अफगान संसद पर तालिबान ने हमला बोल दिया। सभी हमलावर मारे गए। कोई भी भारतीय हताहत नहीं हुआ लेकिन क्या आप समझ रहे हैं कि यह हमला सिर्फ अफगान संसद पर ही हुआ है? नहीं, यह भारत पर भी हुआ है। काबुल में बना अफगान—संसद का भवन किसने बनाया है? भारत ने। यह शानदार भवन भारत-अफगान मैत्री का जीवंत प्रतीक तो है ही, यह अफगान लोकतंत्र की मशाल भी है। इस पर हमला बोलकर तालिबान ने अफगानिस्तान, भारत और लोकतंत्र-तीनों को चुनौती दी है।
यों तो तालिबान ने काबुल के भारतीय राजदूतावास, हेरात के दूतावास और जरंज-दिलाराम मार्ग पर कई हमले किए हैं लेकिन अफगान संसद पर किए गए इस हमले का विशेष अर्थ है। जैसे भारत की संसद पर हमला किया गया था, वैसे ही अफगानिस्तान की संसद पर भी किया गया। दोनों हमलों का चरित्र एक-जैसा है। क्या इनके हमलावर भी एक जैसे ही हैं? क्या इनके हमलावरों की पीठ ठोकनेवाले भी एक-जैसे ही लोग हैं? इन प्रश्नों का उत्तर तो अफगान सरकार की जांच के बाद ही मिलेगा। लेकिन इस हमले से अमेरिका और भारत जैसे अफगानिस्तान के मित्रों को सतर्क हो जाने की जरुरत है।
पहली बात तो यह कि अमेरिकी वापसी के बाद अफगानिस्तान में शांति के आसार बहुत कम हैं। जब तक भारत और अमेरिका मिलकर पाकिस्तान को अपने साथ नहीं लेंगे, दुनिया की कोई ताकत इन हमलों को रोक नहीं सकती। पाकिस्तान अभी भी हमारे और तुम्हारे तालिबान के चक्कर में फंसा हुआ है। दूसरी बात, अशरफ गनी के राष्ट्रपति बनने से कोई खास फर्क नहीं पड़ा है। उन्होंने तालिबान और पाकिस्तान दोनों को पटाकर देख लिया है। उनके हाथ निराशा ही लगी है। कुंदूज जैसे फारसीभाषी प्रांत के दो जिलों पर भी तालिबान का कब्जा हो गया है। अफगान फौज में भी पठानों की बहुसंख्या है और तालिबान तो पठान ही हैं। इसीलिए फौज का भी कोई भरोसा नहीं है कि वह कब कौनसी करवट ले ले। अफगानिस्तान की आर्थिक स्थिति भी विषम है। इसके अलावा राष्ट्रपति गनी और प्रधानमंत्री अब्दुल्ला अब्दुल्ला में भी एका नहीं है। स्थिति काफी भयानक है।
ऐसे में भारत का हाथ पर हाथ धरे बैठा रहना ठीक नहीं है। अमेरिका का पिछलग्गू बने रहने से भी कोई फायदा नहीं है। भारत के लिए यह जबर्दस्त कूटनीतिक और रणनीतिक चुनौती है। हमारे अफसरों को चाहिए कि वे नेताओं को सारे पेंच समझाएं और उन्हें बड़ी कार्रवाई के लिए तैयार करें।