पार्टी बनने के पहले और तुरंत बाद में वह परशुराम की तरह फरसा उठाए समूल उन्मूलन के लिए भारत में भ्रष्ट्राचार के भांडे फोड़ती फिरती थी। अब दिल्ली में अपूर्व चुनावी जीत के बाद से वह उसी फरसे से खुद को खंड-खंड काट कर महत्वाकांक्षाओं, एकाधिकारवाद और तिकड़मों की राजनीतिक देवी के चरणों में हितोपदेश के वीरवर की तरह अपनी अंतिम बलि देने को उद्यत दिख रही है। यहां हमारा इरादा हाराकिरी के लिए आप के इसी उतावलेपन पर चर्चा करना है।
बलि के लिए अपनी ही गरदन पर आप के गड़ांसे के वार के पहले माला खसे और सर्व नियंत्रणवादी सत्ता की मूरत मुस्क्याए, इस चमत्कार में हमारी कोई दिलचस्पी नहीं। बल्कि अरविंद केजरीवाल, संजय सिंह, मनीष शिशोदिया, आशुतोष, आशीष खेतान, योगेंद्र यादव, प्रशांत भूषण प्रभृति नेता जिस तरह अपनी शिशु पार्टी के गंदे पोतड़े पब्लिक में धोते रहे वह रसे-रसे गंभीर राजनीति के बजाय प्राइम टाइम पर प्रहसन बनता जा रहा है। इसमें पब्लिक ने क्या नहीं देखा और क्या नहीं सुना: खतों का खुला खेल फर्रुखाबादी, ट्वीटर के विष बुझे तीर, रात-रात के संवाददाता सम्मेलन, स्टिंग ऑपरेशनों के दंश, फोन टेपों की जासूसी कथाएं, अफवाहों की फुसफुसाहटें, कानाफूसी की सियासत, साजिशों की सरसराहट, कथित तानाशाही की आहट, कथित तख्तापलट की तहरीक, असहमति का मखौल, कमेटी में क्रंदन, मैली मासूमियत का अक्स, प्यादों के कंधों से बंदूक दागता नेता, स्याह सियासी अंधेरे में नैतिकता के लबादों के अंदर से झांकती तिकड़म की छप्पन छुरियों की तीखी धारदार चमक, कड़वे मतभेद, मनभेद, मनमुटाव, बदजुबानी। यह क्या, राजनीति को पानी भर-भर कोसने वाले नैतिकता के सितारे तो राजनीति के निपुण नट निकले। कोतवाल, काजी और जल्लाद का किरदार एकसाथ निभाते हुए अंग्रेजी बुद्धू बक्से पर देशप्रेम का बौद्धिक लगाने वाले एंकर आम आदमी पार्टी के बारे में आतंकित करते हुए अंग्रेजीदां आम आदमी आनंदपूर्वक पूछते हैं, जमूरे, इनका खेल कैसा लगा? वह कहता है, अच्छा। मजा आया? आया।
लेकिन मजा तो बुद्धू बक्से के बौद्धिकों को आया, उनके उच्च मध्यवर्गीय दर्शकों को आया, उनकी रहनुमा पूंजी को आया, उससे पालित राजनीति की पुरानी नट पार्टियों को आया। वैकल्पिक राजनीति के आकाश कुसुम की ओर टकटकी बांधे देश के असली जमूरे आम आदमी के साथ तो जबर्दस्ती हुई, यही कहा जाना चाहिए। बहरहाल, पूरे घटनाक्रम ने आम आदमी पार्टी के सपनों की, वैकल्पिक राजनीति के सपनों की, आम आदमी पार्टी को मार कर सपनों में ही दफन कर दिया है। लेकिन अरविंद केजरीवाल की पार्टी बच गई है। वह आम आदमी पार्टी का बुत है जिसमें आम आदमी की तमन्नाओं का भुस भरा है। जैसे आज की कांग्रेस में महात्मा गांधी-नेहरू-पटेल-मौलाना आजाद की कांग्रेस के जमाने के आम जन या आज के समाजवादी उत्तराधिकारियों में लोहिया-नरेंद्रदेव-जयप्रकाश की सोशलिस्ट पार्टी के जमाने के इंसान या आज की साम्यवादी पार्टियों में पुराने कम्युनिस्टों के जमाने की अवाम की तमन्नाओं का भुस भरा है।
हो सकता है, जिस आम आदमी पार्टी का बुत अब केजरीवाल ढो रहे हैं, वह अन्य बुतों से थोड़ा बेहतर दिख कर और उनकी बेवकूफियों का लाभ उठाकर यहां-वहां चुनावी जीतें हासिल करती रह सकती है। जैसे देवत्व के सपनों से मंडित प्रतिमाएं मंदिरों में पूजित होती रहती हैं।
आम आदमी है - औरत सहित। अरविंद केजरीवाल हैं, उनके भक्त भी हैं। योगेंद्र यादव, प्रशांत भूषण भी हैं। उनके भी समर्थक हैं। सब हैं। पार्टी है, पार्टियां भी हैं। सिर्फ एक पार्टी नहीं है जो कइयों के मन में पूरी राजनीतिक ताजगी के साथ आ गई थी। अब देखें, वे कई आगे कहां जाते हैं। मझधार से किस धार में। या काला जल अभी ठहरा ही रहेगा?