भारत 1980 से पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद का सामना कर रहा है। शुरुआत में देश के ज्यादातर लोगों, खासकर प्रभावशाली मध्यवर्ग के लिए वह कभी कभार होने वाली घटना थी। लगभग एक दशक तक पंजाब आतंकवादी घटनाओं से रक्त रंजित होता रहा। उसके बाद 1990 के दशक में जम्मू कश्मीर इसका शिकार हुआ। लेकिन तब भी मध्यवर्ग हिंसा की इन घटनाओं के प्रति उदासीन बना रहा। इस वर्ग के लिए आतंकवाद दूरदराज इलाके में होने वाली घटना थी, जिसका उनके रोज के जीवन से कोई लेना-देना नहीं था। लोकल ट्रेन या बाजारों में बम फटने पर चिंता तो होती थी, लेकिन ज्यादा नहीं। 29 अक्टूबर 2005 को दिल्ली के सरोजनी नगर मार्केट में बम विस्फोट हुए जिसमें 62 लोगों की मौत हो गई और 210 घायल हुए। तीन दिन बाद 1 नवंबर को दिवाली थी। उस शाम मैं अपनी बालकनी में खड़ा था। जितनी दूर तक आंखें देख सकती थीं, आसमान में हर जगह पटाखों की रोशनी नजर आ रही थी। उन्हें देखकर मेरा जी मितला रहा था। लोग इस तरह जश्न मना रहे थे मानो सुबह होगी ही नहीं। इस असंवेदनशीलता को यह कह कर ढंकने की कोशिश की जा रही थी कि हम आतंकवादियों को अपने रोजमर्रा की जिंदगी में बाधा डालने नहीं दे सकते।
फिर 26/11 की घटना हुई। तीन दिनों तक पाकिस्तानी आतंकवादी निर्दयतापूर्वक लोगों का संहार करते रहे। तब आतंकवाद ने अचानक नया अर्थ ले लिया। वह हमारे घर तक पहुंच गया था। लोगों को एहसास हुआ कि उस होटल में मैं भी हो सकता था। उन दिनों टेलीविजन पर होने वाली चर्चा आज भी याद है। संभ्रांत मध्य वर्ग के लोग तत्कालीन यूपीए सरकार के खून के प्यासे हो रहे थे, उन्हें होना भी चाहिए था।
कोविड-19 की दूसरी लहर भारत के मध्य वर्ग के लिए वही 26/11 का क्षण है। वायरस रूपी आतंकवाद ने बीते 3 हफ्तों में नया अर्थ धारण कर लिया है। पिछले साल मार्च में जब कोरोनावायरस की पहली लहर आई और सिर्फ 4 घंटे के नोटिस पर बिना किसी तैयारी के पूरे देश में लॉकडाउन कर दिया गया, मध्यवर्ग अपने घरों में सुरक्षित हो गए। लेकिन दुर्भाग्यवश यह सुरक्षा गरीबों को हासिल न हो सकी। लाखों प्रवासी मजदूर अपना परिवार और जो भी जमा पूंजी थी, उसे लेकर देश के राजमार्गों पर पैदल चल पड़े। जब वे अपने घरों को लौट रहे थे तब उन पर लाठियां बरसाई गईं, जबरन उन्हें क्लोरीन के पानी से नहलाया गया, ट्रक उन्हें रौंद रहे थे। मजबूर होकर उन मजदूरों ने नदी नालों का रास्ता अपनाया ताकि किसी तरह अपने घर पहुंच सकें। मध्यवर्ग ने इन घटनाओं पर चिंता तो जताई, लेकिन एक बार फिर, यह सब उनके साथ नहीं हो रहा था। उनसे नीचे का वर्ग इस नृशंसता का शिकार हो रहा था।
लॉकडाउन के शुरुआती दिनों में अपने ड्राइवर के साथ चर्चा मुझे याद है। उसने बताया कि उसके गांव के 10 लोग पैदल नेपाल स्थित अपने गांव लौट गए, क्योंकि वे जिनके यहां काम करते थे उन्होंने बिना किसी बात की परवाह किए उन्हें निकाल दिया था। कई बार वे दिन में एक 100 किलोमीटर पैदल चलते थे। उन्हें अपना घर पहुंचने में 10 दिन लगे। यह भी कटु सच है कि हालात ने उन्हें काम के लिए उन्हीं लोगों के पास लौटने को मजबूर किया जिन्होंने उन्हें निर्दयतापूर्वक निकाल दिया था। फिर कोरोना की दूसरी लहर आ गई। सबने इससे बचने के उपाय ढीले कर दिए थे। कुछ लोगों ने टीका लगवा लिया था तो कुछ लोग असमंजस में थे। लोगों ने मास्क पहनना बंद कर दिया था। सरकार पूरी तरह चुनाव लड़ने में व्यस्त थी। प्रधानमंत्री पश्चिम बंगाल की निर्वाचित मुख्यमंत्री के खिलाफ अपमानजनक भाषा का इस्तेमाल कर रहे थे जबकि उन्हें दूसरी लहर की चेतावनी देने वाले चिकित्सा विशेषज्ञों के साथ चर्चा करनी चाहिए थी। फरवरी के शुरुआत में उन्होंने संसद में कहा था कि भगवान ने कोरोना की पहली लहर से हमें बचा लिया।
17 मार्च 2021 को स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय के लिए ग्रांट की मांग पर जब मैंने चर्चा की शुरुआत की तब मैंने सरकार को चेताया था। मैंने कहा था, “यह चर्चा ऐसे समय हो रही है जब विश्व कोरोनावायरस संक्रमण की दूसरी लहर की चपेट में घिरता जा रहा है।” मैंने इस बात की ओर भी ध्यान दिलाया था कि जब सार्वजनिक स्वास्थ्य और राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़ी इतनी बड़ी चुनौती पर बहस हो रही है, तो स्वास्थ्य मंत्री सदन में मौजूद नहीं थे। लेकिन सरकार जानलेवा वायरस के बदलते रूप को लेकर पूरी तरह बेफिक्र थी, जबकि वायरस ने उसी समय लोगों को अपना शिकार बनाना शुरू कर दिया था, भले ही उन दिनों उसकी रफ्तार धीमी थी। महीने भर बाद जब वायरस ने पूरी शक्ति के साथ प्रहार किया तो लोगों की जान पर बन आई। सरकार तो जैसे कहीं नजर ही नहीं आ रही है। अचानक ना तो ऑक्सीजन है, न अस्पतालों में बेड, न रेमडेसिविर इंजेक्शन ना टॉसिलिजुएंब और ना ही बीमार पड़ने वालों की संख्या को देखते हुए वेंटिलेटर।
मध्यवर्ग के लिए पैसा, सोशल नेटवर्क, संपर्क और यहां तक कि जुगाड़ ने भी काम करना बंद कर दिया है। महज एक बेड की तलाश में मरीज एक अस्पताल से दूसरे अस्पताल भाग रहे हैं और उन्हीं अस्पतालों की पार्किंग में दम तोड़ रहे हैं। अनेक लोगों की मौत सिर्फ इसलिए हो गई क्योंकि जिन अस्पतालों में जीवन बचाने के लिए वे भर्ती हुए थे वहां अचानक ऑक्सीजन खत्म हो गई। वह भी कोई छोटे-मोटे अस्पताल नहीं, बल्कि देश की राजधानी के सबसे बड़े अस्पतालों की यह स्थिति थी।
हालत यह है कि श्मशान में शवों के दाह संस्कार के लिए लकड़ियां कम पड़ गई हैं, कब्रगाह में दफनाने की जगह नहीं बची है। बड़े-बड़े अस्पताल ऑक्सीजन की आपूर्ति के लिए रोजाना अदालत दौड़ रहे हैं।
मध्यवर्ग के लिए यह एक बार फिर 26/11 की घड़ी है। आतंकवाद की तरह वायरस ने भी लोगों के घरों पर भयानक हमला बोला है। एक वरिष्ठ रिटायर्ड आईएएस की बातों से लोगों की स्थिति का सहज अंदाजा लगाया जा सकता है। उन्होंने कहा, “मेरी तरह अनेक लोग यह समझते रहे कि हमारे साथ ऐसा नहीं होगा, लेकिन महामारी ने किसी को नहीं छोड़ा। मेरी मां और पति दोनों बिना इलाज के चल बसे। दिल्ली के जिन शीर्ष अस्पतालों में हम अक्सर जाया करते थे वहां इलाज के लिए जगह ही नहीं मिली। हां दोनों की मौत के बाद डॉक्टरों ने उन्हें कोविड पॉजिटिव घोषित कर दिया।” क्या यह घटना हमें सामूहिक रूप से शर्मशार नहीं करती?
गरीब इस बात को अच्छी तरह समझ रहे हैं कि अगर महामारी ने उन्हें अपनी चपेट में लिया तो उनके बचने की कोई गुंजाइश नहीं। दुर्भाग्यवश मध्यवर्ग को भी अब ऐसा ही एहसास होने लगा है। वे गुस्से में हैं और नाराजगी का इजहार कर रहे हैं। ‘भगवान की इच्छा’ से जब मौत का यह तांडव रुकेगा तो हमें उस सीख को नहीं भूलना चाहिए जिसे हमने अपने करीबियों को खोकर हासिल किया है। हम उस सीख का इस्तेमाल एक स्नेही, सहानुभूति और दया भाव रखने वाले देश के निर्माण में करें। दुःस्वप्न अभी खत्म नहीं हुआ है। आज जरूरत इस बात की है कि सब एक-दूसरे का हाथ थामें, चाहे वह गरीब हो अथवा अमीर, ताकि हम सब मिलकर इस वायरस पर विजय हासिल कर सकें।
(लेखक वकील, सांसद और भारत सरकार के पूर्व सूचना एवं प्रसारण मंत्री हैं। यहां व्यक्त विचार उनके निजी हैं)