आखिरकार भारतीय जनता पार्टी ने मंगलवार 19 जून को जम्मू-कश्मीर में महबूबा मुफ्ती सरकार से समर्थन वापस लेकर पीडीपी के साथ असहज गठबंधन को अलविदा कह दिया। रमजान के महीने में सरकार के एकतरफा सीजफायर की नाकामी, ईद के एक दिन पहले संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार कमेटी की प्रतिकूल रिपोर्ट, बेहद प्रतिष्ठित मध्यमार्गी पत्रकार शुजात बुखारी की कथित आतंकियों द्वारा हत्या जैसी वारदातों के बाद ही इसकी आशंका बनने लगी थी। मंगलवार को ही शुजात बुखारी की हत्या को भी संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार कमेटी ने संज्ञान लिया था। भाजपा के जम्मू-कश्मीर प्रभारी राम माधव ने कहा, "हमने राज्य में शांति और विकास की जिस उम्मीद से पीडीपी के साथ गठबंधन किया था और सरकार में शामिल हुए थे, उसमें मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती बुरी तरह नाकाम साबित हुईं। भाजपा के मंत्रियों ने जरूर कुछ विकास के काम किए मगर जम्मू और लद्दाख के प्रति कुछ खास न होने से लोगों की नाराजगी बढ़ी है।"
जाहिर है, पीडीपी और महबूबा मुफ्ती के पास भी भाजपा और केंद्र सरकार की नाकामियों के अपने तर्क हो सकते हैं। वे उन मुद्दों को उठा सकती हैं, जो भाजपा-पीडीपी गठबंधन पत्र में साझा घोषणा-पत्र की तरह दर्ज थे और जिन पर केंद्र ने कोई खास पहल नहीं की है। भाजपा की समर्थन वापसी के बाद महबूबा ने राज्यपाल को अपना इस्तीफा सौंप दिया है। हालांकि इस मुकाम पर महबूबा की पीडीपी के लिए हालात आसान नहीं होंगे। आखिर दक्षिण कश्मीर के अनंतनाग, गुलमर्ग जैसे जो इलाके पीडीपी के समर्थन का आधार रहे हैं और जहां महबूबा ने नब्बे के दशक के आतंकवाद के हिंसक दौर में काफी काम किया था, वही इलाका अब फिर दहक रहा है।
लेकिन महबूबा और पीडीपी से अधिक बड़ी चुनौती केंद्र सरकार के सामने हैं। इसी वजह से समर्थन वापसी का फैसला लेने से पहले भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल से भेंट की। केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने भी हालात पर अपनी चिंताएं जाहिर की हैं। दरअसल अभी तक राज्य में एक निर्वाचित सरकार थी और पीडीपी से घाटी में चाहे जितनी नाराजगी हो, केंद्र सरकार के लिए वह एक ढाल की तरह थी। अब राष्ट्रपति शासन को केंद्र पर ही पूरी जवाबदेही आ जाएगी।
केंद्र को अपने देश में ही नहीं, विदेशी मंचों पर भी ज्यादा जवाबदेह होना होगा और संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार रिपोर्ट का कोई संकेत है तो यही कि कश्मीर के मामले में विदेश मंचों पर भी माहौल भारत के बहुत अनुकूल नहीं हैं। भारत ने इसका पुरजोर खंडन किया है और रिपोर्ट को एकतरफा भी बताया जा सकता है लेकिन कश्मीर में आतंकी घटनाओं और अशांति में पाकिस्तान की भूमिका के लिए उसे अलग-थलग करने के लिए नए सिरे से कोशिश करनी पड़ सकती है।
केंद्र को घाटी में हालात काबू करने के लिए भी कुछ कदम उठाने पड़ेंगे क्योंकि अभी तक उसकी सख्त और पुलिस-फौज केंद्रीत नीति से हालात ऐसे मुकाम पर पहुंच गए हैं, जहां से वापसी मुश्किल दिखती है। घाटी में ये हालात हिज्बुल मुजाहिदीन के कथित कमांडर बुरहान वानी की मुठभेड़ में मौत से शुरू हुए थे। उसके बाद पत्थरबाजी की घटनाओं और मुठभेड़ स्थलों पर आम लोगों की मौत से लगातार हालात बिगड़ते ही गए। अर्द्धसैनिक बलों की पैलेट गन से ढेरों नौजवान बुरी तरह जख्मी हुए और आंखें गंवा बैठे।
पाकिस्तान ने भी इन घटनाओं को शह देने में बड़ी भूमिका निभाई और हर अंतरराष्ट्रीय मंच पर कश्मीर का मामला उठाया। लेकिन अब परीक्षा सीधे भारत सरकार को देनी है। भाजपा के साथ पीडीपी नेता दिवंगत मुफ्ती मुहम्मद सईद ने जो गठबंधन-पत्र तैयार किया था, उसमें स्वायत्तता के मुद्दे पर पहल के अलावा घाटी में हुर्रियत कॉन्फ्रेंस जैसे अलगाववादियों और पाकिस्तान से भी बातचीत के लिए कदम उठाने की बात थी। केंद्र सरकार ने इधर कुछ समय से पूर्व आइबी प्रमुख दिनेश्वर शर्मा को वार्ताकार नियुक्त तो जरूर किया लेकिन किसी तरह की बातचीत का माहौल अभी नहीं बन पाया है।
केंद्र में पिछली यूपीए सरकार के दौरान 2010 में भी घाटी में नेशनल कॉफ्रेंस की उमर अब्दुल्ला सरकार के दौरान पत्थरबाजी की घटनाओं में इजाफा हुआ था लेकिन सरकार ने बड़ी सावधानी और सतर्कता से उस स्थिति को संभाला और घाटी में ऐसा माहौल बना दिया जिसमें पिछले चुनाव शांति के माहौल में संपन्न हुए। उस समय प्रतिष्ठित पत्रकार दिलीप पड़गांवकर के नेतृत्व में तीन सदस्यीय वार्ताकारों की टीम ने घाटी में काफी लोगों से बातचीत की थी और ऐसी रिपोर्ट पेश की थी जिसकी सराहना घाटी के लोगों ने भी की थी। वह रिपोर्ट केंद्र में धूल फांक रही है।
बेशक, चुनौती कड़ी है और चुनावी साल में यह भाजपा और केंद्र सरकार के लिए चुनौती बन सकती है। संभव है, भाजपा ने खासकर जम्मू में लोगों की नाराजगी दूर करने के लिए भी यह कदम उठाया हो।