गांधी सारी दुनिया में हैं-मूर्तियों में! एक जानकारी बताती है कि कोई 70 देशों में गांधीजी की प्रतिमा लगी है। भारतीय सामाजिक-राजनीतिक जीवन में गांधी 1917 में प्रवेश करते हैं और फिर अनवरत कोई 31 साल तक अहर्निश संघर्ष की वह जीवन-गाथा लिखते हैं, जिसे हिंदुत्व की धारा में कु-दीक्षित नाथूराम गोडसे की तीन गोलियां ही विराम दे सकीं। लेकिन एक हिसाब और भी है जो हमें लगाना चाहिए, कितने देशों में गांधी-प्रतिमा को खंडित करने की वारदात हुई है? संख्या बड़ी है। गांधी के चंपारण में, मोतिहारी के चरखा पार्क में खड़ी गांधी की मूर्ति पिछले दिनों ही खंडित की गई है। ऐसे चंपारण दुनिया भर में हैं। अमेरिका में अश्वेतों ने भी ‘ब्लैकलाइफ मैटर्स’ जुंबिश के दौरान गांधी-प्रतिमा को नुकसान पहुंचाया था। ऐसी घटनाओं से नाराज या व्यथित होने की जरूरत नहीं है। फिक्र करनी है तो हम सबको अपनी फिक्र करनी है, जो लगातार गहरी फिक्र का बायस बनती जा रही है।
गांधी की प्रतिमाओं के खिलाफ एक लहर तब भी आई थी जब 60-70 के दशक में नक्सलवाद जोरों पर था। गांधी की मूर्तियों पर हमले हो रहे थे, वे तोड़ी जा रही थीं, विकृत की जा रही थीं, अपशब्द आदि लिख कर उन्हें मलिन करने की कोशिश की जा रही थी। तब यहां-वहां चेयरमैन माओ के समर्थन में नारे लिखे व लगाए जा रहे थे। मूर्तियों से लड़ने के इसी उन्मादी दौर में बिहार के जमशेदपुर में गांधी की मूर्ति का विभंजन हुआ था। तब जयप्रकाश नारायण ने अपनी गांधी-बिरादरी को संबोधित करते हुए लिखा था कि गांधी से इन लोगों को इतना खतरा महसूस होता है कि वे उनकी मूर्तियां तोड़ने में लगे हैं, इसे मैं आशा की नजरों से देखता हूं, यह हम गांधीजन को सीधी चुनौती है, जो अपनी-अपनी सुरक्षित दुनिया बनाकर जीने लगे हैं। चुनौती नहीं तो गांधी नहीं, ऐसा भाव तब जयप्रकाश ने जगाया था, जो शनैः-शनैः उस लहर में बदला जिसे इतिहास में जयप्रकाश आंदोलन या संपूर्ण क्रांति आंदोलन कहा जाता है।
आज गांधी के खिलाफ एक दूसरा ध्रुव उभरा है, जो हिंदुत्व के नाम से काम करता है। नक्सली आज भी हैं। अपनी बची-खुची ताकत समेट कर नक्सली हमलों व हत्याओं की खबरें भी यहां-वहां से आती रहती हैं लेकिन यह साफ है कि राज्य की हिंसा अब उन पर भारी पड़ रही है। हिंसा का यह दुष्चक्र नया नहीं है, बल्कि यही इसका शास्त्र है कि बड़ी हिंसा छोटी हिंसा को खा जाती है और छोटी हिंसा बड़ी बनने की तिकड़म में लगातार हमले करती रहती है। इन दो हिंसाओं के बीच समाज पिसता रहता है।
जब मैं हिंदुत्व की बात कहता हूं तब मेरा आशय संकीर्णता से है। यह संकीर्णता भी दुनिया भर में फैली है, बढ़ रही है। इंग्लैंड में ऋषि सुनक की जगह लिज ट्रस को प्रधानमंत्री चुनना ऐसी ही संकीर्णता का ताजा उदाहरण है। कंजरवेटिव दल के सदस्य श्वेत चमड़ी व ब्रिटिश मूल की अवधारणा से चिपके हैं जबकि ब्रिटिश जनता ज्यादा उदारता से सोचती व बरतती है। सभी जानते हैं कि यदि ब्रिटेन में आज आम चुनाव हो जाए तो सुनक की जीत होगी। सुनक अच्छे प्रधानमंत्री होंगे कि ट्रस, सवाल यह है ही नहीं। सवाल यह है कि संकीर्णता फैल रही है कि उदारता? लगता है कि सारी दुनिया में यह दौर संकीर्णता को सिर पर उठाए घूम रहा है। यह संकीर्णता सत्ता की ताकत पाकर ज्यादा हमलावर व ध्वंसकारी होती जा रही है। इसी ने तो गांधी को गोली भी मारी थी न! गोली से गांधी मरे नहीं; बहुत व्यापक हो गए। उनकी सांस्कृतिक व सामाजिक-राजनीतिक स्मृतियां भारतीय मन में जड़ जमा कर बैठ गईं। संकीर्ण सांप्रदायिकता ने ऐसे परिणाम की आशा नहीं की थी। इसलिए अब सत्ताप्रेरित संकीर्णता उनकी उन सारी स्मृतियों को पोंछ डालना चाहती है जिससे उसकी क्षुद्रता-विफलता सामने आती है।
गांधी होते तो आज, जब मैं यह पंक्ति लिख रहा हूं, 152 साल, 11 माह, 20 दिन के होते। इतने साल आदमी कहां जीता है! लेकिन गांधी जी रहे हैं तभी तो हम उनसे सहमत-असहमत ही नहीं होते रहते हैं, उनकी मूर्तियों पर हमला कर अपना क्रोध या अपनी असहमति व्यक्त करते हैं। गांधी न कभी सत्ताधीश रहे, न व्यापार-धंधे की दुनिया से और न उसके शोषण-अन्याय से उनका कोई नाता रहा, न उन्होंने कभी किसी को दबाने-सताने की वकालत की, न गुलामों का व्यापार किया, न धर्म, रंग, जाति या लिंग के भेद जैसी किसी सोच का समर्थन किया। वे अपनी कथनी और करनी में हमेशा इन सबका निषेध ही करते रहे। वे कहते व करते इतना ही रहे कि हमारे निषेध का रास्ता हिंसक नहीं होना चाहिए। उनका तर्क सीधा था और आज भी उतना ही सीधा है कि जितने तरह के शोषण, भेदभाव, गैर-बराबरी, ज्यादती चलती है, चलती आई है और आगे भी चल सकती है, उन सबकी जड़ हिंसा में है।
हिंसा का मतलब ही है कि आप मनुष्य से बड़ी किसी शक्ति को मनुष्य का दमन करने के लिए इस्तेमाल करते हैं, फिर चाहे वह शक्ति हथियार की हो कि धन-दौलत या सत्ता की या संख्या या उन्माद की। गांधी ऐसे किसी हथियार का इस्तेमाल मनुष्य के खिलाफ करने को तैयार नहीं होते हैं क्योंकि वे मानते हैं कि इससे मनुष्य व मनुष्यता का पतन होता है और जिसके खिलाफ हम होते हैं, वह बना ही नहीं रहता है बल्कि पहले से ज्यादा क्रूर व घातक हो जाता है। हिंसा हमारे निष्फल क्रोध की निशानी बन कर रह जाती है। इसलिए ही वे कहते हैं कि हिंसा बांझ होती है। अहिंसक रास्ते से मनुष्य व मनुष्यों का समाज अपनी कमियों-बुराइयों से कैसे लड़ सकता है और कैसे अपनी सत्ता बना सकता है, इसका कोई इतिहास नहीं है। जो और जितना है, वह गांधी का ही बनाया है। तो गांधी एक संभावना का नाम है।
कुछ लोग हैं ऐसे जो गांधी के बाद भी इस संभावना को जांचने और सिद्ध करने में लगे हैं। इसलिए ही तो हम गांधी-विनोबा-जयप्रकाश का त्रिकोण बनाते हैं क्योंकि अहिंसक शोध की दिशा में इतिहास के पास कोई चौथा नाम है नहीं। हम कह सकते हैं कि इन तीनों की अपनी मर्यादाएं व कमजोरियां भी हैं, जैसी हर मानव की और हर मानवीय प्रयास की होती हैं। फिर ऐसे गांधी का और उनकी दिशा में की जा रही कोशिशों का ऐसा घृणास्पद विरोध क्यों है? गांधी के प्रति धुर वामपंथियों का और धुर दक्षिणपंथियों का एकसा द्वेष क्यों है? यह द्वेष आज का नहीं, जन्मजात है। गांधी को अपने जीवन के प्रारंभ से तीन गोलियों से छलनी होने तक इनका घात-प्रतिघात झेलना पड़ा। ऐसा क्यों? इसका कारण समझना किसी जटिल वैज्ञानिक समीकरण को समझने जैसा नहीं है, हालांकि विज्ञान ही बताता है कि एक बार ठीक से कुछ भी जान-समझ लें हम तो जटिल या सरल जैसा कुछ नहीं होता है। जो जटिल है वह ज्ञात व अज्ञात के बीच की खाई है।
गांधी इस अर्थ में बेहद खतरनाक हैं कि वे कैसी भी गैर-बराबरी, किसी भी स्तर पर भेदभाव, किसी भी तर्क से शोषण-दमन को स्वीकारने को तैयार नहीं हैं- इस हद तक कि वे इनमें से किसी की मुखालफत करते हुए जान देने को तैयार रहते हैं। दूसरी तरफ यही गांधी हैं जो किसी भी तरह बदला लेने या प्रतिहिंसा को कबूल करने को तैयार नहीं हैं। मानव-जाति ने प्रतिद्वंद्वी से निबटने के जो दो रास्ते जाने, माने और लगातार अपनाए भी हैं, वे इन्हीं बलों पर आधारित हैं- हिंसा-प्रतिहिंसा-बदला। कहूं तो हमारी सभ्यता का सारा इतिहास इन्हीं तीन ताकतों का दस्तावेज है। कोई तीसरी ताकत भी हो सकती है जो इस दुष्चक्र से मनुष्यता को त्राण दिला सकती है, इसका अविचल दावा और उस दिशा में लगातार साहसी प्रयास हमें गांधी में ही मिलता है। गांधी से द्वेष का यही कारण है कि गांधी हमेशा, हर जगह, उनकी जड़ ही काट देते हैं।
गांधी से वामपंथियों का विरोध या द्वेष इधर कुछ कम हुआ है। राजनीतिक सत्ता की छीनाझपटी में लगी दलित पार्टियों का गांधी के खिलाफ विषवमन कुछ धीमा पड़ा है तो सोच-समझ रखने वाले दलितों के बीच से सहानुभूति व समन्वय की कुछ आवाजें भी उठने लगी हैं। इन सबके पीछे राजनीतिक परिस्थितिजन्य मजबूरी कितनी है और समझ में बदलाव कितना है, यह देखना अभी बाकी है। हम देख ही रहे हैं कि गांधी के अपमान व उनकी मूर्तियों के विभंजन पर इनकी तरफ से कोई खास प्रतिवाद आज भी नहीं होता है।
प्रतिवाद में जो आवाजें उठती हैं उनमें हायतौबा ज्यादा होती है। यह भी सच है कि ऐसी घटनाओं के पीछे दिशाहीन सामाजिक उपद्रवी, शराबी-अपराधी किस्म के लोग भी होते हैं लेकिन यह भी सच है कि यह गांधी से विरोध-भाव रखने वाली राजनीतिक-सामाजिक शक्तियों का कारनामा भी है। यथास्थिति बनाए रखने वाली दक्षिणपंथी तथा हिंसा-द्वेष की लहर बहा कर उनकी जगह लेने में लगी वामपंथी ताकतों का यह वही खेल है जो गांधी को अपने हर कदम के इनकार में खड़ा पाता है। गांधी का यह इनकार इतना सशक्त, तार्किक व सीधा है कि 70 से अधिक वर्षों से लगातार अनुपस्थित होने पर भी वे गांधी की कोई सार्थक काट खोज नहीं पाए हैं- सिवा छूंछा क्रोध प्रदर्शित करने के। यह असत का सत पर प्रहार है।
गांधीवालों में इससे क्रोध या ग्लानि का भाव पैदा नहीं होना चाहिए। मूर्तियों का यह प्रतीक-संसार सारी दुनिया में अत्यंत बेजान, अर्थहीन व नाहक उकसाने वाला हो गया है। हमारा हाल तो ऐसा है कि बुद्ध जैसे मूर्तिपूजा के निषेधक की मूर्तियों से हमने जग पाट दिया है। तो, गांधी पर हम गांधी वाले रहम खाएं और मन-मंदिर में भले उन्हें बसाएं, उनकी मूर्तियां न बनाएं। हम दृश्य-जगत में उनके मूल्यों की स्थापना का ठोस काम करें। गांधी सामयिक हैं, यह बात नारों, गीतों, मूर्तियों, समारोहों, उत्सवों से नहीं, समस्याओं के निराकरण से साबित करनी होगी।
जो गांधी को चाहते व मानते हैं उनके लिए गांधी एक ही रास्ता बना व बता कर गए हैं, अपनी भरसक ईंमानदारी व तत्परता से गांधी-मूल्यों की सिद्धि का काम करें! इससे उनकी जो प्रतिमा बनेगी, वह तोड़े से भी नहीं टूटेगी। हम जयप्रकाश की वह चेतावनी याद रखें, ‘‘गांधी की पूजा एक ऐसा खतरनाक काम है जिसमें विफलता ही मिलने वाली है।’’ इसलिए गांधी की हर विखंडित प्रतिमा दरअसल हमें विखंडित करती है और हमें ही चुनौती भी देती है।
(लेखक गांधी शांति प्रतिष्ठान के अध्यक्ष और वरिष्ठ टिप्पणीकार हैं)