जब "एक राष्ट्र एक चुनाव" की बात शुरू हुई, तो यह किसी असली समस्या की तलाश में लाजवाब नीतिगत समाधान लगा था, लेकिन इस योजना को आगे बढ़ाने की मौजूदा सरकार की तेजी देखकर और देश में एक साथ चुनाव कराने के लिए उच्चस्तरीय समिति की रिपोर्ट को पढ़कर अब मुझे यकीन हो चला है कि "एक राष्ट्र एक चुनाव" सिर्फ खामखयाली या मासूम-सी फंतासी भर नहीं है। यह लंबे समय से जारी एक बड़ी राजनैतिक योजना का हिस्सा है। लोकतंत्र को लोक से अलग करने की अफसरशाही की कवायद और मध्यवर्ग की फंतासी से निकली यह योजना अब लोकतंत्र को वश में करके उसे कमजोर करने की समकालीन शासकों की इच्छा के साथ जुड़ गई है।
समिति की 281 पन्नों की रिपोर्ट (अनुलग्नकों सहित 18,345 पृष्ठ) के निष्कर्ष उसके गठन की शर्तों में ही लिख दिए गए थे। समिति ने बस उस पर अमल के लिए कानूनी-संवैधानिक औपचारिकताओं और प्रशासनिक जरूरतों का ब्यौरा मनोयोग से तैयार किया है। निष्कर्ष को वाजिब ठहराने के लिए अजीबोगरीब तर्क तलाशे गए हैं। मसलन, रिपोर्ट में दावा किया गया है कि बार-बार होने वाले चुनाव महाराष्ट्र जैसे कुछ राज्यों में "औसतन साल में लगभग 300 दिन" बर्बाद करते हैं (पृष्ठ 167)! "एक राष्ट्र एक चुनाव" से "राजनैतिक कार्यकर्ताओं को समान अवसर" मुहैया होगा (पृष्ठ 155) क्योंकि एक ही नेता विधानसभा और लोकसभा का चुनाव नहीं लड़ पाएगा! यही नहीं, इससे "नफरती भाषणों में भी कमी" आएगी (पृष्ठ 156)! इससे "मतदाताओं की ऊब" की समस्या भी दूर होगी (पृष्ठ 153-54)! इस समस्या के बारे में मैंने तो देश के चुनावों पर अपने रिसर्च के दो दशकों के दौरान कभी नहीं सुना।
समिति के एक “संवैधानिक विशेषज्ञ” सदस्य का एक संवैधानिक ज्ञान देखिए: भारत में “राष्ट्रपति और संसदीय शासन प्रणाली का मिलाजुला रूप है” (पृष्ठ 109) और “एक साथ चुनाव कराने से लोगों में सामंजस्य और राष्ट्रीय एकता की भावना को बढ़ावा मिलता है क्योंकि देश भर में लोग सामूहिक रूप से लोकतंत्र के उत्सव में भाग लेते हैं और भाईचारे को मजबूत करते हैं।” (पृष्ठ 145)
समिति का मुख्य तर्क यह है कि एक साथ चुनाव कराने से राजकाज की गुणवत्ता में सुधार आएगा, सरकारी मशीनरी के कामकाज में व्यवधान का समय घटेगा, राज्य के खर्च में बचत होगी और आदर्श आचार संहिता के कारण नीतिगत फैसलों पर रोक की समयावधि में कमी आएगी। चुनावों के लिए सरकारी मशीनरी का व्यवधान आखिर कितनी परेशानी पैदा करता है? नेताओं के दौरों या धार्मिक आयोजनों से होने वाले व्यवधानों की तुलना में यह कितना बड़ा है? सरकार के बजट का कितना हिस्सा चुनावों पर खर्च किया जाता है? इसकी तुलना चुनाव में उम्मीदवारों और पार्टियों के खर्च से कैसे की जा सकती है? जहां तक “नीतिगत ठहराव” का सवाल है, हर राज्य सरकार के लिए यह पांच वर्षों में सिर्फ चार महीनों की अवधि के बराबर है। कहा जाता है कि केंद्र सरकार राज्य विधानसभा चुनावों के कारण बाधित होती है, लेकिन पिछले पखवाड़े आचार संहिता लागू रहने के दौरान स्वास्थ्य और कृषि के मामले में की गई बड़ी घोषणाओं ("एक राष्ट्र एक चुनाव" को कैबिनेट की मंजूरी तो छोड़ ही दें) पर क्या कहिएगा?
इसके अलावा, वैकल्पिक उपायों पर गौर कीजिए। चुनाव आयोग के पास छह महीने के भीतर होने वाले सभी विधानसभा चुनावों को एक साथ करवाने का अधिकार है (जो उसने महाराष्ट्र, झारखंड और दिल्ली के मामले में नहीं किया)। इसे 12 महीने तक बढ़ाया जा सकता है। चुनाव आयोग से निश्चित रूप से चुनाव की अवधि को एक पखवाड़े तक कम करने और अधिकतम तीन चरणों में करवाने को कहा जा सकता है। चुनाव अवधि के दौरान रोजमर्रा के राजकाज को जारी रखने के लिए आदर्श आचार संहिता में संशोधन किया जा सकता है। जब साधारण गोलियों से काम चल सकता है, तो सर्जरी क्यों की जाए?
फिर, इस योजना से हमारे संवैधानिक लोकतांत्रिक ढांचे को होने वाले गंभीर नुकसान पर भी गौर किया जाना चाहिए। पंद्रह राजनैतिक दलों ने "एक राष्ट्र एक चुनाव" का विरोध किया है। इनमें ज्यादातर इंडिया ब्लॉक का हिस्सा हैं। यह चुनावी कैलेंडर में कोई साधारण प्रशासनिक बदलाव नहीं है, बल्कि हमारी संसदीय शासन प्रणाली में निहित विधायिका के प्रति कार्यपालिका की जवाबदेही के मूल सिद्धांत को ही बिगाड़ देगा। समिति इस समस्या का समाधान कार्यकाल के शेष भाग के लिए चुनाव करवाने जैसा सुझाती है, जिससे एक और समस्या पैदा हो सकती है, चाहे यह सिर्फ एक वर्ष के लिए ही क्यों न हो। राज्य विधानसभाओं के साथ-साथ नगर निगम और पंचायत निकायों के कार्यकाल को लोकसभा के साथ जोड़ने का प्रस्ताव राजकाज के संघीय सिद्धांत की भी अवहेलना है। इस अर्थ में यह हमारे संविधान के "मूल ढांचे" का उल्लंघन है।
प्रशासनिक, कानूनी और संवैधानिक मुद्दों से कहीं ज्यादा, बड़ी समस्या इसमें निहित राजनैतिक डिजाइन है। जाहिर है, राष्ट्रीय और राज्य के चुनाव एक साथ करवाने से वोटों का एक रुझान राष्ट्रीय पार्टियों के पक्ष में और क्षेत्रीय दलों के खिलाफ होगा। उदाहरण के लिए, मेरा अनुमान है कि ओडिशा के चुनाव अगर आम चुनाव के साथ नहीं होते, तो भाजपा को विधानसभा में स्पष्ट बहुमत नहीं मिला होता। संयोग नहीं कि समिति की रिपोर्ट में एक साथ चुनाव कराने की राजनैतिक आर्थिकी पर सबसे अधिक चर्चा है। यह मेरी राय में चुनावी सुधारों की "मध्यवर्गीय फंतासी" है।
"एक राष्ट्र एक चुनाव" लोकतांत्रिक राजनीति की अनेकता और विविधता को कम करने की इच्छा है। राजनैतिक वर्ग के कुछ तबके जवाबदेही की लटकती तलवार से छुटकारा पाना चाहते हैं। इसलिए, यह योजना लोकतंत्र का विलोम है।
(लेखक वरिष्ठ चुनाव विश्लेषक और स्वराज तथा भारत जोड़ो अभियान के संयोजक हैं। विचार निजी हैं)