“चीन का अति महत्वाकांक्षी नेतृत्व सीमा पर जिस तरह की परिस्थितियां पैदा कर रहा है, उसे देखते हुए क्या युद्ध की आशंका है?”
भारत-चीन सीमा पर चार महीने से हिंसक झड़पें हो रही हैं, सैन्य जमावड़ा बढ़ रहा है, भारत ने 177 चाइनीज ऐप पर प्रतिबंध लगा दिया है, चीन से निवेश पर भी लगाम लगाई है और 4 सितंबर को मॉस्को में दोनों देशों के रक्षा मंत्रियों की बैठक बेनतीजा रही। क्या भारत और चीन के बीच युद्ध अवश्यंभावी है? यह सवाल अनेक लोगों के मन में है। दोनों तरफ से बयान जारी किए गए हैं। चीन के रक्षा मंत्री जनरल वेई फेंग-ही ने मौजूदा तनाव के लिए भारत को दोषी ठहराया और कहा कि चीन अपनी जमीन नहीं छोड़ सकता है। भारत की तरफ से रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने कहा कि सीमा पर शांति बनाए रखने के लिए भारतीय सैनिकों का रवैया हमेशा जिम्मेदाराना रहा है। मौजूदा गतिरोध के पीछे वह वास्तविक नियंत्रण रेखा है जो कभी खींची ही नहीं जा सकी। इस सीमा विवाद का अरसे से कोई समाधान नहीं निकल सका है।
भारत के खिलाफ चीन की हालिया सैन्य कार्रवाई को शी जिनपिंग के सत्ता के शिखर पर पहुंचने से जोड़कर देखा जा सकता है। जिनपिंग 15 नवंबर 2012 को चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव और सेंट्रल मिलिट्री कमीशन के चेयरमैन नियुक्त किए गए थे। 14 मार्च 2013 को उन्हें राष्ट्रपति नियुक्त किया गया। इसके एक पखवाड़े के बाद 29 मार्च 2013 को जिनपिंग ने भारत के साथ सीमा विवाद के जल्दी समाधान पर जोर दिया था। इसके 18 दिन बाद ही 15 अप्रैल 2013 को भारतीय सेना और पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) के बीच देपसांग में पहली बार आमना-सामना हुआ।
इसके बाद जैसे-जैसे सत्ता जिनपिंग के हाथों में केंद्रित होती गई, पीएलए का रवैया ज्यादा आक्रामक होता गया। वे सभी समझौतों और शांतिपूर्ण व्यवहार के प्रोटोकॉल का उल्लंघन करने लगा। चीन की रणनीति कुछ इस प्रकार रही है- अपनी शर्तों पर समाधान के लिए बात करो, सीमा में घुसपैठ और दावा करो, बातचीत की पेशकश करो और सीमा रेखा संशोधित करने के लिए दबाव डालो।
भारत और चीन बीच गतिरोध पर चीन के रक्षा मंत्री के हाल के बयान को वहां के मीडिया में बढ़ा-चढ़ा कर दिखाया जा रहा है। रोचक बात यह है कि स्थानीय मंदारिन भाषा की मीडिया में गतिरोध की खबरें 29 अगस्त के बाद ही दिखाई जा रही हैं। उससे पहले 15 जून को गलवन घाटी में मारे गए चीनी सैनिकों की खबर को गोपनीय रखा गया था। स्पष्ट है कि किसी संभावित युद्ध के लिए जनमानस को तैयार करने का प्रयास किया जा रहा है।
मीडिया में जो कुछ कहा जा रहा है, उसके पीछे चीन का वह मनोवैज्ञानिक युद्ध है जिसमें वह भारत को आक्रांता और चीन को आक्रांत बताने की कोशिश कर रहा है। लोगों का ब्रेनवॉश करने और एक वैकल्पिक कथा गढ़ने के लिए पार्टी का इस्तेमाल किया जा रहा है। जो बातें फैलाई जा रही है वह कुछ इस प्रकार हैं-
पहली बात, चीन और अमेरिका के बीच बिगड़ते संबंधों का बेजा फायदा उठाने के लिए भारत, चीन के साथ अपनी सीमा पर तनाव पैदा कर रहा है। इस तरह वह ताइवान के साथ सुधरते संबंधों का लाभ उठाने से चीन को रोक रहा है। यह दावा भी किया जा रहा है कि भारत और अमेरिका मिलकर काम कर रहे हैं। भारत ने पश्चिमी मोर्चे पर चीन को उलझा रखा है और अमेरिका ने पूर्वी और दक्षिणी मोर्चों पर। इस तरह चीन के लिए दो मोर्चों पर खतरा है।
दूसरी बात, भारत यह सब इसलिए कर रहा है ताकि वह अपने यहां अमेरिका की मध्यम दूरी तक मार करने वाली मिसाइलों की तैनाती को जायज ठहरा सके। चीनी विश्लेषकों के मुताबिक अमेरिका के लिए भारत इसलिए बेहतर विकल्प है क्योंकि दक्षिण कोरिया और जापान भौगोलिक दृष्टि से चीन के करीब है और वहां अमेरिका की तैनाती आसानी से पीएलए के रॉकेटों की जद में आ जाएगी।
तीसरी बात, बातचीत में गतिरोध को तोड़ने के लिए भारत वास्तविक नियंत्रण रेखा पर नया मोर्चा खोलकर विवाद का दायरा बढ़ा रहा है। उसने दक्षिण चीन सागर में युद्धपोतों की तैनाती भी की है। चौथी बात, भारत अपने यहां कोविड-19 महामारी के कारण बिगड़ती परिस्थिति और कमजोर होती अर्थव्यवस्था से लोगों का ध्यान भटकाने के लिए यह सब कर रहा है। चीन के इस प्रोपेगेंडा और मनोवैज्ञानिक युद्ध के बावजूद अप्रैल और मई में उसके आक्रामक रवैये के पीछे ये कारण हो सकते हैं-
पहला, भारत ने हाल ही 255 किलोमीटर लंबी डीएस-डीबीओ सड़क का निर्माण पूरा किया है। यह सड़क शाइओक नदी घाटी में दारबुक से दौलतबेग ओल्डी तक है। पूरब की तरफ इसे वास्तविक नियंत्रण रेखा से जोड़ने तक का काम चल रहा है। अक्साई चिन और तिब्बत-जिनजियांग हाइवे के लिए खतरा महसूस कर चीन ने भारतीय सीमा में इंफ्रास्ट्रक्चर के विकास को बाधित करने का फैसला किया है।
दूसरा, जिनपिंग के मास्टर प्रोजेक्ट बेल्ट ऐंड रोड इनीशिएटिव (बीआरआइ) और चीन-पाकिस्तान आर्थिक कॉरिडोर का भारत विरोध कर रहा है। जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 को बेमानी करने के बाद भारत ने लद्दाख को केंद्र शासित प्रदेश बना दिया है। संभवतः इसलिए चीन असुरक्षित महसूस करने लगा और उसने कार्रवाई की।
तीसरा, अमेरिका ने 2017 में अपनी भारत-प्रशांत रणनीति का खुलासा किया। इसके बाद अमेरिका और उसके सहयोगी देश जापान, ऑस्ट्रेलिया, भारत और आसियान के सदस्य इस रणनीति पर सहमत होते दिखे। चीन के लिए अमेरिका के प्रभुत्व को रोकना बेहद महत्वपूर्ण है। जिनपिंग को शायद लगा कि दबाव बनाकर भारत को अमेरिका के नेतृत्व वाली साझेदारी, समूह या गठजोड़ से दूर किया जा सकता है। इससे पहले चीन ने दक्षिण और पूर्वी चीन सागर में भी ऐसा ही किया, जब उसने ताइवान पर दबाव बनाया और हांगकांग के दमन की कोशिश की।
इस बात में संदेह नहीं कि चीन को गलवन में भारतीय सैनिकों के जल्दी पहुंचने और चीनी सैनिकों को रोकने की उम्मीद नहीं थी। राजनैतिक और सैन्य स्तर पर बातचीत में गतिरोध उत्पन्न होने के बाद चीन सीमा पर अपनी स्थिति मजबूत करने लगा। उसने बंकर बनाए और खासकर हाइवे से सीमाई इलाकों तक जाने वाली सड़कों की मरम्मत शुरू कर दी। वहां जे-20 स्टील्थ फाइटर जेट और एयर डिफेंस रडार तैनात किए जाने की भी खबरें हैं।
तिब्बत का मामला भी एक बार फिर सामने आया है। बीजिंग में 28-29 अगस्त को आयोजित सातवें ‘सेंट्रल सिंपोजियम ऑन तिब्बत वर्क’ में राष्ट्रपति जिनपिंग ने तिब्बत के सीमाई इलाकों में सुरक्षा व्यवस्था मजबूत करने के आदेश दिए। इसके तत्काल बाद पीएलए के सैनिकों ने पैंगोंग त्सो के दक्षिणी इलाके में यथास्थिति बदलने की कोशिश की। इसके बाद भारत ने भी ऐहतियातन पैंगोंग त्सो के दक्षिणी तट पर ऊंचाई वाले इलाकों में सैनिक तैनात कर दिए।
बातचीत में लाभ की स्थिति हासिल करने के बाद भारत चाहेगा कि दोनों में से कोई भी पक्ष ऐसी कार्रवाई न करे जिससे परिस्थिति जटिल हो या हालात और बिगड़ जाए। लेकिन महत्वपूर्ण मोर्चे पर भारतीय सेना की तैनाती के बाद पीएलए शायद ही शांति के लिए तैयार हो।
युद्ध जैसी स्थिति होने के बावजूद चीन पर जनसमर्थन जुटाने का दबाव है। 7 सितंबर को पीएलए की पश्चिमी कमान के प्रवक्ता ने दावा किया कि भारतीय सैनिकों ने दक्षिण पैंगोंग त्सो इलाके में आगे बढ़ रहे पीएलए सैनिकों पर चेतावनी देने के लिए गोलियां चलाईं। भारत ने इस दावे को खारिज करते हुए कहा, “यह घरेलू और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर लोगों को भ्रमित करने का प्रयास है। हकीकत तो यह है कि पीएलए के सैनिकों ने हवा में गोलियां चलाईं।”
चीन ने भारत के पड़ोसी देशों, पाकिस्तान और नेपाल को अपने पक्ष में करने में भले ही सफलता हासिल की हो, लेकिन भू-राजनीति के बड़े कैनवस पर वह अलग-थलग पड़ता जा रहा है। अमेरिका के अलावा इंग्लैंड, ऑस्ट्रेलिया, जापान, कनाडा, वियतनाम और फिलीपींस के साथ उसके संबंध बिगड़ रहे हैं। यहां तक कि चीन की चिंताओं को दरकिनार करते हुए रूस ने भी भारत को एस-400 एयर डिफेंस सिस्टम की आपूर्ति करने का निर्णय लिया है। यूरोप में भी चीन के कुछ करीबी मित्र अब उससे दूर हो रहे हैं।
25 अगस्त से 1 सितंबर तक चीन के विदेश मंत्री वांग यी ने इटली, नीदरलैंड, नॉर्वे, फ्रांस और जर्मनी का दौरा किया। इस दौरे का मकसद यूरोप को अमेरिका से दूर करना, चीन के साथ व्यापार संबंध मजबूत बनाना और यूरोपियन यूनियन के राष्ट्र प्रमुखों के साथ जिनपिंग की होने वाली शिखर वार्ता की तैयारी करना था। इस मकसद के विपरीत, हर देश में वांग यी को हांगकांग में कठोर नेशनल सिक्योरिटी लॉ लागू करने और चुनाव टालने, शिनजियांग में मानवाधिकार के उल्लंघन और दक्षिण चीन सागर में चीन के आक्रामक रवैये के कारण फटकार मिली। सबसे मुखर तो जर्मनी के विदेश मंत्री का वह बयान था, जिसमें उन्होंने कहा कि चीन और अमेरिका के झगड़े में यूरोपियन यूनियन खिलौना नहीं बनेगा।
मौजूदा हालात में अगर भारत के साथ युद्ध होता है तो उसका सैन्य, राजनयिक, राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक असर भारत-चीन संबंधों से इतर भी होगा। चीन जिस गठबंधन को रोकना चाहता है, युद्ध होने पर वह मूर्त रूप ले सकता है। महत्वाकांक्षी जिनपिंग खुद को एक नए युग ‘रूल चाइना, चाइना रूल द वर्ल्ड’ के केंद्र में देख रहे हैं। लेकिन वे संभवतः इस बात को नहीं समझ रहे हैं कि जिन देशों या नेताओं ने युद्ध की शुरुआत की है, वे शायद ही कभी विजेता बने।
चीन ने चार दशक से ज्यादा समय से कोई लड़ाई नहीं लड़ी है। क्या वहां का नेतृत्व युद्ध की कीमत समझता है, और अपने राजनीतिक लक्ष्यों को हासिल करने के लिए वे किस हद तक तबाही को तैयार हैं। 1979 में वियतनाम के साथ युद्ध में हालांकि किसी भी पक्ष ने हताहतों की संख्या सार्वजनिक नहीं की थी, फिर भी अनुमान है कि करीब 28,000 चीनियों की मौत हुई थी और 43,000 घायल हुए थे। वियतनाम के मृतकों की संख्या 10,000 से कम बताई जाती है।
चीन का रवैया सशर्त संघर्ष जैसा, या कहें ग्रे जोन ऑपरेशन (जिसमें न युद्ध होता है न शांति रहती है) वाला है। लेकिन ऐसा करके चीन को न तो सीमाई इलाकों में भारत को इन्फ्रास्ट्रक्चर के विकास से रोकने में सफलता मिली है, न ही बीआरआइ के मोर्चे पर वह कामयाब हो सका है। इसके विपरीत, उसने भारत को यह तय करने में जरूर मदद की कि भारत-प्रशांत रणनीति पर उसे क्या रवैया अख्तियार करना चाहिए।
चीन की यह हेकड़ी, जो तथाकथित ‘व्यापक राष्ट्रीय शक्ति’ के कारण है, पश्चिम एशिया से उर्जा की लगातार आपूर्ति पर निर्भर है। इसकी आर्थिक और रक्षा शक्ति, दोनों तेल की आपूर्ति पर आश्रित हैं। चीन-पाकिस्तान आर्थिक कॉरिडोर (सीपीइसी) और उसके मलाका डिलेमा (चीन को 80 फीसदी कच्चे तेल की आपूर्ति मलाका जलडमरूमध्य से होती है, यह नाम हू जिंताओ ने दिया था) के समाधान में अभी वक्त लगेगा।
अब जब चीन अंतरराष्ट्रीय रूप से अलग-थलग है और उसकी आर्थिक और आंतरिक परिस्थितियां चुनौतीपूर्ण हैं, इस तरह की हेकड़ी से भारत और तिब्बत में उसके लिए दो और मोर्चे खुल जाएंगे। दक्षिण चीन सागर, ताइवान और हांगकांग में चीन ने पहले ही मोर्चे खोल रखे हैं।
उम्मीद है कि भारत के जवाब को देखते हुए चीन इस बात को समझेगा कि कुल सैन्य शक्ति और इन्फ्रास्ट्रक्चर के मामले में वह भले ही भारत से आगे हो, भारत भी जल, थल और वायु में अपने सैन्य बलों को तैनात कर सकता है। इसके अलावा, पीएलए में अनिवार्य रूप से भर्ती किए जाने वाले सैनिकों की तुलना में भारतीय सैनिकों के पास ज्यादा ऊंचाई पर युद्ध लड़ने का कौशल अधिक है। अर्थात भारत, चीन के लिए एक दुर्जेय दुश्मन साबित हो सकता है।
भारत सीमा विवाद का समाधान चाहता है। हाल में उसने कहा है कि सीमा विवाद को व्यापार, निवेश और अर्थव्यवस्था से अलग नहीं किया जा सकता है। सतर्क रहने और सैनिक क्षमता बढ़ाने के साथ भारत समझता है कि सीमा विवाद के सैनिक समाधान के बदले राजनीतिक समाधान की जरूरत है।
भारत तनाव बढ़ाने के पक्ष में नहीं है। ऐसा करना चीन के भी हित में नहीं। लेकिन हेकड़ी, आधिपत्य और विस्तारवादी महत्वाकांक्षा रखने वाला चीन का नेतृत्व आक्रामक रवैया बरकरार रख सकता है। ऐतिहासिक रूप से देखें तो जो देश हठी रूप से युद्ध का रास्ता अपनाते हैं और आक्रामकता को ही उचित मानते हैं, वे व्यावहारिक समाधान की बात शायद ही मानते हैं।
चीन के किसी भी उकसावे का सामना करने के लिए भारत को तैयार रहना चाहिए। अगर वह भारत को युद्ध में घसीटता है तो उसे मुंहतोड़ जवाब देना चाहिए। इससे भारत को नई विश्व व्यवस्था में अपनी शक्ति स्थापित करने का अवसर मिलेगा।
(लेखक राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार बोर्ड के सदस्य, पूर्व उप-सेना प्रमुख और कश्मीर के कोर कमांडर रहे हैं। यहां व्यक्त राय निजी हैं)