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प्रथम दृष्टि । प्रतिस्पर्धा का रोमांच: विराट की परंपरा को आगे बढाएंगे रोहित

“क्या इसे विराट युग के अंत की शुरुआत के रूप देखा जा सकता है? ऐसा कहना निस्संदेह जल्दबाजी होगी।...
प्रथम दृष्टि । प्रतिस्पर्धा का रोमांच: विराट की परंपरा को आगे बढाएंगे रोहित

“क्या इसे विराट युग के अंत की शुरुआत के रूप देखा जा सकता है? ऐसा कहना निस्संदेह जल्दबाजी होगी। कप्तानी की जिम्मेदारी से मुक्त होकर अच्छा प्रदर्शन करने वालों की मिसालें भी तो हैं ही”

खेल में प्रतिस्पर्धा होना स्वाभाविक है, चाहे दो टीमों के बीच हो या दो खिलाड़ियों के। प्रतिद्वंद्विता जितनी दिलचस्प होगी, उसे देखने का रोमांच उतना ही बढ़ेगा। इतिहास ऐसे मुकाबलों से पटा पड़ा है। अक्सर जीतने का जज्बा खेल भावना पर ही भारी पड़ जाता है। ऑस्ट्रेलिया-इंग्लैंड की ऐशेज सीरीज और भारत-पाकिस्तान की भिडंत ऐसी ही प्रतिस्पर्धाओं के लिए जाने जानते हैं। यूरोप में फुटबॉल मैचों के दौरान तो समर्थकों के बीच हिंसा का लंबा इतिहास रहा है। व्यक्तिगत स्तर पर भी दो खिलाड़ियों के बीच की कांटे की टक्कर दर्शकों को रोमांचित करती रही है। मोहम्मद अली-जो फ्रेजियर, बॉबी फिशर-बोरिस स्पास्की, जहांगीर खान-जानशेर खान, ब्योर्न बोर्ग-जॉन मैकनरो, क्रिस एवर्ट-मार्टिना नवरातिलोवा और हाल के वर्षों में रोजर फेडरर-राफेल नडाल की प्रतिद्वंद्विता देखने लायक रही है।

यह जरूरी नहीं कि हर प्रतिस्पर्धा स्वस्थ ही रही हो। कभी-कभी वजह अहं का टकराव होती है। 1994 में विंटर ओलंपिक के पूर्व अमेरिकी फिगर स्केटर टॉन्या हार्डिंग पर अपनी साथी खिलाड़ी नैंसी केर्रिगन पर हमले की योजना में शामिल होने का आरोप लगा। उसी दशक में विवादस्पद अमेरिकी मुक्केबाज माइक टायसन ने एक मैच के दौरान अपने प्रतिद्वंद्वी इवांडर होलीफील्ड को दांत काट लिया।

शुक्र है, भारत में ऐसी गलाकाट प्रतिस्पर्धा कम देखी गई है, लेकिन दो टीमों या दो खिलाड़ियों के बीच वर्चस्व और अहं का टकराव नया नहीं है। फुटबॉल में कभी मोहन बगान और ईस्ट बंगाल के बीच मैच के दौरान पूरा कोलकाता दो पाटों में बंटा दिखता था। क्रिकेट में भी दशकों से खेमेबाजी है। लाला अमरनाथ-विजय मर्चेंट, मंसूर अली खान पटौदी-अजित वाडेकर के जमाने से सुनील गावस्कर-कपिल देव, सौरभ गांगुली-महेंद्र सिंह धोनी तक, बड़े खिलाड़ियों के बीच टकराव होते रहे। नब्बे के दशक में तो कप्तान अजहरुद्दीन से कथित मनमुटाव के कारण नवजोत सिंह सिद्धू इंग्लैंड का दौरा बीच में ही छोड़ कर चले आए।  

किसी जमाने में भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड (बीसीसीआइ) मुंबई और दिल्ली के दो खेमों में बंटा दिखता था। सत्तर और अस्सी के दशक में आरोप लगते थे कि दिल्ली के मोहिंदर अमरनाथ और सुरिंदर अमरनाथ को इसलिए टीम में शामिल नहीं किया जाता था क्योंकि उनके पिता लाला अमरनाथ अक्सर बेबाकी से बोर्ड की कार्यशैली पर सवाल उठाते थे। एक बार सुनील गावस्कर की कप्तानी में खेले जा रहे एक महत्वपूर्ण टेस्ट मैच में कपिल देव को शामिल न करने का कारण भी क्रिकेट प्रशासन में मुंबई बनाम दिल्ली की राजनीति को समझा गया। बाद के वर्षों में क्रिकेट में सिर्फ दो खेमे नहीं रहे। बंगाल, बेंगलूरू और चेन्नै भी अलग-अलग सत्ता-केंद्रों के रूप में उभरे। बड़े राज्यों का इतना प्रभुत्व था कि किसी छोटे राज्य के खिलाड़ी का टीम इंडिया में आना अपवाद समझा जाता था। बाद में स्थितियां बदलीं तो झारखंड जैसे छोटे प्रदेश के धोनी भी कप्तान बने।

हालांकि इन सबके बीच जो सबसे अच्छी बात उभर कर आई कि खिलाड़ियों के रिश्तों में खटास, ड्रेसिंग रूम में तनाव और व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं के बावजूद टीम इंडिया एकजुट होकर खेली। दूसरी अच्छी बात यह हुई कि एक दूसरे से प्रतिस्पर्धा के कारण खिलाड़ियों में बेहतर प्रदर्शन करने का जज्बा बढ़ा। मशहूर स्पिनरों की चौकड़ी – बेदी, प्रसन्ना, चंद्रशेखर और वेंकट – को पता रहता था कि उनमें से किसी तीन को मौका मिलेगा। इसके बावजूद, उनके बीच आपस में कोई कटुता सामने नहीं आई।

आउटलुक के इस अंक की आवरण कथा क्रिकेट की ऐसी ही एक ऐसी शीर्ष जोड़ी की प्रतिस्पर्धा पर है, जिनके प्रदर्शन ने टीम इंडिया को नई बुलंदियों पर पहुंचाया है। विराट कोहली और रोहित शर्मा को एक दूसरे के प्रदर्शन के आधार पर आंका नहीं जा सकता क्योंकि टीम की सफलता में दोनों का अतुलनीय योगदान रहा है। विराट टेस्ट, एकदिवसीय और टी20 तीनों के सफल कप्तान रहे हैं, लेकिन पिछले दिनों उन्होंने आगामी टी20 विश्व कप के बाद कप्तान की जिम्मेदारी से मुक्त होने की घोषणा कर सबको चौंका दिया। ‌िलहाजा, रोहित उनके उत्तराधिकारी के रूप में सामने आ गए। नजर अब इस पर रहेगी कि क्या धीरे-धीरे टेस्ट और एकदिवसीय टीमों की कप्तानी भी रोहित के हाथों आ जाएगी? कप्तान के रूप में विराट का प्रदर्शन पिछले कुछ सीरीज में आलोचना से परे नहीं रहा है। पहले सचिन तेंडुलकर जैसे महान खिलाड़ी हुए जिनका अच्छा प्रदर्शन कप्तान की जिम्मेदारी संभालने के पहले या बाद ही दिखा। विराट का प्रदर्शन इस लिहाज से बेहतर रहा है।

कुशल कप्तान होने के लिए यह जरूरी नहीं कि वह अच्छा खिलाड़ी ही हो। इंग्लैंड के माइक ब्रियरली अव्वल बल्लेबाज नहीं थे, लेकिन कुशल रणनीति के कारण उनकी गणना महानतम कप्तानों में की जाती है। टीम इंडिया की कप्तानी की जिम्मेदारी मिलने पर रोहित को भी उन्हीं चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा, जो विराट के सामने रही हैं। लेकिन क्या इसे विराट युग के अंत की शुरुआत के रूप देखा जा सकता है? ऐसा कहना निस्संदेह जल्दबाजी होगी। क्रिकेट में कुछ नहीं कहा जा सकता जब तक आखिरी गेंद न फेंक दी जाए।

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