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विमर्श: जाति जनगणना के दस अर्धसत्य

हर अर्धसत्य में राई बराबर सच्चाई, लेकिन उसके सहारे सच के पहाड़ को छुपाने का खेल
जाति जनगणना

हंगरी के प्रसिद्ध समाजशास्‍त्री कार्ल मैनहाइम ने ‘विचारधारा’ की अजीब-सी परिभाषा दी थी। उनके मुताबिक ‘विचारधारा’ मिथ्‍या मान्यताओं या ख्‍याली पुलाव का अक्‍स है, जो समाज की असलियत को छुपा लेने का काम करती है। विचारों को विचारक के सामाजिक आधार तक सीमित करने की उनकी तजवीज एक छोटे-से पेशेवर दायरे के बाहर लोकप्रिय नहीं हुई, लेकिन मैनहाइम की अवधारणा हमारे देश में जाति जनगणना पर मौजूदा बहस पर एकदम फिट बैठ सकती है।

जाति या जातिवार जनगणना के मुद्दे पर आम तौर पर उदार और प्रगतिशील शिक्षित लोगों के साथ हर मुठभेड़ मुझे चौंका देती है। मुझे लोगों की मान्यताओं को उनके जन्म के संयोग से जोड़ना पसंद नहीं है, लेकिन इस मुद्दे पर अज्ञानता, पूर्वाग्रह और अहंकार का प्रदर्शन हर बार मुझे हैरान करता है और यह याद दिलाने के लिए मजबूर करता है कि हमारे देश में राय बनाने वाला विचारशील वर्ग अब भी कमोबेश अगड़ी जाति का सवर्ण हिंदू है। जाति जनगणना के इस तरह के विरोध को मैनहाइम विचारधारा का नमूना बताते। यह विरोध अपनी स्वार्थसिद्धि में कई अर्ध-सत्‍य गढ़ता है। ऐसे हर अर्ध-सत्य में सच्चाई का एक राई बराबर अंश होता है, लेकिन उसके सहारे पहाड़ बराबर सच को छुपाने का खेल खेला जाता है। पेश है जाति जनगणना पर 10 सबसे खास अर्ध-सत्य और उनका पूरा सच:

देश में 1931 के बाद से कभी जाति जनगणना हुई ही नहीं।

सच है कि देश की जनगणना में 1931 के बाद से हर किसी से उसकी जाति नहीं पूछी गई है, लेकिन पूरा सच यह है कि आजाद भारत में हर दशक में होने वाली जनगणना में हमेशा जाति का सवाल पूछा जाता है और एससी या एसटी वर्ग के लोगों को दर्ज किया जाता है। यही नहीं, यह भी पूछा जाता है कि वे एससी और एसटी वर्ग की किस जाति के हैं। फिर, एससी और एसटी वर्ग की पढ़ाई-लिखाई और आर्थिक स्थितियों पर जातिवार जानकारी प्रकाशित की जाती है। जातिवार जनगणना में कुछ अनहोनी नहीं होने जा रही।

जाति जनगणना राहुल गांधी की नई-नवेली सोच है।

यह सच है कि कांग्रेस पार्टी ने इस मुद्दे पर जो राजनैतिक इच्छाशक्ति दिखाई है वह हाल की है। काफी हद तक यह राहुल गांधी के संकल्प के कारण है। लेकिन पूरा सच यह है कि इस मांग में कुछ भी नया या पार्टी विशेष का पक्षपात नहीं है। यह सिफारिश अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के दौरान सामाजिक न्याय मंत्रालय और रजिस्ट्रार जनरल तथा जनगणना आयुक्त ने की थी। मई 2010 में लोकसभा में पूरे दो दिन तक इस मुद्दे पर बहस हुई और सर्वसम्मति से देशव्‍यापी जाति जनगणना का समर्थन किया गया, जिसमें भाजपा का बिना शर्त समर्थन शामिल था। 2018 में तत्कालीन गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने अगली जनगणना में ओबीसी की गिनती शामिल करने का वादा किया। सामाजिक न्याय पर संसदीय समिति और राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग जैसी वैधानिक संस्थाओं ने उसकी सिफारिश की है। बिहार में एनडीए सरकार सहित कई राज्य सरकारों ने भी इसकी वकालत की है।

जाति जनगणना लंबी प्रक्रिया है जिससे जनगणना में देरी हो सकती है।

यह सच है कि सभी जातियों की जानकारी जुटाने के लिए जनगणना के मौजूदा प्रारूप में संशोधन करने की जरूरत होगी, लेकिन पूरा सच यह है कि यह कोई बड़ी मशक्‍कत नहीं है। इसके लिए बस परिवार संबंधी अनुसूची के कॉलम 8 में लिखना होगा: ‘जाति: 8(ए) किस सामाजिक समूह से संबंधित हैं: एससी/एसटी/ओबीसी/सामान्य 8(बी)। यदि एससी/एसटी/ओबीसी हैं तो दी गई सूची से नाम लिखें, यदि सामान्य हैं तो जाति का पूरा नाम लिखें।’ बस इतना ही। इसके लिए 2011 में इस्तेमाल की गई मौजूदा अनुसूची को फिर से बनाने की आवश्यकता भी नहीं है।

गिनती के लिए सभी जातियों की तैयार सूची नहीं है, यह असंभव-सा काम है।

यह सच है कि सामान्य वर्ग में सभी जातियों और उपजातियों की आधिकारिक सूची नहीं है, लेकिन पूरा सच यह है कि हमारी आबादी के लगभग तीन-चौथाई हिस्से- एससी, एसटी और ओबीसी के लिए तैयार सूचियां हैं। सामान्य वर्ग के लिए, जनगणना में व्‍यक्ति की मुंहबोली जाति को दर्ज किया जाएगा, जिसे बाद में जातियों या उपजातियों में वर्गीकृत किया जाएगा। ठीक वैसे ही जैसे भाषा और धर्म की मुंहबोली प्रविष्टि को बाद में वर्गीकृत किया जाता है। इस वर्गीकरण में हमें शून्य से शुरू करने की जरूरत नहीं है। हमारे पास 1931 की जनगणना का वर्गीकरण मौजूद है और भारतीय मानवविज्ञान सर्वेक्षण के 90-खंडों वाले विश्वकोश ‘पीपल ऑफ इंडिया’ में देश की सभी जातियों और जनजातियों की जानकारी भी उपलब्‍ध है।

जाति जनगणना का मतलब सिर्फ हर जाति की जनसंख्या की गणना है।

यह सच है कि यह जाति जनगणना का सबसे तात्कालिक और प्रचारित निष्कर्ष है, लेकिन पूरा सच यह है कि जाति जनगणना का सबसे महत्वपूर्ण आंकड़ा हर प्रशासनिक स्तर पर हर जाति समुदाय की सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक स्थितियों की जानकारी है। जाति जनगणना से प्रत्येक जाति के आयु, वर्ग, लिंग अनुपात, शैक्षणिक स्तर, व्यवसाय, मकान का प्रकार, प्रमुख घरेलू संपत्ति और पानी, बिजली और रसोई गैस तक पहुंच का डेटा मिलेगा। यह वही डेटा है जिसे सुप्रीम कोर्ट ने प्रामाणिक और साक्ष्य-आधारित सामाजिक नीति के लिए अनिवार्य माना है।

जाति जनगणना में गैर-हिंदुओं को शामिल नहीं किया जाएगा और सभी हिंदुओं को जाति पहचान अपनाने के लिए मजबूर किया जाएगा।

इसमें राई बराबर भी सच नहीं है। सच यह है कि हिंदू, मुस्लिम, ईसाई, सिख, आदि हर धार्मिक समुदाय में जातियां हैं। बिहार की ‘जाति जनगणना’ में एक दर्जन से अधिक मुस्लिम जातियों की गणना की गई। ऐसा ही अन्य राज्यों में भी जाति सर्वेक्षणों में किया गया है। जाति जनगणना में प्रत्येक धर्मावलम्बी की जाति दर्ज की जाएगी। किसी को यह दर्ज करने से नहीं रोका जा सकेगा कि उसकी ‘कोई जाति नहीं’, ठीक उसी तरह जैसे धर्म का कॉलम ‘कोई धर्म नहीं’ की अनुमति देता है।

जाति जनगणना का एकमात्र मकसद आरक्षण के मौजूदा दायरे को बढ़ाना है।

यह सच है कि इसके कई पैरोकारों के मन में यही बात है। वैसे, इसमें कुछ गलत भी नहीं है। अगर जनगणना में किसी जाति या समुदाय की संख्या और संसाधनों तथा अवसरों में हिस्सेदारी के बीच गंभीर बेमेल दिखाई दे, तो जाहिर है वे आबादी के अनुरूप आरक्षण मांगेंगे, लेकिन पूरा सच यह है कि जाति जनगणना कई अन्य नीतिगत मसलों के लिए भी अहम है। मसलन, क्या हमें एससी/एसटी/ओबीसी कोटा के उप-वर्गीकरण की जरूरत है? क्या कुछ जातियों को ओबीसी कोटा के लाभों से बाहर रखा जाना चाहिए? क्या हमारे पास एससी या एसटी के भीतर एक ‘क्रीमी लेयर’ है? ओबीसी के लिए क्रीमी लेयर को कैसे परिभाषित किया जाना चाहिए? ‘उच्च जाति’ के भीतर गरीबी की सीमा क्या है? क्या जाति का पैमाना सामाजिक गैर-बराबरी को समझने के लिए पुराना पड़ गया है? इन सवालों का जवाब चाहने वाला हर आरक्षण समर्थक या विरोधी जाति जनगणना की मांग करेगा।

जाति जनगणना एससी/एसटी/ओबीसी के लिए जरूरी है, लेकिन सामान्य जातियों के लिए नहीं।

यह सच है कि जाति जनगणना की मुख्य प्रेरणा जाति व्यवस्था के शिकार समुदायों में संसाधनों, संपत्तियों और अवसरों के गैर-बराबर बंटवारे की प्रकृति और सीमा को समझना है, लेकिन पूरा सच यह है कि इस गैर-बराबरी को हम बिना किसी बेंचमार्क के- ‘सामान्य’ वर्ग के विशेषाधिकारों को सही-सही जानकारी के बिना- नहीं माप सकते। सबको समान अवसर के संवैधानिक जनादेश के लिए जरूरी है कि सार्वजनिक जीवन के हर क्षेत्र में अगड़ी जाति के हिंदुओं के विशेषाधिकारों से परदा हटाया जाए।

जाति जनगणना दरअसल जातिवादी राजनीति और तीखे सामाजिक टकराव को बुलावा है।

यह सच है कि आधिकारिक दस्तावेजों में जाति पहचान दर्ज करने से जाति मजबूत होती है, लेकिन पूरा सच यह है कि हमारी आबादी के तीन-चौथाई लोगों के लिए जाति पहले से ही किसी न किसी रूप में दर्ज की जा रही है। पूरा सच यह भी है कि शेष एक-चौथाई ‘सामान्य’ लोग अपने वैवाहिक विज्ञापनों में जातिवार वर्गीकरण करते हैं। यूं भी, जाति जनगणना से ऐसी कोई बात सामने नहीं आएगी जो स्थानीय नेता पहले से न जानते हों और न ही उनका इस्तेमाल करते हों। अगर धर्म और भाषा की जनगणना सामाजिक टकराव पैदा नहीं करती है, तो हमें यह नहीं मान लेना चाहिए कि जाति जनगणना से संघर्ष पैदा होगा।

जाति जनगणना का मतलब सिर्फ दशकीय जनगणना में जाति को शामिल करना है।

यह सच है कि जाति जनगणना के बारे में यही सबसे आम समझ है, लेकिन पूरा सच यह है कि संपत्ति, सुविधाओं, संसाधनों, अवसरों और प्रतिनिधित्व के संपूर्ण जातिवार ब्यौरे के लिए जाति के सवाल को कई अन्य जनगणना-जैसी डेटा संग्रह गतिविधियों में शामिल करना होगा। इनमें से ज्‍यादातर में पहले से ही व्यापक श्रेणियों यानी एससी/एसटी/ओबीसी के संदर्भ में जाति के सवाल पूछे जाते हैं। व्यावहारिक अर्थ में जाति जनगणना का मतलब है आर्थिक जनगणना, कृषि जनगणना, उच्च शिक्षा पर अखिल भारतीय सर्वेक्षण, घरेलू उपभोग व्यय सर्वेक्षण, एनएसएसओ के आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण और पंजीकृत कंपनियों के निदेशकों की सूची के अलावा सभी सार्वजनिक क्षेत्र के कर्मचारियों के सर्वेक्षण में जाति के सवाल को जोड़ना है।

(चुनाव विश्लेषक, राजनैतिक टिप्पणीकार, स्वराज अभियान के संयोजक। विचार निजी है)

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