“अमेरिका में रो बनाम वेड फैसला पलटा तो कई राज्यों में गर्भपात गैर-कानूनी हुआ, भारत सहित कई देशों में बुनियादी स्त्री अधिकार छिनने की कोशिशें दिखने लगीं”
हाल में अमेरिका में 1973 के ऐतिहासिक रो बनाम वेड फैसले को पलट दिया गया। इस निर्णय से अबॉर्शन अथवा गर्भपात से जुड़े कानून बनाने का अधिकार अमेरिका के राज्यों को वापस दे दिया गया। फैसले की दलील यह है कि अमेरिका के संविधान में गर्भपात को अधिकार का दर्जा नहीं दिया गया है, इसलिए रो बनाम वेड फैसले को खारिज करते हुए, गर्भपात से जुड़े नियम बनाने का अधिकार लोगों और उनके प्रतिनिधियों को लौटाया गया है। इस निर्णय के साथ ही मिसिसिपी में 15 सप्ताह के बाद गर्भपात गैर-कानूनी हो चुका है।
इस फैसले से अमेरिका के कई राज्यों में गर्भपात अपराध की श्रेणी में डाला जा सकता है। 13 राज्यों में अबॉर्शन को ट्रिगर लॉज के माध्यम से गैर-कानूनी घोषित कर दिया गया। कई और राज्य अबॉर्शन पर समय सीमा लगाने की प्रक्रिया में हैं। इस निर्णय को महिलाओं और ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के प्रजनन अधिकारों के लिए हानिकारक माना गया है। इस निर्णय की विश्व भर में निंदा हो रही है। अमेरिका में यौन और प्रजनन अधिकार पर यह हमला बहुत ही चिंतनीय है और संभव है कि बाकी देशों के यौन और प्रजनन नीति पर भी इसका असर पड़े।
सुरक्षित गर्भपात का महत्व
संयुक्त राष्ट्र के सतत विकास लक्ष्य 2030 (सस्टेनेबल डेवलपमेंट गोल्स या एसडीजी) के अनुसार गर्भपात से जुड़ी सुविधा और अधिकार जेंडर समानता के लिए आवश्यक माने गए हैं। सुरक्षित गर्भपात को विश्व स्वास्थ्य संगठन ने आवश्यक स्वास्थ्य सेवा माना है। कुछ मेडिकल स्थितियों में गर्भावस्था महिला के लिए घातक हो सकती है। कई बार महिलाओं और ट्रांसजेंडर व्यक्तियों की गर्भावस्था बलात्कार का नतीजा होती है। कई लोग बच्चे के पालन-पोषण की जिम्मेदारी उठाने की स्थिति में नहीं होते और बहुत लोगों में गर्भनिरोध की पर्याप्त जानकारी न होना भी एक कारण है, जिससे वे गर्भपात का अधिकार चाहते हैं। इन सभी हालात में व्यक्ति को सुरक्षित अबॉर्शन केयर मिलना आवश्यक है। अनचाही प्रेग्नेंसी और असुरक्षित गर्भपात से न केवल शारीरिक और मानसिक हानि पहुंचती है बल्कि जान जाने का खतरा भी हो सकता है। इसके अलावा एक व्यक्ति के यौन और प्रजनन अधिकार उसके मानवीय अधिकार से जुड़े होते हैं। खासकर महिलाओं और ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के लिए यह अधिकार अक्सर अरक्षित रह जाते हैं।
शुक्र है भारत में एमटीपी ऐक्ट है
इस संदर्भ में, भारत के कई लोग देश में गर्भपात संबंधित कानून और सुविधा को प्रगतिशीलता की चरम सीमा मान रहे हैं। देखा जाए तो भारत का एमटीपी ऐक्ट 1971 (मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी या गर्भ का चिकित्सकीय समापन अधिनियम) शुरू से ही महिलाओं के गर्भपात से जुड़े अधिकारों की रक्षा कर रहा है।
इस ऐक्ट में कुछ स्थितियों में गर्भपात करने की अनुमति दी गई है, जैसे कि भ्रूण में गंभीर शारीरिक या मानसिक असामान्यता का होना या गर्भवती महिला के मानसिक या शारीरिक स्वास्थ्य को खतरा होना। गर्भनिरोधक विधि के नाकाम होने पर भी गर्भपात की अनुमति है। यह अनुमति 2021 के संशोधन के अनुसार अविवाहित महिलाओं के लिए भी मान्य है।
इस संशोधन के अनुसार गर्भपात की समय सीमा को बढ़ाकर 20 से 24 सप्ताह कर दिया गया है। 20 सप्ताह तक एमटीपी कोई पंजीकृत चिकित्सक कर सकता है और 20 सप्ताह के बाद 2 पंजीकृत चिकित्सकों की राय लेकर ही गर्भपात संभव है।
बेशक, यह ऐक्ट महिलाओं को सुरक्षित गर्भपात सुविधा की व्यवस्था देता है। फिर भी कई महिलाएं नीम हकीमों के पास जाने के लिए मजबूर होती हैं। इसके अलावा गर्भपात के लिए अक्सर महिलाओं को दर्द कम करने या सुन्न करने की दवा नहीं दी जाती। आज भी असुरक्षित गर्भपात के कारण कई महिलाओं की जान चली जाती है। यूएनएफपीए की रिपोर्ट के अनुसार आज भी असुरक्षित गर्भपात मातृत्व से जुड़ी मृत्यु का तीसरा सबसे बड़ा कारण है और हर दिन करीब 8 महिलाओं की इस कारण मौत होती है। इससे सवाल यह उठता है कि क्या प्रजनन और यौन अधिकार के लिए एमटीपी ऐक्ट काफी है?
गर्भपात के लिए महिलाओं को अक्सर कई मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। भारतीय संदर्भ में महिलाओं के यौन और गर्भ निरोध से जुड़े फैसले लेने की स्वतंत्रता आज भी प्राप्त नहीं है। गर्भ निरोध तक पति की अनुमति पर निर्भर होता है, गर्भपात तो दूर की बात है। बहुत-सी जगहों में महिलाओं को गर्भपात के साथ-साथ गर्भ निरोध यंत्र अनिवार्य बताया जाता है। ऐसे में गर्भनिरोध महिला के लिए विकल्प नहीं, मजबूरी बन जाता है। उसका पति गर्भनिरोध से सहमत न हो तो गर्भपात भी उसके लिए दुर्लभ हो जाता है।
ऐसा भी देखा गया है कि एमटीपी ऐक्ट के बावजूद लोगों में गर्भपात को लेकर कई गलत धारणाएं हैं। कई महिलाओं को आज भी लगता है कि गर्भपात गैर-कानूनी है। एक अध्ययन में पाया गया कि कई प्राथमिक स्वास्थ्यकर्मी भी गर्भपात सुविधा को अवैध मानते हैं। उनके मुताबिक केवल जानलेवा हालात में गर्भपात किया जा सकता है। जानकारी के अभाव के कारण महिलाएं नीम हकीमों की मदद लेने पर मजबूर हो जाती हैं।
एक और बड़ी बाधा लोगों की सोच के कारण आती है। पितृसत्तात्मक समाज में बच्चे को जन्म देना महिला का दायित्व माना जाता है। ऐसे में गर्भपात को पाप माना जाता है। इसकी तुलना हत्या तक से की जाती है। इसलिए महिलाएं गर्भपात की सुविधा उपलब्ध होने पर भी उसे इस्तेमाल नहीं कर पातीं। महिला अविवाहित हो, तो उसे और भी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। अस्पताल से लेकर घर तक उसके चरित्र पर सवाल उठाए जाते हैं। ऐसे में अस्पताल सुरक्षित जगह के बजाय उसके लिए घबराहट की जगह बन जाते हैं।
सरकारी अस्पतालों में प्राय: महिलाओं का अनुभव बुरा देखा गया है। वहां की भीड़ में न तो मर्यादा का मान रखना संभव होता है, न ही निजता का। इस वजह से गर्भपात प्राइवेट क्लिनिक या अस्पताल में करवाना पड़ता है। जो महिलाएं आर्थिक रूप से सक्षम और स्वतंत्र नहीं होतीं, वे नीम हकीम के चपेट में आ सकती हैं।
देखा जाए तो एमटीपी ऐक्ट महिलाओं के अधिकार से अधिक चिकित्सक को सुरक्षा की गारंटी देता है। आज भी अंतिम निर्णय महिला के हाथ में नहीं, बल्कि चिकित्सक के हाथ में है। कोई स्वस्थ औरत बच्चे को जन्म नहीं देना चाहती तो उसे तभी गर्भपात की सुविधा प्राप्त होगी जब उसके स्वास्थ्य और जीवन को खतरा न हो। अनचाहे गर्भ को औरत के मानसिक स्वास्थ्य के लिए हानिकारक माना गया है। लेकिन उससे मुक्ति तभी मुमकिन है, जब पंजीकृत चिकित्सक यह राय रखता हो कि गर्भावस्था महिला के लिए हानिकर है। महिला की इच्छा उसके लिए पर्याप्त नहीं है।
गर्भपात की आवश्यकता ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को भी होती है लेकिन भारत में इसकी सुविधा दुर्लभ है। आम तौर पर गर्भपात से जुड़ी चर्चा में उनका जिक्र भी नहीं होता। अस्पताल और स्वास्थ्यकर्मी भी उन्हें सेवा प्रदान करने में प्रशिक्षित नहीं होते। लिहाजा, यह प्रक्रिया ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को सदमा पहुंचा सकती है।
निश्चित रूप से, एमटीपी ऐक्ट के प्रावधान बेहद आवश्यक हैं पर वे पर्याप्त नहीं हैं। गर्भपात विश्व भर में विवादास्पद विषय रहा है। हर जगह इससे जुड़ी अपनी-अपनी सोच है। आवश्यक है कि अमेरिका में अधिकारों पर इस चोट का विरोध किया जाए और प्रभावित लोगों के प्रति सहानुभूति दिखाई जाए। इस मामले में हम अमेरिका से भारत की तुलना न करें तो बेहतर है। हमारे संदर्भ और हमारी समस्याएं एक जैसी नहीं हैं। आवश्यक है कि हम यौन और प्रजनन अधिकारों को लेकर जागरूक रहें। आवश्यकता है कि हम इन अधिकारों की रक्षा करें और प्रयास करें कि ये अधिकार अधिक से अधिक लोगों के लिए मुहैया कराए जा सकें।
(शिवांगी शंकर मॉडर्न मेडिसिन डॉक्टर और जन स्वास्थ्य अध्येता हैं। विचार निजी हैं)