Advertisement

कोर्ट के साइबर फैसले से नागरिक गौरवान्वित

यह आम बात हो गई है कि भारत के राजनीतिज्ञ कठोर राजनीतिक फैसले लेने से कतराते हैं और उन्हें अदालत के भरोसे छोड़ देते हैं। राजनैतिक, कार्यकारी और विधायी जिम्मेदारियों से यह पलायन ही न्यायिक सक्रियतावाद को जन्म देता है।
कोर्ट के साइबर फैसले से नागरिक गौरवान्वित

लेकिन नरेन्द्र मोदी ने हमें विश्वास दिलाया था कि वह भिन्न हैं : राजनीतिक इच्छाशक्ति और 56 इंच की छाती वाले मजबूत नेता। हमें बताया गया था कि वह लुट्यन की दिल्ली के लिए बाहरी व्यक्ति हैं,  उसकी अदाओं से मोहित नहीं हैं, उसकी आदतों के गुलाम नहीं हैं, न ही उसका आलस्य और जड़ता उन्हें छू गई है।  यूपीए - 2 की इंटरनेट सेंसरशीप के खिलाफ उन्होंने अपने ट्वीटर प्रोफाइल को काला कर दिया था और हमारे लिए अच्छे दिनों का वायदा किया था।

लेकिन प्रधानमंत्री बनकर उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में यूपीए के ही दमनकारी इंटरनेट कानूनों का बचाव किया। यदि सुप्रीम कोर्ट जो चाहे वह फैसला सुना सकता है तो फिर अपने हाथ क्यों गंदे करो ? इसलिए अदालत में अपना रवैया भी कपिल सिब्बल वाला ही रखो। इसलिए साइबर सुरक्षा के बारे में वैसा ही डर फैलाएं और वही क्षमाप्रार्थी राग उस कानून के 'दुरुपयोग’ को लेकर अलापें जो इतना खराब है कि उसका उपयोग हो या दुरुपयोग, एक ही बात है।

इंटरनेट पर झुंझलाहट पैदा करने के आरोप में लोगों की रातोंरात गिरक्रतारी जैसी छोटी-छोटी बातों पर राजनीतिक पूंजी भला क्यों खर्च करें? भला इन ओछे मसलों के लिए थोड़े ही पहली बार भारत की जनता ने मोदी को 1984 के बाद पूर्ण बहुमत के योग्य समझा? अफसोस कि मोदी लुट्यन के रमे-रमाय बाशिंदे साबित हुए। लुट्यन की दिल्ली की परंपरागत राहों पर चलकर मोदी ने एक महान राजनीतिक अवसर गवां दिया।

वह असली नेता हो सकते थे और धारा 66ए को रद्द कर कथनी-करनी की एकता दिखा सकते थे। दिखा सकते थे कि वह कांग्रेस की तरह नहीं हैं। कि लुट्यन की दिल्ली के गोल चक्करों में बहने वाली हवा का रुख वह मोड़ देंगे। कि वह बात के पक्के हैं। कि वह सही वक्त पर सही काम करते हैं। कि उन्हें हमारी चिंता है। बजाय इसके, उनके वकीलों ने अदालत को बताया कि धारा 66ए और आईटी कानून के अन्य समस्याग्रस्त प्रावधानों को रद्द करने के इच्छुक लोग सिर्फ 'व्यापारिक हितों’ वाली इंटरनेट कंपनियों के हाथों में खेल रहे हैं। तो यह है डिजिटल भारत।

अरुण जेटली और अन्य लोगों ने यूपीए की इंटरनेट सेंसरशीप की तुलना 1975 में इंदिरा गांधी के आपातकाल की सेंसरशीप से की थी। लेकिन उन्हीं इंटरनेट कानूनों का बचाव कर भारतीय जनता पार्टी ने दिखला दिया कि वह आपातकाल की ही प्रसन्न संतान है। सत्ता में आने पर भाजपा भी असहमति के स्वर दबाने वाले कानूनों को अपने तरकश में रखकर खुश होती है। उपयोग या दुरुयोग से ज्यादा कारगर 66ए की खतरनाक धमकी थी।

उसका असर बर्फानी था। वह लोगों में ऑनलाईन अभिव्यक्ति के प्रति भय पैदा करती थी। जब नागरिक पांच साल में एक बार वोट दे सकते हैं तो उन्हें सरकार से नापसंदगी के भडक़ाऊ संदेश प्रेषित कर कांग्रेस और भाजपा के राजनीतिज्ञों को नाराज करने की क्या जरूरत है? सर्वोच्च न्यायालय ने आपातकाल के दौरान भारतीयों को निराश किया था। आज उसने हमें गौरव से भर दिया है।

अब आप हिंदी आउटलुक अपने मोबाइल पर भी पढ़ सकते हैं। डाउनलोड करें आउटलुक हिंदी एप गूगल प्ले स्टोर या एपल स्टोर से
Advertisement
Advertisement
Advertisement
  Close Ad