्त्री की नजर में रीतिकाल और मुकुल शर्मा की दलित और प्रकृति। आलोचना पर आधारित किताबें भी हैं, जिन्हें साहित्य और समाज को समझने के इच्छुक पाठक पढ़ना पसंद करेंगे।
किताबों के दीवाने
यह आक्रामक राष्ट्रवाद का दौर है। अपनी भाषा, अपने इतिहास और जननायकों के प्रति लोगों के मन में उथल-पुथल मची है। पर क्या इससे किताबों की दुनिया प्रभावित होती है? इस सवाल पर राजपाल ऐंड संस की मीरा जौहरी कहती हैं, “अमूमन उथल-पुथल में तल्लीन रहने वाले लोगों का पढ़ाई-लिखाई से ज्यादा वास्ता नहीं होता है। इनकी भूख जितना साहित्य वायरल मैसेजेस में ही मिल जाता है। पर जो सचमुच किताबों से प्यार करने वाला पाठक है वह इस उथल-पुथल के कारणों को जानना चाहता है। इसके लिए भी वह किताबों की ही शरण में आता है। जिन्हें राजनीति नायक या खलनायक की तरह स्थापित करना चाहती है, उन्हें भी वह उनके जीवन और संदर्भों में जानना चाहता है। यही वजह है कि जीवनी का पाठक कभी कम नहीं हुआ। साहित्य के अलावा जो पाठक रोमांचक अनुभवों से गुजरना चाहते हैं उनके लिए साहित्येतर किताबों में इस बार मनीषा कुलश्रेष्ठ की किताब अतिथि होना कैलाश का उल्लेखनीय है। हिंदी के पाठकों को यह कैलाश मानसरोवर यात्रा और उससे जुड़े कुछ अछूते प्रसंगों से मिलवाएगी।
दुनिया के अंतिम छोर तक
अगर आप हिंसक माहौल में धैर्य खोने लगे हैं, तो सम्यक प्रकाशन का स्टॉल आपके लिए कुछ जरूरी किताबें मुहैया करवा सकता है। इसमें बौद्ध धर्म, विचार और उनकी प्रासांगिकता के बारे में जानना आपके लिए शांति प्रदायी हो सकता है। अपनी दुनिया के अंतिम छोर के बाहर झांकने में अगर आपकी रुचि है तो सामयिक प्रकाशन पर कुछ अच्छी किताबें मिल सकती हैं। इनमें राकेश कुमार सिंह की किताब मिशन होलोकॉस्ट: एक खोए देश की दास्तान और निर्मला भुराडि़या की खुशी का विज्ञान खास किताबें हैं। गीतों और कहानियों के लिए सिनेमा बरसों से साहित्य का ऋणी रहा है। इसके बावजूद सिनेमा पर लिखी किताबों को भी लोग पढ़ना चाहते हैं। इस कड़ी में जय सिंह की किताब ‘सिनेमा बीच बाजार’ भी सामयिक प्रकाशन से आ रही है। गूगल की भरी पूरी दुनिया के बीच वेब सीरीज ने भी प्रकाशकों के लिए चुनौतियां बढ़ाईं हैं। इस पर सामयिक प्रकाशन के महेश भारद्वाज का मानना है कि पाठकों और प्रकाशकों, दोनों के लिए ही चुनौतियां हमेशा बनी रही हैं। पर अगर आपका कंटेंट अच्छा है तो कोई चुनौती आपको हरा नहीं सकती। विधा कुछ भी हो, पाठक मौलिकता को पढ़ना चाहता है। जीवनियों का पाठक भी बढ़ा है। ये उस समय के माहौल को समझने में मदद करने के साथ ही पाठकों को प्रेरणा भी देती हैं। बहसों के घटाटोप में भी इनकी मांग बनी रहती है।
मजबूत आधार के लिए
बाजार के नाज नखरों से अलग संवाद प्रकाशन के आलोक श्रीवास्तव चाहते हैं कि हिंदी के पाठकों के ज्ञान का मूल आधार मजबूत हो। वर्ष भर में मेले के ये कुछ दिन ही उन्हें पाठकों से सीधे मिलने का अवसर उपलब्ध करवाते हैं। इस वर्ष जीवन संवाद शीर्षक से दयाशंकर मिश्र की एक उल्लेखनीय किताब उनके पास है, जो आत्महत्या और डिप्रेशन के खिलाफ आपको मजबूत करती है। वहीं, सेतु प्रकाशन की अमिता पांडेय गहन आत्मविश्वास से भरी हुई हैं। साहित्येतर किताबों में वे अरुण कुमार असफल की किताब 78 डिग्री का विशेष उल्लेख करना चाहती हैं। साइंस फिक्शन पर आधारित इस किताब को साहित्यिक अभिरुचि के साथ लिखा गया है। पाठकों की पसंद को देखते हुए कविता के प्रतिष्ठित नाम मंगलेश डबराल भी यात्रा संस्मरण ‘एक सड़क एक जगह’ लेकर आए हैं। अब देखना यह है कि पठन-पाठन, विचार-बहस और बौद्धिक उत्खनन के इस समय में साहित्येतर किताबों का यह भंडार अपने पाठकों को कितना बांध पाता है।
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किताबों से सचमुच प्यार करने वाले पाठक अपने समय में होने वाले उथल-पुथल के कारणों को जानना चाहते हैं। इसका एहसास प्रकाशकों को भी होने लगा है