सरकार को दीवार पर लिखी इबारत को स्वीकारने में तीन साल से ज्यादा लग गए। जो शुरुआत 8 नवंबर, 2016 को नोटबंदी से हुई थी उसकी रही-सही कमी उसके बाद के फैसलों और चालू साल के बजट ने पूरी कर दी। नतीजा सामने है। जिस अर्थव्यवस्था के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की वृद्धि दर को बजट में आठ फीसदी पर रखा गया था, वह चालू साल की पहली तिमाही में पांच फीसदी पर आ गई, जो छह साल के सबसे निचले स्तर पर है। हालांकि सरकार के आंकड़ों की विश्वसनीयता को लेकर एक अलग बहस है लेकिन ताजा आंकड़े कह रहे हैं कि जिस चमत्कारिक गुजरात मॉडल के सहारे देश की अर्थव्यवस्था को नई ऊंचाइयों पर पहुंचा कर 'अच्छे दिन' लाने थे, वह नाकाम हो गया है। हर नया आंकड़ा अर्थव्यवस्था को नीचे की ओर ले जाता दिख रहा है।
सवाल यह नहीं है कि इसके पीछे नाकाम नीतियां और कार्यान्वयन की खामिया हैं, बड़ी चिंता यह है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से लेकर वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण, पूर्व वित्त मंत्री दिवंगत अरुण जेटली और भाजपा के तमाम बड़े नेता देश के दुनिया की बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में सबसे तेज बढ़ती इकोनॉमी होने का ही दम भरते रहे। यही वजह है कि संकट में फंसी अर्थव्यवस्था को गति देने के कदमों के बजाय नए साल के बजट में पचास खरब डॉलर का सुनहरा ख्वाब दिखाया गया और निवेश को हतोत्साहित तथा कर प्रावधानों को सख्त किया गया। यानी निवेश के हौसले की परीक्षा ली गई। लेकिन बजट के बाद से लगातार धराशायी होते स्टॉक मार्केट ने अपनी प्रतिक्रिया दी और 2007 के मार्केट कैप के बराबर का पैसा स्वाहा हो गया। विदेशी संस्थागत निवेशकों में बाजार से पैसा निकालने की होड़ लग गई। उसने दो माह के पहले ही वित्त मंत्री को अपने फैसले बदलने के लिए मजबूर कर दिया।
असल में बजट के बाद वित्त मंत्रालय के आर्थिक सलाहकार से एक चर्चा में इस लेखक ने पूछा कि आर्थिक हालात बहुत खराब हैं, अब तो सरकार ने बेरोजगारी के वह आंकड़े भी स्वीकार कर लिए हैं जिनको चुनावों के पहले वह नकार रही थी क्योंकि उनमें बताया गया है कि बेरोजगारी 45 साल के उच्चतम स्तर पर है। तो, फिर आगे के हालात क्या होंगे। उक्त सलाहकार ने स्वीकार किया कि साल के अंत तक हालात और खराब होंगे। हालांकि तब तक पिछले साल की अंतिम तिमाही की जीडीपी की 5.8 फीसदी की वृद्धि दर के आंकड़े सामने आ चुके थे। लेकिन जब उन सलाहकार से कहा गया कि यह बात आप अपने राजनैतिक नेतृत्व को क्यों नहीं कहते तो वे चुप हो गए। इत्तेफाक से वहां वित्त मंत्री भी मौजूद थी। असल में उस समय हर कोई पचास खरब डॉलर के रोडमैप के नैरेटिव में था। लेकिन जब चिंता बढ़ी तो प्रधानमंत्री ने भी बैठक की और 23 अगस्त से वित्त मंत्री ने अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के फैसले घोषित करने शुरू कर दिए, जो जारी हैं और आने वाले दिनों में इस तरह के फैसले और होंगे। लेकिन तमाम अर्थशास्त्रियों की राय है कि यह फैसले एक बड़े जख्म पर बैंडएड जैसे हैं। समस्या ढांचागत है क्योंकि नोटबंदी और उसके बाद तमाम खामियों के साथ जल्दबाजी में लागू किए गए माल एवं सेवा कर (जीएसटी) और करों के मोर्चे पर सख्ती तथा बैंकिंग सिस्टम की खामियों और गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों (एनबीएफसी) वाले सेक्टर के संकट ने अर्थव्यवस्था के ढांचे को ही दिक्कत में डाल दिया है। इसलिए इसमें सुधार भी ढांचागत स्तर के ही चाहिए। लेकिन सरकारी अधिकारी और सरकार समर्थक अर्थशास्त्री संकट को साइक्लिक बताकर काम चला रहे हैं।
ताजा आंकड़े अर्थव्यवस्था के दो सबसे बड़े रोजगार देने वाले क्षेत्रों की बदहाली की तसवीर दिखाते हैं, मैन्युफैक्चरिंग और कृषि तथा सहयोगी क्षेत्र। इन दोनों की हालत सबसे खराब है। कृषि क्षेत्र की वृद्धि दर पिछले साल की पहली तिमाही के 5.1 फीसदी से गिरकर दो फीसदी रह गई है। यानी रबी की फसल आने के बावजूद किसानों के हाथ में आने वाली आय काफी कम रह गई है। वहीं मैन्युफैक्चरिंग 12.1 फीसदी से गिरकर 0.6 फीसदी रह गई है। सर्विस सेक्टर भी पहले से कमजोर हो गया है। मांग का आलम यह है कि घर, ऑटोमोबाइल, कंज्यूमर ड्यूरेबल के एफएमसीजी की बिक्री भी गिरने लगी है। कौन-सा ऐसा उद्योग क्षेत्र है जहां से उद्यमी मांग में गिरावट की बात नहीं कर रहे हैं। अब सवाल सिर्फ निवेश का नहीं है, यहां मांग का अकाल पड़ गया है। नतीजा निवेश से लेकर कर्ज की मांग और बचत सभी ने नीचे का रुख कर लिया है। जाहिर है, इसका सीधा असर रोजगार के अवसरों पर पड़ रहा है और करोड़ों लोग बेरोजगारों की फौज में शामिल हो रहे हैं।
सुस्ती की आहट ने लोगों को हर तरह के खर्च से रोक लिया है क्योंकि अनिश्चितता है। उम्मीद में लोग आय से अधिक खर्च करते हैं लेकिन भविष्य को लेकर अऩिश्चितता लोगों को जरूरी खर्च में कटौती के लिए सोचने को मजबूर करती है। यही वजह है कि कर्ज लेकर घर खरीदने की लोग हिम्मत नहीं जुटा पा रहे हैं, मैन्युफैक्चरिंग और कृषि के अलावा सबसे अधिक रोजगार देने वाले कंस्ट्रक्शन और रियल एस्टेट सेक्टर की हालत सबसे अधिक खराब है।
एक उदाहरण से संकट को ठीक से समझा जा सकता है। पिछले दिनों उत्तर भारत के एक बड़े कारोबारी समूह से जुड़े एक व्यक्ति ने बातचीत में कहा कि हम लोग रियल एस्टेट सेक्टर के चक्रव्यहू से निकलना चाहते हैं क्योंकि कई साल की भयानक मंदी के बाद संकट बढ़ रहा है, कानूनी चिंताएं अलग से हैं। नए निवेश की हम कैसे सोच सकते हैं। बाजार में मांग की एक झलक एक माल में देश के सबसे बड़े उद्योग समूह द्वारा चलाई जाने वाली रिटेल चेन के स्टोर के सिमटने में मिली है। एनसीआर के एक मॉल में कंपनी के स्टोर में जाने के बाद चौंकाने वाला सीन सामने आया है। पहले फ्लोर पर जाने के लिए मैं एस्केलेटर की तरफ बढ़ा तो वहां दीवार थी, क्योंकि स्टोर का दूसरा फ्लोर ही समेट दिया गया है। छुट्टी के दिन जहां लोग बिलिंग के लिए लाइन में लगते थे वहां बिल बनाने के लिए दो काउंटरों पर सेल्स मैनेजरों के बीच इस बात की होड़ थी कि किसे बिल बनाने का मौका मिले क्योंकि काउंटर तो खाली था।
यही वह चीजें थीं जिनको सरकार को समझ जाना चाहिए था, क्योंकि हमारे देश की अर्थव्यवस्था का एक बड़ा हिस्सा इनफार्मल सेक्टर के रूप में काम करता रहा है। नोटबंदी ने पहले इस सेक्टर के बड़े हिस्से को तबाह किया। उसके बाद जीएसटी ने इस पर असर डाला। लेकिन उस समय तक फार्मल सेक्टर को लग रहा था कि यह बिजनेस उसके पास आ जाएगा। लेकिन जब इस संकट का पूरा असर आया तो अब फार्मल इकोनॉमी की कंपनियों को भी संकट का हिस्सा बनना पड़ा। यहां एक छोटा फैसला इस बजट का भी बताना जरूरी है जो किसानों और ग्रामीण अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुंचाएगा। सरकार ने बजट में एक करोड़ रुपये से ज्यादा की नकद निकासी पर दो फीसदी टीडीएस का प्रावधान किया है जो अब लागू हो गया है। यानी अब मंडी में आए किसानों को आढ़ती नकदी देने में संकोच करेगा यानी किसान को फसल का पैसा मिलने में देरी होगी। दिलचस्प बात यह है कि डिजिटल ट्रांजेक्शन बढ़ाने के लिए एक सीमा तक ही किसानों को फसल का भुगतान नकद में देने का फैसला पहले लागू किया गया था, उसका पालन मध्य प्रदेश ने सबसे अधिक किया, लेकिन उसका राजनैतिक खामियाजा वहां की पिछली भाजपा सरकार ने झेला।
अब सवाल है कि इस संकट को समाप्त करने का उपाय लोगों के हाथ में ज्यादा कमाई देना है ताकि वे बाजार में इसे खर्च करें। लेकिन जब निजी क्षेत्र निवेश के लिए तैयार नहीं है तो यह जिम्मा अकेले सरकार पर ही आएगा। मौजूदा परिस्थितियों में सरकार के हाथ बहुत खुले नहीं हैं क्योंकि कर से कमाई लक्ष्य से बहुत पीछे चल रही है। कड़वी सच्चाई सामने होने के बावजूद सरकार ने बजट में आठ फीसदी की वृद्धि दर के आधार पर अपने लक्ष्य रखे। इसमें चार फीसदी की महंगाई दर के साथ 12 फीसदी नॉमिनल जीडीपी दर रखी गई। लेकिन पहली तिमाही के आंकड़ों के आधार पर यह आठ फीसदी पर अटक गई है। इसलिए सरकार के पास सार्वजनिक व्यय बढ़ाने के विकल्प सीमित हैं।
हालांकि रिजर्व बैंक से 1.76 लाख करोड़ रुपये अतिरिक्त पैसा लेने के फैसले को इसकी काट के रूप में देखा जा रहा है। लेकिन अभी तो सरकार ने यह भी तय नहीं किया कि इस पैसे का इस्तेमाल कैसे होगा, जबकि रिजर्व बैंक से अतिरिक्त पैसा लेने के लिए कोशिश पिछली सरकार के समय हो रही थी। घरेलू खपत और निर्यात दोनों मोर्चों पर स्थिति बहुत अनुकूल नहीं है। वैसे यह कहने की भी कोशिश हो रही है कि वैश्विक परिस्थितियां इसके लिए जिम्मेदार हैं लेकिन हमें पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के उस बयान पर गौर करना चाहिए, जिसमें उन्होंने कहा कि अर्थव्यवस्था के लिए मानवीय गलतियां और नीतिगत खामियां ही जिम्मेदार हैं। इसलिए हमें उन्हें ठीक करने पर जोर देना चाहिए।