हार का मुख्य कारण महागठबंधन के समर्थक वोटों का एक-दूसरे को ट्रांसफर हो जाना माना गया और राज्य की बिहार ईकाई से रिपोर्ट तलब की गई, जिसके बाद हार की वजहों को ठीक किया जाएगा। लोकसभा चुनाव में चली मोदी लहर में भी बुरी तरह हार जाने वाले अरुण जेटली बिहार की बड़ी हार के कारणों का पता लगाएंगे।
एक तरफ हार के बाद ऐसा ठंडा रवैया अपनाया गया है तो दूसरी तरफ पार्टी और उसके सहयोगियों के मध्य घमासान मचा हुआ है, हारते ही भाजपा की दुश्मन किस्म की दोस्त पार्टी शिवसेना ने इसके लिए नरेंद्र मोदी को दोषी बता दिया, पूर्व गृह सचिव रहे पार्टी सांसद आर.के. सिंह ने भी कई गंभीर आरोप पार्टी नेतृत्व पर लगाए, उन्होंने तो चुनाव पूर्व टिकट बेचे जाने और अपराधियों को ज्यादा मौके देने तक की बातें उठाई थी। फिल्म अभिनेता और वरिष्ठ भाजपा नेता शत्रुघ्न सिन्हा ने कहा कि अगर जीत की ताली कैप्टन को तो हार की गाली भी कैप्टन को ही मिलेगी। सिन्हा ने साफ-साफ कहा कि गैर बिहारी पार्टी नेताओं ने आकर बिहार का चुनाव संभाला, जिन्हें यहां का भूगोल तक नहीं मालूम वो चुनाव संचालन कर रहे थे। हम जैसे स्थानीय लोगों को जान बूझकर दूर रखा गया। हुकूमदेव नारायण यादव और जीतन राम मांझी मोहन भागवत को दोषी ठहरा रहे है। उमा भारती का सारा आक्रोश शत्रुघ्न सिन्हा पर है कि उनकी साजिशों ने बिहार में बड़ी हार करवा दी है। कुल मिलाकर भाजपा के अंदर और एनडीए गठबंधन के बाहर महासंग्राम मचा हुआ है।
राजनीति के शोधार्थी, चुनाव विशेषज्ञ और नेता तथा मीडियाजन तरह-तरह के तर्क देकर इस हार जीत के पक्ष विपक्ष को समझाने की कवायद में जुटे हुए है। बधाईयां दी और ली जा रही है। कहा जा रहा है कि बिहार ने मोदी के रथ को ठीक उसी प्रकार रोक लिया है जिस प्रकार मोदी के एक वक्त के राजनीतिक गुरु लालकृष्ण आडवाणी का रथ इसी बिहार के समस्तीपुर में लालू प्रसाद यादव ने रोक दिया था। बहुत सारे लोगों ने इसे कट्टरपंथी ताकतों पर उदारवाद की जीत भी निरुपित किया है, बहुतों को लगता है कि यह ध्रुवीकरण की हिंसक राजनीति को नकारने का जनादेश है, कुछेक लोग इन बातों से इतर सोचते हैं और उन्हें इन चुनाव परिणामों में कुछ भी नया, क्रांतिकारी और उम्मीद से भरा हुआ नजर नहीं आता है। उनके मुताबिक यह परिणाम भी वैसे ही हैं जैसे कि अन्य चुनाव होते हैं।
अपनी-अपनी जगह हर बात ठीक बैठती है, फिर तर्क तो वैसे भी किसी के वफादार नहीं होते है, वे सबके लिए सब जगह काम आते रहते है और फिर राजनीति किन्हीं तर्कों पर टिकी ही कहां है, वह कब तार्किक रही है। जो लोग राजनीति को गणित समझ रहे थे, उन्हें भी बिहार परिणामों के बाद लगने लगा कि यह एक और एक दो होने का मामला नहीं है। यहां एक और एक चार भी हो सकते है और शून्य भी। जिन्हें चुनाव सिर्फ प्रबंधन का मामला लगता था, वे भी विभ्रम के शिकार हैं, उनका सारा प्रबंधन कौशल धराशायी नजर आ रहा है। बिहार चुनावों ने राजनीति को विज्ञान, गणित, तर्क और प्रबंधन से परे की वस्तु बनाने का काम कर दिया लगता है। राजनीति के विद्वतजन फिर से परिभाषाएं गढ़ने का प्रयास करेंगे, मगर विश्व की सबसे बड़ी मिस्ड कॉल पार्टी की चूलें जरूर हिली हुई है। अंदरखाने हाहाकार मचा हुआ है कि महामानव मोदी का तिलिस्म इतना जल्दी कैसे टूट गया है? शाह और बादशाह की गुजराती केमेस्ट्री का यह हश्र क्योंकर हुआ है। कारणों की खोज जारी है ...
भाजपा-संघ ने बिहार जीतने के लिए क्या-क्या नहीं किया ? जीतन राम मांझी को पटाया ताकि नीतीश कुमार के किले में सेंध लगा कर उन्हें उन्हीं के घर में धराशायी किया जा सके। बेचारे से अलग पार्टी बनवाई। खानदानी राजनीति के आधुनिक प्रतीक रामविलास पासवान को साथ लिया और जातिवादी राजनीति में निष्णात उपेंद्र कुशवाह से हाथ मिलाया गया, मुलायम पर सीबीआई का डंडा चलाकर उनको अलग किया गया। कई सारे वोटकटवा कबाड़े गए। इस तरह भाजपा का गठबंधन मैदान में उतरा। अपनी पूर्व स्थापित छवि को पुनः स्मरण करते हुए भाजपा ने अधिकांश उम्मीदवार सवर्ण समुदाय से चुने, वह अगड़ों तथा दलितों की गोलबंदी की कोशिश में लगी ताकि पिछड़ों को पछाड़ा जा सके। मुखौटा भले ही विकास का था मगर असली मुख जाति और धर्म का ही था। ले-देकर वही अगड़ा-पिछड़ा, गाय-बछडा की बयानबाजी चलती रही। प्रधानमंत्री ने अपने स्वाभाविक दंभ में बिहार के डीएनए पर प्रश्न चिन्ह लगाने की भूल कर ही दी, उनका बिहार को दिया गया पैकेज भी उल्टा ही पड़ा, उसे बिहार की बोली लगाना समझा गया तथा उससे भी ज्यादा यह माना गया कि यह वोट खरीदने का घटिया प्रयास है।
मोदीजी ने अपनी पूरी ताकत झोंक दी, प्रधानमंत्री ने 30 के लगभग रैलियां की तो अमित शाह ने 80 रैलियों को संबोधित किया। भाजपा गठबंधन के दर्जनों हेलीकॉप्टर आसमान में मंडराते रहे, लाखों की भीड़ भरी रैलियों के जरिये भाजपा ने यह भ्रम फैलाया कि उसकी एकतरफा जीत को कोई ‘माई का लाल’ नहीं रोक सकता है पर हुआ उल्टा ‘माई के लालू’ ने इन रैलियों की हवा निकाल दी। बताया जा रहा है कि जिन क्षेत्रों में मोदी की रैलियां हुईं, वहां अधिकतर जगहों पर उनका गठबंधन हार गया, सबसे मजेदार तथ्य तो यह है कि समस्तीपुर जहां पर प्रधानमंत्री की सबसे बड़ी सभा हुई, उस जिले में एक भी सीट पर भाजपा के उम्मीदवार नहीं जीत पाए। मतलब यह था कि लोग गाड़ियों में भर-भर कर लाए जा रहे थे, उनको मोदी-मोदी करना था। स्थानीय वोटर से किसी को कोई लेना-देना ही नहीं था। एक हवा बनाई जा रही थी, जैसी लोकसभा चुनाव के दौरान बनाई गई थी ठीक वैसी ही। इसमें मीडिया का एक बड़ा हिस्सा भी शामिल रहा, उसने भी तरह-तरह के सर्वे, रायशुमारियां और एक्जिट एवं ओपिनियन पोल कर-कर के उसी पूर्व निर्मित हवा को हवा दी, मगर बिहार की जनता ने सारे अनुमान, पोल, सर्वे और अंदाजों को हवा में उड़ा दिया। वे मोदी को देखने तो पहुंचे मगर उनके मन में कहीं नीतीश कुमार बसे हुए थे। जब वोट देने का मौका आया तो वो बाहरी मोदी को भूल गए। उन्हें अपना बिहारी बाबू याद रहा और उन्होंने एक ही झटके में बाहरी बनाम बिहारी का मुद्दा सुलझा लिया।
भाजपा की जननी संघ के पितृपुरुष अतिमानव मोहन भागवत द्वारा आरक्षित वर्गों के विरूद्ध शुरू की गई मुहिम का भी बिहार की जनता ने भ्रूण नाश कर दिया। भागवत ने आरक्षण की समीक्षा करने का राग छेड़ा, क्योंकि बिहार में आरक्षण विरोधी तबका पूरी तरह से उनके साथ खड़ा था, उसे मैसेज देने की कोशिश आर.एस.एस. प्रमुख ने की, उनके समर्थक उसका फायदा लेते इससे पहले ही लालू ने इसे लपक लिया और उसका ऐसा करारा जवाब दिया कि भाजपा बैकफुट पर आ गई, उसके लिए ना उगलते बना और ना ही निगलते। प्रधानमंत्री तक को कहना पड़ा कि आरक्षण के लिए मैं जान की बाजी तक लगा सकता हूं। पर बिहार की समझदार जनता ने इनकी जान ही निकाल दी और जो बाजी बची रही वह परिणामों में हार गए।
यह सही है कि मोदी का तिलिस्म टूट रहा है और यह पहली बार नहीं है। दिल्ली के विधानसभा चुनावों को इसका प्रारंभ बिंदु माना जा सकता है। उसके बाद उत्तर प्रदेश में हाल ही में हुए पंचायती राज के चुनाव भी एक संकेत देते है, वहां पर तमाम सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के बावजूद बसपा ने 80 फीसदी जगहों पर कब्जा कर लिया। मोदीजी के गृह क्षेत्र बनारस में भाजपा बुरी तरह से हारी। यहां तक कि जिस गांव को मोदीजी ने आदर्श गांव के तहत गोद लिया, उसका पंचायत प्रधान भी बसपा का बन गया, गोद लिए गांव ने भी मोदी को नकार दिया। केरल में वामपंथी गठबंधन ने पंचायत एवं निगम चुनावों में सर्वाधिक स्थान हासिल किए और अब बिहार ने 56 इंच के सीने को सिर्फ 58 सीट पर ला पटका। उनके सहयोगी जीतन राम मांझी की पार्टी से वे ही जीत पाए। इस तरह ‘हम’ सिर्फ ‘मैं’ में बदल गई, वैसे तो मांझी की नाव उनके पुराने क्षेत्र मखदुमपुर में ही डूब गयी थी, मगर इमामगंज ने उनकी लाज बचा ली, वरना हम पार्टी का राजनीतिक पटल पर पटाक्षेप ही हो जाता। भाजपा गठबंधन में शामिल सबसे बड़ी वंशवादी पार्टी लोकजन शक्ति पार्टी की खानदानी राजनीति का सूरज डूबता नजर आया। खुद पार्टी अध्यक्ष और बेटा संसदीय बोर्ड का अध्यक्ष फिर भी अपने भाई, भतीजे और दामादों को नहीं जीता पाए पासवान। गजब तो यह भी हुआ कि कट्टरपंथी और बेलगाम भाषा के संघी मुस्लिम संस्करण ओवैशी की पार्टी एमआईएम मुस्लिम बहुल इलाके में भी अपना खाता नहीं खोल पाई। बिहार के हिंदुओं और मुसलमानों ने मिलकर दोनों तरफ के कट्टरपंथी तत्वों को सरेआम नकार दिया।
बिहार का संदेश साफ है कि वह सामाजिक न्याय पर आधारित विकास का समर्थन करता है, उसे विकास का नीतीश कुमार मॉडल पसंद है, वह विकास के गुजराती संस्करण को नकारता है। उसे दंभ की राजनीति नहीं चाहिए, उसे गौमांस, पाकिस्तान और जंगलराज के नाम पर भ्रमित नहीं किया जा सकता है, वह एक सहिष्णु और सेकुलर भारत का तरफदार है, उसे हवा-हवाई नारेबाजी और कथित विकास की शोशेबाजी प्रभावित नहीं कर सकती है। बिहार की जनता का निर्णय एक परिपक्व राजनीतिक फैसला है, जिसके लिए पूरे देश के सोचने समझने वाले लोग बिहार का आभार प्रकट कर रहे है, जबकि दूसरी ओर मोदी की साईबर सेना ऑनलाइन गुंडागर्दी पर उतर आई है। चुनाव परिणाम के बाद से ही बिहार और बिहारियों की अस्मिता और स्वाभिमान को जमकर चोट पंहुचाई जा रही है। कोई कह रहा है कि तकदीर बनाते वक्त खुदा बिहार को भूल गया था, किसी को लगता है कि जब बुद्धि बंट रही थी तब बिहारी कहीं सोये हुए थे। कोई भक्त कोसी नदी माई से विनती कर रहा है कि इस बार बाढ़ से बिहारियों के घर संपत्ति नष्ट कर देना। किसी कि भगवान से इल्तजा है कि लालू को वोट देने वाले दुर्घटनाग्रस्त हो कर लूले लंगड़े हो जाएं। किसी को बिहार के लोग अब लुंगी छाप लगने लगे है, तो कैलाश विजयवर्गीय टाईप के भाजपा नेताओं को शत्रुघ्न जैसे बिहारी कुत्ते जैसे लग रहे है। अधिकांश नमो भक्तों ने चुनाव परिणाम के बाद यह लिख कर अपने कलेजे को ठंडक पहुंचाई है कि चलो अच्छा ही हुआ, अन्य राज्यों को सस्ती लेबर आगे भी मिलती रहेगी।
पता नहीं बिहार और बिहारियों को कितनी गालियां और देंगे मोदी भक्त? कहीं बिहार को ललकारना और अधिक भारी ना पड़ जाए उन्हें? बिहारियों की मेहनत और जिजीविषा का जवाब नहीं है, वे जहां चाहें वहां राह निकाल लेते हैं। उनकी राजनीतिक समझ भी पूरे देश की राजनीतिक चेतना से अलग और परिपक्व है, यह वे साबित कर रहे हैं। नमो भक्त शायद भूल रहे हैं कि बिहार सिर्फ सस्ते श्रमिक ही नहीं देता बल्कि सबसे ज्यादा भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी भी देता है। यह वही बिहार है जिसने आडवाणी की सांप्रदायिकता का रथ जाम कर दिया था। इसी बिहार के एक सपूत जयप्रकाश नारायण ने लोकतंत्र पर हुए आघात का जमकर प्रतिकार करने के लिए आपातकाल के खिलाफ जन आंदोलन चलाया और लोकनायक बन कर देश को दिशा दी थी। इसी बिहार ने तथागत बुद्ध और महावीर से देश को परिचित कराया था। नालंदा का विश्वविद्यालय क्या सिर्फ कल्पना है? ये वो ही बिहार है जहां के हजारों मुसलमानों ने भारत के बंटवारे के विरुद्ध दिल्ली पहुंच कर प्रदर्शन किया था। बिहार सिर्फ वो ही नहीं है जो आज मीडिया हमें परोसता है, बिहार एक सांस्कृतिक राजनीतिक विचार है, जो विश्व के जिस भी कोने में जाता है अपने झंडे गाड़ता है। मोदी जी, उसकी खिल्ली मत उड़ाइए। बिहार कोई खमण ढोकला नहीं है जिसे हर कोई खा जाए। बिहार का एहतराम कीजिये, बिहारियों के फैसले को सिर माथे से लगाइए ताकि आपकी आगे की राजनीति का रास्ता सुगम हो सके।
बिहार के निर्णय ने सांप्रदायिकता की अनुदार विचारसरणी को नकारने का रास्ता दिखाया है, उसने सर्वनाशी विकास की अवधारणा और मजहब आधारित राजनीति की संभावनाओं को नकारा है और देश को एक दिशा दी है। इसीलिए आज बिहार को सलाम करने का दिल करता है। बिहार से सीखने का मन होता है और बिहार के संदेश को देशव्यापी बनाने की इच्छा होती है।
( लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं।)