हमारे बाद अब महफिल में अफसाने बयां होंगे...लता मंगेशकर के निधन से भारत ने अपनी सुरीली पहचान खो दी है। यह महसूस होता है कि उनकी रिक्तता को उस स्तर पर अगली शताब्दी में शायद ही कोई भर पाए। वे स्वतंत्र भारत के पिछले सात दशकों में बनते हुए सांस्कृतिक परिदृश्य की केंद्रीय उपस्थिति रही हैं, जिनके होने से भारतीय समाज के मध्यमवर्गीय परिवार की लड़कियों को यह हौसला मिला कि वह अपने हुनर के बलबूते कला में शिखर छू सकती हैं। वे हिंदी फिल्म जगत में उस दौर में आईं, जब फिल्म संगीत में उनसे पहले कानन देवी, अमीरबाई कर्नाटकी, जोहराबाई अंबालावाली, सुरैया, राजकुमारी और शमशाद बेगम की आवाजों की भारी प्रतिष्ठा थी। लता ने उसमें अपने संघर्ष, लगन और कठोर परिश्रम से ऐसी अनूठी राह बनाई, जो पचास के दशक के बाद पिछली लगभग पूरी आधी सदी में महिला पार्श्वगायन का अकेला प्रतिनिधि स्वर बन गया। उनके आगमन को तराशने वालों में संगीतकार दिग्गजों- खेमचंद प्रकाश, मास्टर गुलाम हैदर, अनिल विश्वास, हुस्नलाल भगतराम, नौशाद और सी. रामचंद्र का विशेष योगदान रहा। वे एक तरह से फिल्म संगीत की दुनिया में ऐसा करिश्माई किरदार भी रही हैं, जिनसे संबंधित संगीत दुनिया की ढेरों अंतर्कथाएं, रिकॉर्डिंग के अनुभव और समवयसी कलाकारों के साथ जीवंत संस्मरण आज किंवदंती की तरह याद किए जाते हैं।
यह सोचना भी आश्चर्य में डालता है कि एक ऐसी स्त्री जो भारत की आवाज बन जाएगी, कभी तेरह बरस की उम्र में अपने पिता के असमय निधन पर अपनी मां से विचलित होकर यह पूछ बैठी थी, “क्या मुझे कल से काम पर जाना पड़ेगा?” पंडित दीनानाथ मंगेशकर की वह बिटिया तब खुलकर अपने पिता की मृत्यु पर रो भी नहीं पाई थी, क्योंकि अचानक ही परिवार को संभालने का भारी दायित्व उनके किशोर कंधों पर आन पड़ा था। उसी लड़की ने आम भारतीय जनमानस में अपने संघर्ष और तप की दीपशिखा को इतना प्रखर बनाया कि जब वे इस नश्वर दुनिया से प्रस्थान कर गईं, तो पूरा देश उनके गम में डूब गया। स्त्री स्वाभिमान और कर्मठता का इतना बड़ा सांस्कृतिक रूपक जल्दी मानवता के इतिहास में ढूंढ पाना मुश्किल होगा। उनके जाने से भारत के पड़ोसी मुल्कों और दूर देशों में भी जिस तरह शोक की लहर उठी है, उससे इस बात को विश्वसनीयता मिलती है कि एक कलाकार का जीवन सरहदों के आर-पार भी अदम्यता से चमकता है।
सुर-साधनाः संगीतकार सचिन देव बर्मन और राहुल देव बर्मन के साथ लता
लता जी उस समय संभव हुई सांगीतिक घटना हैं, जब भारत में पुनर्जागरण काल अपने शीर्ष पर था और देश को तुरंत आजादी मिली थी। के.एल. सहगल दिवंगत हो चुके थे और नूरजहां बंटवारे के बाद पाकिस्तान चली गई थीं। उस समय लता और मुकेश दोनों के लिए हिंदी फिल्म संगीत की दुनिया नई थी, जिसने इन दोनों ही आवाजों का स्वागत शानदार तरीके से संभव किया। मास्टर गुलाम हैदर की मजबूर (1948) में दोनों का गाया ‘अब डरने की कोई बात नहीं, अंगरेजी छोरा चला गया’ जैसे स्वतंत्र भारत की उन्मुक्त आकांक्षा और स्वप्नों का प्रेरक गीत बन गया था। यह लता ही थीं, जिन्होंने अनिल विश्वास के संगीत निर्देशन में जब तराना (1951) के लिए ‘बेईमान तोरे नैनवा, निंदिया न आए’ गाकर रेकॉर्ड किया, तो उन्हें कहना पड़ा कि अब हमें वह आवाज मिल गई है, जिसके सहारे हम फिल्म संगीत में एक्सपेरीमेंट कर सकते हैं। ऐसी ढेरों कहानियों से लता मंगेशकर समय से पार निकलने वाली ऐसी पार्श्वगायिका बन सकीं, जिसका भान भी उन्हें अपने संघर्ष के दिनों में नहीं रहा होगा। उस्ताद अमान अली खां भेंड़ीबाजार वाले और उस्ताद अमानत खां देवासवाले की गंडाबंध शिष्या की आरंभिक तालीम तो उनके पिता मास्टर दीनानाथ मंगेशकर की गोद में बैठकर ही शुरू हो गई थी, जब 1935 में छह वर्ष की उम्र में पिता ने पहला राग पूरिया धनाश्री सिखाया। अपने शास्त्रीय संगीत के गुरुओं से हंसध्वनि, हिंडोल, जयजयवंती और मालकौंस सीखने वाली यह किशोर लड़की बाकी के पूरे जीवन तीन मिनट की अदायगी में हर एक राग को पूरी शुद्धता से निभाने में सफल हुई। लता मंगेशकर की संगीत-यात्रा में इस बात को गंभीरता से लक्ष्य किया जा सकता है कि सुर के लगाव, रागदारी की समझ और सुरों की सच्चाई और पवित्रता को दर्शन कराने में उनका कोई सानी नहीं रहा। उनकी कई फिल्में इस बात का शानदार उदाहरण हैं। सिर्फ 1951 से 1960 तक के दशक की फिल्मों पर गौर करना चाहिए, जो उन्हें अप्रतिम बनाती हैं- तराना, बैजू बावरा, अनारकली, नागिन, झनक-झनक पायल बाजे, चोरी-चोरी, मदर इंडिया, मधुमती, गूंज उठी शहनाई, देख कबीरा रोया, अदालत, भाई-भाई, चांदनी चौक, आवारा, श्री 420, उड़नखटोला, यहूदी... यह सूची अंतहीन है। इसके बाद का एक पूरा लता मंगेशकर युग है, जिसके सहारे हम स्तरीय और कर्णप्रिय गीतों की एक पूरी परंपरा देख सकते हैं। यह भी जानना चाहिए कि उनकी यात्रा में पंडित पन्नालाल घोष (मैं पिया तेरी), उस्ताद अली अकबर खां (सुनो छोटी सी गुड़िया की लंबी कहानी), उस्ताद विलायत खां (है कहीं पर शादमानी), पंडित रविशंकर (कैसे दिन बीते) और उस्ताद बिस्मिल्ला खां (दिल का खिलौना हाए टूट गया) की जुगलबंदियां शामिल रही हैं।
ये लता मंगेशकर के खाते में ही दर्ज है कि देशभक्ति का गीत ‘ऐ मेरे वतन के लोगों’ गाकर उन्होंने पंडित जवाहरलाल नेहरू की आंखों में आंसू ला दिए, उस्ताद बड़े गुलाम अली खां को दाद देने के लिए मजबूर कर दिया, “वे कभी बेसुरी नहीं होतीं”, एम.एस. सुब्बुलक्ष्मी ने उनसे व्यक्तिगत भेंट में कहा था कि आपने मीरा भजनों को बखूबी गाया है। सरहदों के पार यहूदी मेन्यूहिन, मेंहदी हसन, नूरजहां, गुलाम अली, फरीदा खानम सभी उनके मुरीद रहे। लता दक्षिण एशियाई देशों में स्त्री की आवाज का सबसे बड़ा प्रतीक रहीं, जिन्हें धर्म, जाति, संप्रदाय और क्षेत्र से ऊपर उठकर एक आम भारतीय ने अपने हृदय में बसाया। उनकी समाज-सेवा के भी कई उदाहरण मौजूद हैं, जिसमें सुनील दत्त की ‘अजंता आर्ट्स’ के साथ सरहदों पर जाकर हिंदुस्तान के सैनिकों का मनोरंजन करने का कार्य, कपिल देव की अगुआई में भारत जब विश्वकप जीतकर लौटा तो खिलाड़ियों के उत्साहवर्धन के लिए अपना कार्यक्रम करके उससे उपार्जित धन को क्रिकेट टीम को सौंपना तथा पुणे में ‘दीनानाथ मंगेशकर रुग्णालय’ बनाकर गरीबों की सहायता के लिए उनका मुफ्त में इलाज कराने के प्रबंधन की योजना सराहनीय रहे हैं।
उन्होंने जीते जी अपने स्वभाव, ममतामयी व्यवहार और सौम्य छवि से भारत के हर घर-आंगन में अपनी ऐसी कभी न मिटने वाली जगह बना ली थी, जो उन्हें दीदी, आई और मां के रूप में आदर देती रही है, भले ही उनमें से करोड़ों लोग उनसे कभी मिल न पाए हों। ऐसी शाश्वत उपस्थिति शताब्दियों में किसी बिरले को हासिल होती है। उनको यह गौरव भी हासिल है कि उन्हें जीते जी संगीत की दुनिया के हर कलाकार ने सरस्वती का रूप माना। अपनी आवाज से जो दैवीय सत्ता उन्होंने सृजित की, वह असाधारण है। 92 वर्ष की उम्र में उनका महाप्रयाण सिर्फ भौतिक रूप से ही संभव हुआ है। मृत्यु भी जानती है कि वह लता जी की यशःकाया को छू भी नहीं पाई। प्रख्यात संत मोरारी बापू ने उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए उचित ही कहा है, “सुर, स्वर और कंठ में उनके वैकुंठ की याद दिलाता था।” अरसे पहले उन्होंने यह बात गाकर भी इसी तरह व्यक्त कर दी थी, ‘रहें न रहें हम, महका करेंगे, बन के कली, बन के सबा, बागे वफा में...।
(कला समीक्षक और लता मंगेशकर की जीवनी के लेखक)