बढ़ते शहरीकरण, एकल परिवार और पलायन ने हमारे लिए रसोई में वक्त की कटौती कर दी है। सांझे चूल्हे तो काफी समय पहले ही खत्म हो गए थे लेकिन अब नौबत यहां तक है कि महिलाएं रसोई में कम वक्त बिताने लगी हैं। बीते दस सालों में प्रोफेशनलिज्म का तकाजा यह है कि महिलाएं भी दफ्तरी काम या कारोबार में उतना ही वक्त दे रही हैं जितना पुरुष देते हैं। यही वजह है कि शहरी और युवा समुदाय अब बर्गर-पिज्जा का लंच या डिनर करने लगा है।
जैसे-जैसे हमने दुनिया को हथेली पर देखना शुरू किया और कामकाज की शक्ल ऐसी हुई कि पहले की अपेक्षा देश-विदेश से राफ्ता ज्यादा कायम रहने लगा तब से हमारी परंपरागत थाली की जगह भी सिकुडऩे लगी। बेशक बदलती जीवनशैली में स्वस्थ रहने के लिए अब गरिष्ठ भोजन संभव नहीं लेकिन खानपान में इस परिवर्तन ने दादी-नानी के हाथ का स्वाद और महक खत्म ही कर दी। दिल्ली और गुडग़ांव के मशहूर रेस्तरां चेन ‘बज’ के चंडीगढ़ स्थित रेस्तरां के शेफ नवीन पंवर बताते हैं, ‘अब लोग सप्ताह में एक दिन भारतीय भोजन करते हैं। इसके अलावा मांग रहती है कि उन्हें ऑलिव ऑयल में ब्रोकली स्टर कर दे दी जाए या अन्य एक्जॉटिक सब्जियां परोसी जाएं।’ समय की कमी और ट्रैफिक जाम का भी असर है कि लोगों का दिन अब पराठों, सब्जी-रोटी की बजाय सीरियल और सैंडविच से शुरू होता है।
बाजार अब रेडी-टू-ईट यानि फटाफट खाद्य पदार्थों से भरा पड़ा है। मुंबई का बड़ा-पाव से लेकर कुछ भी घर लाओ, गरम करो और खाओ। फ्रोजन मार्केट यानि बर्फ में जमाई खाद्य सामग्री का बाजार तेजी से बढ़ रहा है। अब महिलाएं रसोई में घंटो तलाई नहीं करती हैं। त्योहारों पर कई दिन पहले पकवानों की तैयारी नहीं होती है। मौसम के हिसाब से अब आंगन में अचार नहीं सूखते हैं। फास्ट-फूड का आलम यह है कि पिज्जा हट, मैक्डोनल्ड्स ,डॉमिनोज और केएफसी के रेस्तरां खुलते ही जा रहे हैं, जहां युवाओं की भीड़ जमी रहती है। शोध कंपनी रिसर्च फर्म क्रसिल के अनुसार क्विक सर्विस रेस्तरां मार्केट में सालाना 18 फीसदी की दर से बढ़ोतरी हो रही है। भारत हर दिन 6 लाख पिज्जा खाता है। अगले तीन सालों में मैक्डोनल्ड्स भारत में करोड़ों रुपये का निवेश करने की तैयारी कर रहा है। जिन ग्रामीण इलाकों के आसपास अस्पताल नहीं मिलते वहां मैक्डोनल्ड्स मिलने लगा है। हमारी थाली से ज्वार, बाजरा, मक्का, पंरपरागत साग-सब्जियां गायब होने लगी हैं। अब भारतीय बाजारों में विदेशी सब्जियां मिलनी आम सी बात है।
विदेशी रेस्तरां ने विदेशी खाने को देश में उपलब्ध करवा दिया है। खासकर चाईनीज, थाई, कॉन्टीनेटल और जापानी भोजन तो अब आसानी से मिलने लगा है।
सिक्के का दूसरा पहलू यह है कि इस खानपान ने स्वास्थ्य को चिंता में डाल दिया है। एक छोटा सा वर्ग ऐसा है जो स्वास्थ्यवर्धक भोजन पर जोर दे रहा है। बेंगलूरु स्थित विनीता मोंसाटा बताती हैं कि ‘पहले जो दादी-नानी पकाया करती थी वह मां भी सीख जाती थी लेकिन अब माएं ही रसोई में वक्त नहीं बिताती हैं तो आज की पीढ़ी को भी घर की रसोई का बना खाने में रुचि नहीं है। हमारा नियम है कि सबसे अच्छा खाना वह है जिसे धरती से उखाड़ो और मुंह में डाल लो लेकिन अब पता नहीं किस देश का खाना कहां-कहां मिलने लगा है।’ विनीता बताती हैं कि फ्यूजन फूड ने न केवल खाने का स्वाद बिगाड़ दिया है बल्कि इसे स्वास्थ्य से भी दूर कर दिया है। उनके अनुसार जैसे उनकी नानी दस दरह के डोसा बनाती थी लेकिन अब दो-तीन तरह के डोसे रह गए हैं वह भी उत्तर भारतीयों ने अपने तरीके के बना लिए। शेफ नवीन पंवर भी ऐसा ही बताते हैं। उनका कहना है कि आजकल लोगों को इटालियन ब्रैड में चिकन टिक्का खूब पसंद आ रहा है।
विनिता के अनुसार अजकल की आधुनिक माएं अगर रसोई में जाती भी हैं तो टीवी में दिखाई जाने वाली कॉन्टीनेंटल या चाइनीज डिश बनाती हैं। जबकि हमारा खाना मिट्टी से जुड़ा था न कि बंद डिब्बे से। पहले धरती से उखाड़, सिलवट्टे पर पीसा और घानी से निकले तेल में चीजें पकती थीं लेकिन अब प्रोसेस्ड मार्केट ने सारे स्वाद बदल दिए।