“स्त्रियों को अमूमन चरम सुख हासिल नहीं होता और अधिकांश पुरुष वर्ग इसे यूं बरतते हैं, जैसे किसी ने उनकी मर्दानगी को कमजोर बता दिया हो”
वह बात एक फेसबुक पेज पर हुई थी। डेटिंग साइट्स पर महिलाओं की बढ़ती संख्या बातचीत का मुद्दा था। यह मुद्दा नजदीक से स्त्री-यौनिकता को छूता था। बात जब भी स्त्री यौनिकता की होती है, विषय उसके स्वातंत्र्य पर केंद्रित होते चले जाते हैं। इस स्वातंत्र्य के परे सुख की दुनिया भी है, संभवतः जिसके अस्तित्व से भारत की अधिसंख्य महिलाएं अवगत नहीं हैं।
बात स्त्रियों के सुख की हो रही थी। उस देश में जहां स्त्रियां आगे बढ़कर प्रेम जाहिर नहीं कर पाती हैं, फेसबुक पर स्त्री के सेक्स करने और खुद को जाहिर करने के मुद्दे पर तीन-चार लोगों ने खुलकर बात की। उस बातचीत में कही गई बातों में एक बात पोस्टर के तौर पर सामने आई। इस पोस्टर में तीन साल पहले हुए एक सर्वे का जिक्र था। उस सर्वे के अनुसार भारत की लगभग 70 फीसदी स्त्रियों को अमूमन ऑर्गेज्म यानी चरम सुख नहीं हासिल होता है। मैंने उस सर्वे के हवाले से अपनी बात कही थी। बस यह बात कही गई और शोर मच गया।
शोर इतना ज्यादा था कि कहीं कुछ सुनने-समझने की गुंजाइश नहीं थी। अपने ओपिनियन के लिए मशहूर सोशल मीडिया को मेरा ओपिनियन रास नहीं आ रहा था। ओपिनियन रास नहीं आना आम बात है। पिछले कुछ सालों में नया ट्रेंड दिखा है, हर विरोधी विचार के खिलाफ सोशल मीडिया ट्रोलिंग या लिंचिंग का ऐसा दौर चलता है कि कहने वाले को अपनी बात रखने का अफसोस होने लगे।
सबके पास मेरे लिए अलग-अलग विशेषण थे, सभी के पास मेरे चरित्र का ब्यौरा था। सबके पास बांटने के लिए चरित्र प्रमाण पत्र था। जिसे देखो वह मुझे सौ प्रेमियों की प्रेमिका बताने में सक्षम था। यह सब मेरे लिए नया नहीं है। पहले भी मैंने अपनी बात कहने के लिए विरोध झेला है। पहले भी मेरी कही गई बातों पर मुझे विद्रूप लांछनाओं से नवाजा गया है। फर्क यह था कि बाकी वक्त में मैं अपने राजनैतिक विचारों के लिए असहमत वर्ग से ट्रोल होती थी, गालियां खाती थी, लेकिन इस बार मसला जरा अलग किस्म का था।
बात जब मर्दानगी पर आई
यह मामला सेक्स या यूं कहें सेक्स में स्त्रियों के सुख पर खुलकर बात करने का था। उस पूरी बात में कहा गया था कि स्त्रियों को अमूमन चरम सुख हासिल नहीं होता और अधिकांश पुरुष वर्ग इसे यूं बरतते हैं, जैसे किसी ने उनकी मर्दानगी को कमजोर बता दिया हो। भारतीय समाज में मर्दानगी यूं भी फूले हुए गुब्बारे की तरह है। हल्की चोट से भी आहत हो जाती है। बात जब फीमेल ऑर्गेज्म की हो, तो आहत होना लाजिमी है। यह स्त्रियों का आंतरिक मुद्दा है। स्त्रियों को इस पर इतनी खुलकर बात नहीं करनी चाहिए। उनका ऑब्जेक्टिफिकेशन होता रहे पर उन्हें अपनी सेक्सुअलिटी का जिक्र भूल कर भी नहीं करना चाहिए।
औरतें सेक्सुअलिटी का जिक्र करेंगी तो नर्क के रास्ते खुलेंगे। समाज छिन्न-भिन्न हो जाएगा। मीरा के निष्काम प्रेम के देश में काम-वासना की बात! छी, छी।
ऐसी बातें करने वाली औरतों को मर्दों के कोप का सामना करना ही पड़ेगा। जैसे इस बार यह कोप मुझ पर बरसा। न सिर्फ बरसा, बल्कि ऐसे बरसा कि जित देखूं तित नजर आऊं की तर्ज पर हर जगह मैं ही मैं नजर आ रही थी। भारी, मोटी, भद्दी, अश्लील जिस किस्स की भी गालियां हो सकती हैं, मेरे नाम के साथ लटकी हुईं थीं। और ये गालियां सिर्फ मुझे ही नहीं दी गईं, बल्कि मेरे पूरे परिवार, मेरे बीत चुके अतीत, छूट चुके परिजन, मेरे तमाम प्रेमियों और मेरे आगत जीवन को दी गईं।
मुश्किलें मुझ पर इतनी पड़ीं कि आसां हो गईं
सोशल मीडिया के शुरूआती दौर में मैं गालियों से बेहद आहत हो जाती थी। अक्सर अकाउंट बंद कर भाग जाने का मन करता था। फिर मैं गालीबाजों के सामने टिकने लगी। मैंने सोचा यही तो वे चाहते हैं कि मैं भाग जाऊं। अपनी बात न कहूं। मुझे अपनी बात कहना है तो यहां रुकना होगा, टिकना होगा। अब मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वे क्या कहते हैं। वे गालियां देते हैं और मैं अपनी बात कहती जाती हूं। गालियों के प्रति अब मेरी इम्युनिटी बन गई है। जैसे, बीमारियों से बचाव के लिए उसी वायरस का वैक्सीन तैयार होता है, ठीक वैसे ही शुरूआती गालियां मेरे लिए कवच बन गई हैं। अब मैं उन्हें बखूबी झेल सकती हूं और आगे भी झेलने के लिए तैयार हूं। मिर्जा गालिब इसी बात को एक जगह इस तरह कहते हैं, “रंज से खूगर हुआ इंसां तो मिट जाता है रंज, मुश्किलें मुझ पर पड़ीं इतनी कि आसां हो गईं।”
आम लफ्ज में इसे ढीठाई का नाम दिया जाएगा। ठीक है ढीठ ही सही पर कुछ ऐसे लोगों की आवाज तो बन पा रही हूं, जिन्हें अपनी बात कहने का साहस नहीं है। मैंने जान लिया है कि बोलने की कुछ तो कीमत होगी। चुप रहने से तो यह अच्छा ही है। महात्मा बुद्ध भी कह चुके हैं, “जो गालियां ली ही नहीं गईं, वे असर कैसे करेंगी।”
जब स्लट शेमिंग हो रही थी, तमाम नाम दिए जा रहे थे
मुझे खुद नहीं मालूम कि यह पढ़ाई-लिखाई है या फिर सोशल कंस्ट्रक्शन को तोड़ना, कुछ वक्त से मुझे इस बात से फर्क पड़ना बिलकुल बंद हो गया है कि लोग क्या कहेंगे। मेरी हकीकत से बावस्ता मेरे अतिरिक्त दुनिया का कोई शख्स नहीं हो सकता है। यह जीवन के तमाम लोगों के लिए शाश्वत है। दिनोंदिन यह बात जहन से उतरती चली जा रही है कि मुझे इस खांचे में फिट होना है, फलां के लिए ऐसा दिखना है, अलां के लिए ऐसे रहना है। ज्यों-ज्यों यह बात दिमाग से उतरती जा रही है, सामाजिक तौर पर मेरा अच्छी महिला होने का बुखार भी उतरता जा रहा है। इस बुखार का उतरना जैसे, मेरा मनमौजी होते जाना है। शायद एकल जिंदगी के चुनाव ने मेरे इस मनमौजीपन को हवा दी है। परिवार के अन्य सदस्य संभवतः इस मनमौजीपने को स्वीकार कर चुके हैं। अब जिंदगी उतनी मुश्किल नजर नहीं आती मुझे।
जब एसिड अटैक की बात हुई
पूरे मामले में मैंने केवल एक बात पर आपत्ति दर्ज की, तेजाब से मुझे नाली की तरह साफ कर दी जाने वाली धमकी। तेजाब की धमकी सिर्फ इसलिए कि मैंने अपनी बात कहने की ज़ुर्रत की थी। मैंने उन लड़कियों को देखा है, जो इस हमले के बाद तिल-तिल कर मरती रही हैं। यह स्त्रियों के साथ की जाने वाली क्रूरताओं की पराकाष्ठा है। मैं किसी को भी क्रूरता की हनक दिखाने नहीं दे सकती। यह अपराध है और इसकी सजा होनी चाहिए। बस इसलिए मैंने धमकी देने के खिलाफ एफआइआर की। बाकी, तो गंदी लड़की से कहीं ऊपर हूं मैं।
(शर्मिष्ठा और स्टापू पुस्तक की लेखिका। विचार निजी हैं।)