इसमें कोई नई बात नहीं है। जब से राम मंदिर निर्माण का अभियान स्वतंत्र भारत में शुरू हुआ है तबसे यह तबका निरंतर ऐसे आरोप लगाता रहता है। नई बात यह है कि अब इन आरोपों का प्रभाव लोगों में ही नहीं बल्कि इनके समर्थक समझे जाने वाले तबके में भी छीन होता जा रहा है। इस वर्ग की एक खास विशेषता है। भारत की अस्मिता, सांस्कृतिक विरासत और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद से जुड़े सभी प्रश्नों को नफरत से देखना।
जब पचास के दशक में सोमनाथ मंदिर का प्रश्न उठा या साठ-सत्तर के दशक में कन्याकुमारी में विवेकानंद शिला स्मारक का अभियान शुरू हुआ तब खास बुद्धिजीवियों और राजनीतिज्ञों ने इन्हें रोकने और इस पर आंसू बहाने का काम किया। ये भारतीय समाज के रूदाली हैं जो सभी सांस्कृतिक प्रश्नों पर व्यावसायिक तरीके से रोने-पीटने के लिए तैयार बैठे रहते हैं। इसका एक उपयुक्त उदाहरण हाल के वर्षों का है। 30 सितंबर, 2010 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने अयोध्या मसले पर ऐतिहासिक निर्णय दिया। पूरा देश इसकी प्रतीक्षा कर रहा था। तब भी रूदालियों ने देश में संशय, संदेह और सांप्रदायिकता का मनोविज्ञान बनाने का प्रयास किया था। मानो निर्णय के बाद देश सांप्रदायिकता की आग में झुलस जाएगा। पर ऐसा हुआ नहीं। मोहन भागवत जी ने इस निर्णय पर जो बात कही वह भारतीय सांस्कृतिक चेतना का बोध कराता है। उन्होंने कहा, 'यह न किसी की जीत है न किसी की हार।’ भारतीय समाज एक परिपक्व समाज है। परिपक्वता के साथ इसकी ऐतिहासिकता और बौद्धिकता जुड़ी हुई है। हजारों साल की विरासत पर खड़े लोगों को मुट्ठी भर लोग और मुद्दे भड़का या भटका नहीं सकते हैं। हर भारतीय बौद्धिक है। वह अपने स्तर पर सत्संग और विमर्श करता है। वह अपने विवेक और भावना का उपयोग जानता है। बंद कमरे में बैठे कुछ बुद्धिजीवियों को भले लगता हो कि वे समाज के मार्गदर्शक हैं पर यह उनकी गलतफहमी है। अगर ऐसा होता तो इस देश के लोग रोमिला थापर, डी.एन. झा और विपिन चंद्रा को पढ़कर अपनी इतिहास दृष्टि बदल चुके होते। परंतु डी.डी. कोसांबी से रामशरण शर्मा तक सांस्कृतिक व राजनीतिक इतिहास की व्याख्या करते रहे, एन.सी.ई.आर.टी. की पुस्तकों में खास दृष्टि परोसी जाती रही परंतु सब निष्प्रभावी या क्षणिक प्रभावी साबित होते रहे। इन्होंने इतिहास की पुस्तकों में औरंगजेब को उदार, हिंदू हितों के प्रति संवेदनशील और महान साबित किया। उसके उदार और संस्कृतिनिष्ठ भाई दाराशिकोह को चंद पंक्तियों में निपटा दिया। पर जनमानस अपनी बौद्धिक क्षमता के आधार पर ही अपनी बुनियादी सोच निर्धारित करती रही। ऐसे ही स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास को राज्य प्रश्रित मार्क्सवादी रूदालियों ने कुलीन परिवारों एवं नेताओं के हवाले कर दिया। सुभाषचंद्र बोस को कुछ पंक्तियों में हाशिये पर रखा गया पर जन बौद्धिकता ने इस कम्युनिस्ट और सरकारी इतिहास के आईने में स्वतंत्रता संग्राम को देखने-समझने से इनकार कर दिया।
राम मंदिर के मुद्दे पर भी जनमत इनके खिलाफ है। इन्हें रूदाली क्यों कहा गया? रूदाली राजस्थान की एक विशेष जाति है जो शोक के अवसर पर व्यावसायिक रूप से रोने के धंधे में है। इनके आंसुओं में न सरोकार होता है और न ही संवेदना। अल्प सूचना पर ये शोक का वातावरण बना देते हैं। इस कला में इन्हें महारत हासिल है। तभी तो अयोध्या के प्रश्न पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय का निर्णय आने के दो दिनों बाद मार्क्सवादी संस्था 'सहमत’ ने एक प्रेस विज्ञप्ति जारी कर निर्णय की आलोचना कर दी। इसमें साठ मार्क्सवादी या उनसे सहमति रखने वाले बुद्धिजीवियों के हस्ताक्षर थे। फैसला आठ हजार पृष्ठों का था। हस्ताक्षर करने वालों में अधिकांश ने तो निर्णय की प्रति को देखा तक नहीं था। निर्णय की आलोचना करना उतना बड़ा गुनाह नहीं है जितना निर्णय को खारिज करने के लिए झूठे तर्कों का सहारा लेना। इन्होंने कहा कि निर्णय गलत इतिहास, गलत तर्क और पंथनिरपेक्षता के मूल्यों के खिलाफ है।
तीन न्यायाधीशों एस.यू. खान, सुधीर अग्रवाल और डी.वी. शर्मा ने लंबे ट्रायल के बाद हजारों साक्ष्यों को ध्यान में रखकर फैसला मंदिर के पक्ष में दिया था। इन साक्ष्यों का आधार भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) के द्वारा खुदाई में प्राप्त सामग्रियां थीं जो निर्णय में महत्वपूर्ण आधार साबित हुईं। इनसे पूछा जाना चाहिए कि इन्होंने चंद घंटों में सभी साक्ष्यों की प्रामाणिकता कैसे स्थापित कर ली?
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की मंदिर निर्माण की प्रतिबद्धता को चुनावी राजनीति से वही जोड़ते हैं जो इस विवाद को अनंतकाल का उपक्रम बनाकर रखना चाहते हैं। एक जीवंत समाज सामाजिक सांस्कृतिक समस्याओं को टालता नहीं है, उसे खाद-पानी नहीं देता है बल्कि उसका निदान ढूंढता है। भारतीय समाज ने अपने इतिहास में अनेक जटिल प्रश्नों का निदान किया है तो राम मंदिर का समाधान क्यों नहीं हो सकता है? मोहन भागवत जी ने जो सूत्र दिया है कि वह संभवत: समाधान के लिए श्रेष्ठतम मार्ग है। सोमनाथ मंदिर के तर्ज पर राम मंदिर का निर्माण होना चाहिए। सोमनाथ मंदिर को गजनवी ने 11वीं शताब्दी में ध्वस्त किया तो राम मंदिर को बाबर ने 16वीं शताब्दी में ध्वस्त किया था। जब सोमनाथ मंदिर निर्माण का संकल्प सरदार पटेल ने जूनागढ़ के भारत में विलय के समय लिया तो तब के रूदालियों ने भी इसे भारत की पंथनिरपेक्षता पर हमला कहा था। उनकी पंथनिरपेक्षता का मतलब होता है हिंदू मन, संस्कृति, सभ्यता का अपमान और उपेक्षा करना। तभी तो दादरी की निंदनीय और दुर्भाग्यपूर्ण घटना पर चिल्लाने वाले, अवॉर्ड वापसी का ढोंग करने वाले पश्चिम बंगाल के मालदा में हिंदुओं पर हुई संगठित हिंसा और लूटपाट पर कुंभकर्णी नींद में सोए रहे। इस दोहरे व्यवहार ने उनकी विश्वसनीयता और सामाजिक समर्थन दोनों को समाप्त कर दिया।
सोमनाथ मंदिर निर्माण ट्रस्ट से स्वयं डॉ. राजेंद्र प्रसाद एवं नेहरू मंत्रिमंडल के दो सदस्य के.एम. मुंशी और एन.वी. गाडगिल जुड़े हुए थे। डॉ. प्रसाद इसके वित्तीय आयाम देख रहे थे। महात्मा गांधी ने अपने जीवनकाल में इसके विरोध का प्रतिकार किया था। पंडित जवाहरलाल नेहरू जरूर असहमत थे परंतु उनकी यूरोप केंद्रित दृष्टि भारत केंद्रित सांस्कृतिक प्रवाह में तिनका साबित हुई। आज सहमति के आसार दिख रहे हैं। समाजवादी पार्टी को अपने एक मंत्री ओमपाल नेहरा को उत्तर प्रदेश मंत्रिमंडल से इसलिए हटाना पड़ा क्योंकि वे मंदिर के समर्थन में सामने आए। अभी यह बात थमी नहीं कि इसी पार्टी के बुक्कल नवाब भी मंदिर निर्माण के पक्ष में खड़े हो गए।
भगवान राम का आध्यात्मिक रूप के साथ-साथ सभ्यताई और सांस्कृतिक स्वरूप भी है। इसे बखूबी समाजवादी चिंतक डॉ. राममनोहर लोहिया ने 'राम कृष्ण शिव’ नामक लेख में अभिव्यक्त किया है। इसलिए इस प्रश्न को पूरी तरह से सर्वोच्च न्यायालय पर छोड़ देना अनुचित होगा। न्यायालय से बाहर संवाद और सहमति का प्रयास गांठों को खोलने का काम करेगा।
(लेखक भारत नीति प्रतिष्ठान के मानद निदेशक हैं)