"आज यानी 28 नवंबर को छत्तीसगढ़ में 'छत्तीसगढ़ी राजभाषा दिवस' मनाया जा रहा है। लेकिन इस 'जनभाषा' के लिए सरकार की ओर से आज तक यथोचित व्यवहार का नितांत अभाव ही दिखा है। यहां तक कि राजभाषा का दर्जा हासिल होने के बावजूद अब तक सरकारी कामकाज में इसे अपनाए जाने को लेकर बेरुखी ही सामने आई है।"
एक नवम्बर 2000 को संयुक्त-मध्यप्रदेश से अलग-राज्य बना छत्तीसगढ़, 'पृथक' जरूर हुआ परन्तु 'स्वतन्त्र' नहीं ! आज भी उसकी वैसी 'स्वतन्त्र-पहचान' नहीं बन पाई है जैसी बन जानी चाहिए थी। दरअसल, छत्तीसगढ़ की पहचान है 'छत्तीसगढ़ी-संस्कृति' जिसकी वाहक है 'छत्तीसगढ़ी-भाषा' जो दो करोड़ छत्तीसगढ़ियों की 'मातृभाषा' होने के कारण ढाई करोड़ छत्तीसगढ़वासी-छत्तीसगढ़ियों की 'जनभाषा' भी है।
इसीलिए 28 नवम्बर 2007 को छत्तीसगढ़ की विधान-सभा में एकमतेन राजभाषा-विधेयक पारित कर छत्तीसगढ़ी को यहाँ की अधिकृत कानूनी-'राजभाषा' का दर्जा दिया गया। किन्तु , आज तक उस 'राजभाषा-छत्तीसगढ़ी' में न तो कोई 'सरकारी-कामकाज' हो रहा है और न ही कोई 'लिखाई-पढाई'। सरकार और समाज दोनों ही उदासीनता का व्यवहार कर रहे हैं। सारे ही क्रिया-कलाप पूर्ववत मध्यप्रदेश के उपनिवेश जैसे ही चल रहे हैं। जैसे हिन्दी-भाषी मध्यप्रदेश का ही अंग हो हिन्दी-भाषी छत्तीसगढ़ ! छत्तीसगढ़ी-भाषी छत्तीसगढ़ नहीं। उसकी कोई स्वतन्त्र-पहचान नहीं है सिवाय पृथक राजनैतिक-सत्ता के।
....यदि राजनैतिक दृष्टि से ही छत्तीसगढ़ का विचार किया जाय तो यह छत्तीसगढ़ , वह छत्तीसगढ़ नहीं है जो आजादी के पहले अंग्रेजों के अधीन सी.पी. एंड बरार के अन्तर्गत था। उस काल में आज के छत्तीसगढ़ के साथ सम्बलपुर सहित समग्र पश्चिम ओडिशा सम्मिलित था जो सूबा छत्तीसगढ़ कहलाता था। जो 1905 में भाषाई-राजनीति का शिकार बना कर छत्तीसगढ़ से अलग कर दिया गया। .....यह वह छत्तीसगढ़ भी नहीं है जो मराठों के अधीन 18 वीं-19 वीं शताब्दी में था। उस समय महा-जनपद कोसल के अन्तर्गत रतनपुर-राज के 18 गढ़ों और रायपुर- राज के 18 गढ़ों को मिलाकर बने 36 गढ़ों के राजनैतिक-क्षेत्र को छत्तीसगढ़ कहा जाता था।
मराठों के अधीन इस छत्तीसगढ़ के बाहर के क्षेत्र सरगुजा , बस्तर व सम्बलपुर (याने वर्तमान पश्चिम ओडिशा ) राज को मिलाकर बनने वाले क्षेत्र को कोसल दक्षिण कोसल, महाकोसल कहा जाता था। कविवर बाबू रेवाराम लिखित "विक्रम विलास" में स्पष्ट अंकित है--"दिल्ली तखत तासु के स्वामी / चारिहु फल तहँ हैं अनुगामी // तिनमें दक्षिन कोसल देसा / जहँ हरी ओतु केसरी वेसा // तासु मध्य छत्तिसगढ़ पावन / पुण्य भूमि सुर मुनि मन भावन // ( श्री विष्णु--महायज्ञ (रत्नपुर) स्मारक--ग्रन्थ : सम्पादक-श्री प्यारेलाल गुप्त ; पृष्ठ 140 )।
..इस समूचे क्षेत्र की एक संस्कृति थी--कोसल। जिसकी वाहक-भाषा थी--कोसली। उसी कोसली को आज "छत्तीसगढ़ी" कहते हैं जिसके भिन्न-भिन्न रूप हैं--हलबी, भतरी ,सदरी आदि अनेक स्थानीय,जातीय बोली-भाषाएँ। यही छत्तीसगढ़ी ही सांस्कृतिक-पहिचान है आज के छत्तीसगढ़ की। इसलिए जब तक हिन्दी से 'पृथक-स्थापना' छत्तीसगढ़ी की नहीं हो जाती तब तक पृथक छत्तीसगढ़ की स्थापना अधूरी है। तब तक मध्यप्रदेश से पृथक होते हुए भी उसका उपनिवेश ही है छत्तीसगढ़, स्वतन्त्र नहीं। अपनी अस्मिता खो कर पृथक-पहचान की प्रसन्नता कैसी? अपनी पृथक-पहचान "छत्तीसगढ़ी" के लिए जीना-मरना कब सीखेगा "छत्तीसगढ़िया"?
(लेखक छत्तीसगढ़ में छत्तीसगढ़ी समेत अन्य स्थानीय भाषाओं के लिए अभियान चलाते हैं। लेख में व्यक्त विचार उनके निजी हैं। )