जिन्हें हम किसान कहते हैं, खेतिहर कहते हैं, उनकी सुध किसी ने नहीं ली। पिछले दो वर्षों से सूखे की मार झेल रहे ये किसान अपनी भलाई को छोड़ वह सब कुछ देख रहे हैं, जो साधारण-गरीब लोगों को राजनीति के सर्कस में दिखाया जाता है।
जब मोदी सरकार सत्ता में आई तो देश का मिजाज खुशगवार था। मजबूती से यह धारणा बनी थी कि भारत में अरबों-खरबों डॉलर का निवेश होगा और भारत निवेश के लिहाज से दुनिया का आकर्षक स्थान बन जाएगा। पूरी दुनिया बिजनेस करने के लिए भारत के दरवाजे पर आ खड़ी होगी। यह धारणा मिथक साबित हुई और धीरे-धीरे यह मिथक टूटता गया। बिहार के चुनाव ने जनमानस के सिर पर चढ़ कर बोल रहे मोदी के जादू को झटक दिया, नीचे गिरा दिया। विश्लेषकों ने बिहार के नतीजों को सामाजिक समीकरण की जीत बताया। बिहार परिणाम को धर्मनिरपेक्षता की जीत कहा गया। लेकिन यह नहीं समझा गया कि बिहार में मोदी की हार को अंजाम देने में वह वर्ग बहुत अधिक सक्रिय था, जिसे हम किसान और खेतिहर कहते हैं।
बिहार के झटके से सरकार चेती। वह बजट में किसानों के लिए सक्रिय होती दिखी। ग्रामीण अर्थव्यवस्था को लेकर सरकार की चिंता स्पष्ट रूप से उजागर हुई। किसानों को लुभाने-रिझाने और उनके कल्याण के लिए वित्त मंत्री अरुण जेटली ने बजट में 35,948 करोड़ रुपये का प्रावधान किया, कृषि सिंचाई के लिए 20,000 करोड़ रुपये रखे गए, प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना के लिए 5,500 करोड़ रुपये का प्रावधान किया गया।
सब कुछ यह बताने के लिए हुआ कि सरकार किसानों की हमदर्द है। सरकार की किसानमुखी छवि बजट के माध्यम से प्रस्तुत की गई। लेकिन सरकार की किसान कल्याणकारी छवि बनाना ही पर्याप्त नहीं। छवि और कल्याण संबंधी पहलों को अमली जामा पहनाना एक चुनौती है। खासकर तब जब हमारी व्यवस्था संघीय हो। इस व्यवस्था में योजनाओं को लागू करने में राज्यों की भूमिका अहम होती है। ग्रामीण अर्थव्यवस्था अनिश्चितता में रहती है। कभी कम बारिश होती है तो कहीं सिंचाई की अनुपलब्धता और अपर्याप्तता (महाराष्ट्र में सूखा इस समस्या का ताजा उदाहरण है) रहती है। किसानों की उपज में कमी के बीच साहूकारों का ऋण भार सरकारी वायदों के बीच बना रहता है। यह सिलसिला दशकों चलता है, चाहे किसी भी दल की सरकार हो। सत्ता पक्ष की हनक बनी रहती है और सत्ता में पहुंचाने वाले वोटों (किसानों) की अनदेखी जारी रहती है।
लेकिन सवाल बड़ा है। क्या बजटीय ग्रामीण योजनाओं से वास्तविक जरूरतमंदों को लाभ मिलता है? एनएसएसओ के ताजा आंकड़े बताते हैं कि पिछले दशक में 'प्रभावी भूमिहीनों’ की संख्या काफी बढ़ी है। नतीजतन भूमिहीन लोगों के पास अपनी जीविका के लिए भूस्वामियों के लिए काम करने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचता। भूमिहीन इतने दयनीय हो जाते हैं कि उन्हें बेमौसम बरसात, बाजार मूल्य में उतार-चढ़ाव और स्थानीय मंडियों में भ्रष्टाचार का कोप सहना पड़ता है। जब वे जानते हैं कि गांवों में जिंदगी बसर नहीं कर सकते तो गांव छोड़ कर शहर की ओर आते हैं। आज मुंबई शहर में विस्थापित किसानों की भरमार है, जो जीने के लिए सडक़ों पर भीख तक मांग रहे हैं। ये लोग सूखा प्रभावित लोग हैं, जो अपना गांव छोड़ कर जीविका के लिए मुंबई आए हैं। कुछ ऐसी ही कहानी बुंदेलखंड की है।
भविष्य अंधकारमय लगता है। छोटे और मझोले किसानों के लिए खेती का काम फायदेमंद नहीं दिखता। उन्हें लग रहा है कि खेती से जीवनयापन करना संभव नहीं। ऐसे में ये लोग उस फौज की कतार में खड़े होंगे, जिसे हम बेरोजगारों की फौज कहते हैं। पारिवारिक खेती योग्य जमीन के टुकड़े हो जाने से आग में घी डालने का काम भी हो रहा है। छोटे रकबे की जमीन किसानों के काम नहीं आ रही। किसानों की यह दशा दयनीय है। इसे देखते हुए हमें यह याद रखना चाहिए कि कृषि और कृषि संबंधी गतिविधियों से देश की आधी आबादी की जीविका चलती है। कार्य बल में कृषि रोजगार का हिस्सा 48.9 प्रतिशत है, लेकिन सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में कृषि क्षेत्र का योगदान 18 प्रतिशत है और इसमें गिरावट आ रही है। यह निराशाजनक है, लेकिन इससे भी भयावह तस्वीर केंद्रीय सांख्यिकी कार्यालय ने पेश की है। इसके अनुसार, कृषि अर्थव्यवस्था में वृद्धि की रफ्तार महज 1.1 प्रतिशत रहने का अनुमान है। देश का 60 प्रतिशत कृषि क्षेत्र वर्षा पर निर्भर है। इस निर्भरता के बीच हम लगातार दूसरी बार सूखे की स्थिति का सामना कर रहे हैं। सुखाड़ की इस पीड़ा से लोग कराह रहे हैं। हमारी हालत पिछले वर्ष से ही खराब चल रही है। बे-मौसम बरसात के कारण पिछले वर्ष लगभग इसी समय किसानों को भारी नुकसान उठाना पड़ा था। किसानों की क्षति इतनी बड़ी थी कि किसी तरह के सरकारी मुआवजे और मदद से उसकी भरपाई नहीं हो सकती।
लगता है कि प्रधानमंत्री इस पीड़ा से वाकिफ हुए हैं। उन्हें यह भान हुआ है कि ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर ध्यान देना उतना ही आवश्यक है, जितना बड़े-बड़े निवेश के लिए दुनिया को रिझाना। इसीलिए उन्होंने ग्रामीण चुनौतियों को स्वीकार करते हुए आठ राज्यों में 21 अनाज मंडियों को जोडऩे वाला नेशनल कृषि बाजार लांच किया ताकि किसानों को उनके उत्पादों के लिए बेहतर बाजार मिल सके।
लेकिन प्रश्न है क्या यह काफी है? हम अच्छे मानसून की आशा कर रहे हैं, लेकिन क्या यह आशा ही किसानों के लिए अच्छे दिन लाएगी? यकीनन यह काफी नहीं।
(लेखक प्रिंट और टी. वी. से जुड़े वरिष्ठ संपादक एवं संगीत विशेषज्ञ हैं)