उसी वक्त यह एक संयोग रहा कि सर्वोच्च गुरू ने भी अपने शिष्यों द्वारा संचालित सरकार की 'क्लास’ ली। सबके सामने। इससे संघ-भाजपा के संबंधों पर उग्र बहस शुरू हो गई कि क्या भाजपा सरकार पर संघ का 'नैतिक’ अधिकार संविधान का उल्लंघन करता है। निश्चित तौर पर इसकी तुलना सोनिया गांधी की राष्ट्रीय सलाहकार परिषद (एनएसी) से की जाती रही है। इससे मेरे लिए भी देर से स्वीकारोक्ति का उचित मौका मिल गया और आज के राजनीतिक माहौल में कहें तो 50 वर्ष पहले के तथ्य पर इतराने का मौका मिला कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने मुझ पर दोहरी कृपा बरसाई जिसे मेरे अभिभावकों ने आभार सहित स्वीकार कर लिया। मेरे पास 1965-66 के दौर में स्कूल की पांचवीं कक्षा की एक सामूहिक लेकिन धुंधली तस्वीर है। उस स्कूल का नाम था सरस्वती शिशु मंदिर, जो संघ द्वारा पूरे देश में छोटे बच्चों के स्कूलों की श्रृंखला की ही एक कड़ी था, जबकि बड़े बच्चों के लिए विद्या मंदिर की श्रृंखला थी।
अब बताता हूं कि संघ ने मुझ पर दो अहसान क्या किए: पहला, 1962-63 में मैं हरियाणा के छोटे से शहर पलवल (यह आगरा से दिल्ली आते वक्त ग्रांड ट्रंक रोड पर 60 किलोमीटर की दूरी पर बसा है) में पहुंच गया जो उस समय थोड़ी दूर स्थित एक सिनेमा हॉल (यहीं हमने दोस्ती, हकीकत और संगम देखी थी) वाला महज एक बड़ा गांव था लेकिन वहां कोई एमबीबीएस डॉक्टर नहीं था। संघ ने पलवल में यह पहला स्कूल खोला था और कई वर्षों तक यही एकमात्र स्कूल रहा। चूंकि वहां कोई स्कूल नहीं था इसलिए तब तक मेरी मां और मुझे उनके मायके के साथ दिल्ली में रहना पड़ा था। अत: छोटे से शहर पलवल में स्कूल खोलकर संघ ने हमारे परिवार को एकजुट कर दिया। दूसरा अहसान था: उन्होंने कभी इस बात से नाराजगी नहीं जताई कि मैं अंग्रेजी माध्यम की चकाचौंध से आया था जबकि उस समय मैं सिर्फ पांच साल का था और कॉन्वेंट की शिक्षा शुरू ही की थी। दरअसल, उन्होंने मेरी प्रशंसा ही की और मुझे दो कक्षा की प्रोन्नति दी, पहली से तीसरी में और फिर सीधा पांचवीं में। इस प्रकार उन महत्वपूर्ण वर्षों के दौरान संघ न सिर्फ मेरा गुरू रहा बल्कि मेरी जिंदगी में दो साल और जोड़ दिए जिससे मैं महज 18 साल की उम्र में ही कॉलेज से स्नातक कर गया।
हालांकि मुझे संघ से मिली दोहरी प्रोन्नति से ज्यादा अहमियत यह थी कि अपने चर्चित हिंदी-संस्कृत प्रेम और अंग्रेजी विरोधी पूर्वाग्रह के बावजूद मेरी शुरुआती 'कॉन्वेंटेड’ (जैसा कि दिल्ली के वैवाहिक विज्ञापनों में लिखना पसंद किया जाता है) शिक्षा का आश्चर्यजनक रूप से स्वागत किया गया। यह बड़ी दिलचस्प बात थी। अंग्रेजी के प्रति नाराजगी और संदेह था लेकिन प्रशंसा भाव भी। पंजाब के स्कूल (पलवल उस समय पंजाब में था और 1966 में राज्य के बंटवारे के बाद हरियाणा का हिस्सा बना) न सिर्फ हिंदी माध्यम के थे बल्कि उनमें छठी कक्षा से पहले अंग्रेजी पढ़ाई ही नहीं जाती थी। फिर तो यह अंग्रेजी की बुनियादी जानकारी का ही इनाम था। वहां सिर्फ हिंदी और संस्कृत का ही बोलबाला था। स्कूल की प्रार्थना में सरस्वती वंदना होती थी, लेकिन पंजाबी उच्चारण से यह प्रार्थना विकृत हो गई थी। किसी ठेठ पंजाबी या हरियाणवी से यह प्रार्थना सुनने की कोशिश करें, 'या ब्रह्माच्युता शंकरा प्रभृतिभि: देवै: सदा पूजिता...।’ लेकिन हम कोशिश भी करते थे और दबी जुबान से हंसते रहते थे क्योंकि किसी को इसका मतलब पता नहीं होता था, यह नहीं कि पता होने पर हम उसे कोई ज्यादा गंभीरता से लेते। इसके बाद हेडमास्टर का प्रवचन ज्यादा कष्टप्रद था जो हमें उस नादान और अबोध उम्र में कुछ अश्लील अंदाज में अंडा खाने से बचने की सलाह देते थे और बताते थे कि इसमें रज (अंडाणु का संस्कृत) और वीर्य होता है। मुझे नहीं लगता कि उनकी इस सलाह से कोई प्रभावित होता होगा। इसके बावजूद हमने अपने छोटे से पक्के मकान में मांस के लिए नहीं बल्कि अंडे खाने के लिए दर्जनों मुर्गियां और एक जोड़ा मुर्गे पाल रखे थे।
शाखा में उपस्थिति अनिवार्य थी लेकिन प्रोत्साहन का ही सहारा लिया जाता। हम जहां रहते थे, उसके दाईं तरफ सामने शाखा लगती थी, इसलिए हममें से ज्यादातर लड़के सिर्फ देखने और सुनने के लिए वहां जाकर बैठ जाते थे, हम इतने बड़े नहीं हुए थे कि हमें खाकी निकर, बेल्ट और छड़ी दी जाती। आमतौर पर कोई शिकायत नहीं करता था। स्वयंसेवकों को देखकर दर्जनों चुटकुले भी बनते थे जिन्हें मैं भूला नहीं हूं लेकिन उदारीकरण के इस दौर में भी उन्हें व्यक्त करना शिष्टता नहीं होगी।
शाखाओं में शेर और बकरी के बीच नकली युद्ध चलते रहते थे जिसमें निडर शेर हमेशा ज्यादा से ज्यादा बकरियों को तबाह करते रहते थे। आप अंदाजा लगा सकते हैं कि कौन-सा जानवर हिंदुओं का प्रतीक होगा और कौन मुसलमानों का। वहां खो-खो के अलावा कोई अन्य खेल नहीं खेला जाता था। खो-खो को हम लड़के लड़कियों का खेल मानते थे। इसके बाद सबसे मजेदार दौर होता था कथावाचन का जिसका हमें इंतजार होता था। मुझे कई कथाएं याद हैं लेकिन हकीकत राय की कथा बार-बार याद आती है जिसने एक मुस्लिम की क्रूर मांग स्वीकार करने के बजाय अपना सिर कलम करवाना बेहतर समझा था। उसे अपनी चुटिया कटवाने और जनेऊ उतारने के लिए कहा गया था। यहां गुरू गोविंद सिंह और उनके बेटों के बलिदान, लाला लाजपत राय, भगत सिंह और सावरकर की कहानियां तथा स्वतंत्रता आंदोलन में उनकी भूमिकाएं भी सुनाई जाती थीं। गांधी-नेहरू जैसे नेताओं का सिर्फ इतना ही जिक्र होता था कि उन्होंने पटेल के विरोध के बावजूद देश का विभाजन कराया। नेहरू को मैकाले का पसंदीदा पुत्र कहकर बुरा-भला कहा जाता था। लेकिन उनके उत्तराधिकारी लाल बहादुर शास्त्री की 1965 के युद्ध में भूमिका को लेकर तारीफ होती थी। उन्हें एक विनम्र शाकाहारी के रूप पेश किया जाता था, जिन्होंने कायस्थ होने के बावजूद अपनी मर्जी से शाकाहार चुना था। 'मूंग की दाल खाने वाले शास्त्रीजी ने शराबी-कबाबी अयूब को मात दी,’ हमें बताया जाता था। संगीत शिक्षक ने एक हास्यास्पद स्यापा (पंजाबी शोर-शराबे वाला रिवाज जिसमें महिलाएं छाती पीट-पीटकर शोक व्यक्त करती हैं, किसी मृतक की तारीफ में गीत गाती हैं और उसके गुजरने का शोक मनाती हैं) तैयार किया था। इस गीत की पंक्तियां थीं, 'कित्थे गया सीटो-सेंटो, मर गए चीनी यार, हाय मैं की करां, मेरे टैंक हुए बीमार, हाय मैं की करां।’ यह बनावटी विलाप अमेरिका के नेतृत्व में बनी सीटो-सेंटो सुरक्षा संधियों के लिए था जिनमें पाकिस्तान शामिल था, चीन के लिए था, जो पाकिस्तान की मदद करने में विफल रहा और निराशाजनक प्रदर्शन वाले पाकिस्तानी पैटन टैंकों के लिए था।
एक दिन 1965 की सर्दी की सुबह संघ संचालित उस स्कूल की बस हम सबको लेकर दिल्ली में प्रधानमंत्री से मिलाने ले गई थी। उस वक्त पूरे देश का मिजाज युद्धमय था, मेरी मां ने 'घायल जवानों’ के लिए मुझे छह पायजामे सिलकर दिए थे और घर में उपजाई गई पालक का एक थैला शास्त्रीजी के लिए दिया था। मुझे याद है, यह अकाल का दौर था और प्रधानमंत्री ने हमसे सप्ताह में एक वक्त का भोजन त्यागने और घर के बागीचे में सब्जियां उगाने की अपील की थी। संघ और उसकी विचारधारा के बारे में काफी कुछ ज्ञात है लेकिन मैं अपने अनुभवों से तीन बातें बताना चाहूंगा। एक तो हमारी शिक्षा में भगत सिंह, आजाद, सावरकर तथा नेताजी जैसे क्रांतिकारियों को छोड़कर किसी भी नायक का जिक्र किए बिना स्वतंत्रता आंदोलन पर ज्यादा जोर था। संघ ने खुद इसमें ज्यादा बड़ा योगदान नहीं किया था। इसलिए क्रांतिकारियों को पूरे जोर-शोर से अपना लिया था। संगीत की कक्षाओं में उस समय की लोकप्रिय धुनों की तर्ज पर देशभक्ति गीत सिखाए जाते। मसलन, 'निर्बल से लड़ाई बलवान की, ये कहानी है दीये और तूफान की’। दूसरा, अंग्रेजों और विदेशी की निंदा तो की जाती लेकिन मुस्लिमों को नापसंद किया जाता और उनसे भय खाया जाता। विभाजन के दौरान भयानक हिंसा, कश्मीर और युद्धविराम रेखा पर खतरे और हिंदुओं, सिखों पर मुस्लिम शासकों के अत्याचार की कहानियां सुनाई जातीं। भला, औरंगजेब से इतनी वितृष्णा, जिसने सिख गुरू तेगबहादुर को मृत्युदंड दिया, कि उसके नाम की सड़क बदली जाए लेकिन उसके दादा जहांगीर की कहानियां क्यों नहीं, जिसने गुरू अर्जुनदेव के साथ उससे भी बुरा सलूक किया। शिशु मंदिर के अनुभव के आधार पर कहूं तो इसलिए कि तेगबहादुर ने कश्मीरी हिंदुओं के जबरन धर्मांतरण का विरोध किया जबकि अर्जुनदेव को इसलिए मारा गया कि उन्होंने जहांगीर के आदेश से गुरू ग्रंथ साहब से कुरान के अंश निकालने से मना कर दिया। उनकी कहानी से कुरान शरीफ की प्रतिष्ठा हो जाती है। शिशु मंदिर का तीसरा अनुभव पहले दो से जुड़ा है: पाकिस्तान से खौफ और नफरत, जिसकी परिणति भारतीय मुसलमानों को हमेशा पाकिस्तान से जोड़कर देखना है। वाजपेयी और आडवाणी संघ में दीक्षित होने के बावजूद इन वैचारिक जकड़नों से कुछ उबर सके। हृदय से संघ स्वयंसेवक लेकिन स्वयंनिष्ठ नरेंद्र मोदी के बारे में अभी निर्णय पर पहुंचना कठिन है।
(लेखक इंडियन एक्सप्रेस के पूर्व एडिटर-इन-चीफ हैं। यह लेख मूलत: OUTLOOK में छपे उनके अंग्रेजी लेख का संपादित अंश है।)