मुश्किल यही है कि आली को उतने सैलानी नहीं मिलते जितने बेदनी को मिल जाते हैं। जानकार लोग आली की इस बदकिस्मती की एक कहानी बताते हैं। किस्सा आली व ऑली में एक टाइपोग्राफी चूक का है। दोनों ही उत्तराखंड में हैं। ऑली बुग्याल जोशीमठ के पास है और इस समय देश के प्रमुखतम स्कीइंग रिजॉर्ट में से एक है। कहा जाता है कि ऑली को मिलने वाली सुविधाएं आली को मिलनी तय थीं। लेकिन बस फैसला होते समय नाम में कोई हर्फ या हिजा इधर से उधर हुआ और आली की जगह ऑली की सूरत बदल गई। हालांकि मेरी नजर में ऑली के हक में एक बात और यह भी जाती है कि वह सड़क के रास्ते में है। जोशीमठ से ऑली के लिए सड़क भी है और रोपवे भी।
आली यकीनन खूबसूरत है, लेकिन बेदनी बुग्याल चूंकि बहुचर्चित रूपकुंड ट्रैक के रास्ते में है इसलिए सैलानी अपना बेस बेदनी को बनाते हैं। आली के साथ एक दिक्कत यह भी है कि वहां पानी का कोई स्रोत नहीं है। बेदनी में बड़ा सा तालाब है जो उसकी अहमियत बढ़ा देता है। इस तालाब का तर्पण के लिहाज से धार्मिक महत्व भी है। इसी बेदनी कुंड के एक किनारे मंदिर में नंदा, महिषासुर मर्दिनी और काली की अति प्राचीन मूर्तियां स्थापित हैं। मान्यता यह है कि बेदनी में ही वेदों की रचना की गई, इसी से इस जगह का नाम बेदनी पड़ा। इसीलिए हर साल कुरूड़ में नंदा देवी के सिद्धपीठ से निकलने वाली छोटी जात बेदनी तक आती है और 12 साल में एक बार होनी तय राजजात का भी यह प्रमुख पड़ाव है।
लगभग 11 हजार फुट की ऊंचाई पर स्थित बेदनी और लगभग 12 हजार फुट की ऊंचाई पर स्थित बेदनी से लगा आली लगभग 12 किलोमीटर के इलाके में फैले हैं। मखमली घास के इन बुग्यालों में कई रंगों के फूल खिलते हैं। कई जड़ी-बूटियां यहां मिलती हैं। यहां के कुदरती नजारे, रंग बिरंगे फूलों से सजी मुलायम घास और कोहरे, बादल, धूप व बारिश की लुका-छिपी का खेल अदभुत व दुर्लभ है। बेदनी व आली में चारों तरफ फैले कई किलोमीटर के घास के ढलान स्कीइंग के बिलकुल माफिक हैं, लेकिन अभी उनका इस्तेमाल उस तरह से ज्यादा होता नहीं। स्थानीय लोग इन बुग्यालों पर भेड़-बकरी और घोड़े-खच्चर चराते हैं।
इतनी ऊंचाई की एक और मनमोहक खूबसूरती यहां से सूर्योदय व सूर्यास्त का शानदार नजारा है। बेदनी बुग्याल के ठीक सामने एक तरफ नंदा घुंटी चोटी है और दूजी ओर त्रिशूल। आली से दिखने वाला नजारा और भी खूबसूरत है। मौसम खुला हो और तड़के जल्दी उठने की हिम्मत कर सकें तो इन चोटियों पर पड़ने वाली सूरज की पहली किरण की खूबसूरती का जवाब नहीं। इसे केवल यहां आकर महसूस किया जा सकता है। इसीलिए राजजात यात्रा में शरीक होने वालों से यह कहा जाता रहा है कि आगे का सफर बेशक कठिन है लेकिन जब निकलें हैं तो बेदिनी तक जरूर जाएं।
लेकिन बेदनी पहुंचना भी इतना आसान नहीं। पहाड़ी आलू के लिए प्रसिद्ध वाण इस रास्ते का आखिरी गांव हैं। यहां से लगभग तीन किलोमीटर की सामान्य चढ़ाई के बाद रण की धार नामक जगह आती है। उसके बाद लगभग दो किलोमीटर का ढलान है और फिर नीचे नदी पर बने पुल से गैरोली पाताल होते हुए डोलियाधार तक सात किलोमीटर की दम फुला देने वाली खड़ी चढ़ाई। कहा जाता है कि पहले यही पुल राजजात यात्रा के समय महिलाओं के लिए आखिरी सीमा हुआ करता था। नंदा को विदा करने औरतें उस पार नहीं जाती थीं। बहरहाल, अब महिलाएं हेमकुंड तक पूरी राजजात बेहिचक करती हैं।
जब बेदनी जाने की धुन हो तो ऊंचाई नाप ही ली जाती है। लेकिन आपकी अपनी यात्रा धार्मिक श्रद्धा से प्रेरित न हो तो इतने मुश्किल रास्तों पर लोगों को नंगे पैर चढ़ते देख खासी हैरानी होती है। मेरे लिए बेदनी-रूपकुंड ट्रैक की यह पहली चढ़ाई थी। साथ ही यह अंदाजा था कि जिस भारी तादाद में लोग राजजात यात्रा में शामिल होकर ऊपर जा रहे हैं, उसमें इन जगहों की प्राकृतिक खूबसूरती को उस शिद्दत से महसूस कर पाना मुमकिन नहीं होगा। हकीकत भी यही थी। अस्थायी हैलीपेड से दिन में दसियों उड़ानें भरता हेलीकॉप्टर, घास के ढलानों पर पसरी पड़ी सैकड़ों टेंटों की कई सारी कॉलोनियां, ठौर-ठिकाना न मिलने पर नारेबाजी करते श्रद्धालु- लगता नहीं था कि हम 12 हजार फुट की ऊंचाई पर हैं। बेदनी पहुंचते-पहुंचते हुई बारिश ने पहले ही हालत पतली कर दी थी।
इसीलिए आली जाने का और भी मन था क्योंकि बेदनी को उसके मूल रूप में देखना दूभर था। इतनी ऊंचाई पर इतने लोगों के एक साथ पहुंचने का यह डर तो है ही। चमोली के एडीएम और राजजात यात्रा के लिए नियुक्त मेला अधिकारी एम.एस. बिष्ट का कहना था कि सरकारी अनुमानों के अनुसार बेदनी में 20 से 25 हजार के लगभग यात्री पहुंचे होंगे। इतने लोगों का एक साथ रुकना, उनके लिए (हजारों) टेंट जमीन में गाढ़े जाना, चाय-नाश्ते, खाने-पीने के इंतजाम, उठना-बैठना, पूजा-पाठ, शौच-नित्य कर्म फिर उनके आने-जाने के लिए रास्ते तैयार करना- उस जगह के हाल की कल्पना की जा सकती है। रास्ते पर फैलने वाला कचरा अलग। उसपर भी मुश्किल यह थी कि बेदनी से ऊपर बगवाबासा का इलाका ब्रह्मकमल व फेनकमल से भरा है और सब तरफ जड़ी-बूटियां फैली पड़ी हैं। दुर्लभ फूलों और जड़ी-बूटियों को नोचकर अपने झोलों में भरकर ले जाने वालों की तादाद कम न थी। ऊपर रूपकुंड में बिखरे पुराने रहस्यमय नरकंकाल सैलानियों, यात्रियों के लिए ट्रॉफी की तरह हैं- कुछ उन्हें तमगे की तरह साथ रख लेते हैं, कुछ उनके साथ सेल्फी खींचने को बेताब रहते हैं। इसलिए वे कुंड में अपनी मूल जगह से दूर अलग-अलग कोनों पर चट्टानों पर विविध डिजाइन में सजे नजर आते हैं।
बेदनी में फुर्सत की शाम का फायदा उठाते हुए आली बुग्याल तक जाने की एक वजह यह भी थी कि बेदनी में मोबाइल नेटवर्क काम नहीं कर रहा था। आली में मिलने की उम्मीद थी। आली जाने वाले हम चार-पांच साथी थे। रास्ता आसान था। रिमझिम बारिश ने माहौल खूबसूरत कर दिया था। दूर पश्चिम में डूबते सूरज की हल्की रोशनी चमकी और देखते ही देखते पूरब का बादलों ढका आसमान इंद्रधनुषी रंगों में नहा गया। अरसे बाद दोहरा इंद्रधनुष देखा।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और ट्रैवल वेबसाइट टॉप10इंडिया डॉट कॉम के संपादक हैं)