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महामारी संकट : समुदाय आधारित भागीदारी बढ़ाने की जरूरत

महामारी की दूसरी लहर में पूरे देश में समुदाय सबसे अधिक व्यवहारिक (लचीली) संस्था के रूप में उभरे हैं।...
महामारी संकट : समुदाय आधारित भागीदारी बढ़ाने की जरूरत

महामारी की दूसरी लहर में पूरे देश में समुदाय सबसे अधिक व्यवहारिक (लचीली) संस्था के रूप में उभरे हैं। भारतीय परंपरा, मूल्य और सांस्कृतिक ताकत ने नई ऊर्जा और नए समूहों को स्वत: रूप से हम सबके सामने मदद के लिए लाकर खड़ा कर दिया है । इन सामुदायिक कार्यों ने ही समाज को राज्य और बाजार की विफलता से निपटने में सक्षम बनाया है। हालांकि इस बीच विभिन्न चिकित्सा उपकरणों की किल्लत, अस्पतालों में इलाज की बदहाली , केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा किसी भी वक्त बदले जाने वाले नियम और नियमों को लेकर अस्पष्टता ने लोगों को एक अलग लड़ाई लड़ने के लिए मजबूर कर दिया है।

मौजूदा दौर में प्रधानमंत्री द्वारा महामारी का सामना करने में नागरिक समाज की सक्रिय भागीदारी के लिए जोरदार और स्पष्ट आह्वान का बड़ा महत्व है। संकट के इस दौर में सचिवों के उच्चाधिकार प्राप्त समूह ने भी नागरिक समाज की भूमिका पर जोर दिया है। ऐसे में बिना समय गवाए नीति आयोग को यह कार्य प्रमुखता से करना चाहिए। जिसमें वह महामारी से जुड़े मुद्दों के समाधान के लिए एक रोडमैप तैयार करे। नीति आयोग के पास सरकारी संस्थानों के साथ जन भागीदारी को प्रोत्साहित करने का चुनौतीपूर्ण काम होगा। और साथ ही संकट प्रबंधन के लिए उसे ऐसे फ्रेमवर्क पर जोर देना होगा जो प्रभावी रूप से सामुदायिक भागीदारी को न केवल आकर्षित कर सके बल्कि व्यवस्था की कमजोरियों और विफलताओं पर ध्यान देकर तैयार किया गया हो। ऐसा करने से नीति आयोग अपने एसडीजी रणनीति के लक्ष्यों को भी हासिल कर सकेगा, जिसमें वह विकास को स्थानीय भागीदारी के साथ जोड़ना चाहता है।

नीति आयोग की भूमिका

नीति आयोग को इस समय किसी नई सरकारी योजना की जगह ऐसे लोगों की पहचान करनी चाहिए जो पहले से ही सामुदायिक पहल के जरिए बेहतरीन काम कर रहे हैं। नीति आयोग को उनके जरिए महामारी से निपटने के लिए जमीनी स्तर पर एक पूरा तंत्र तैयार करना चाहिए। इसके लिए नीति आयोग को उच्च तकनीकी का इस्तेमाल करना चाहिए (एबीसीडी- आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस, ब्लॉकचेन, क्लाउड कंप्यूटिंग और डेटा एनॉलिटिक्स)। जिनके जरिए मांग और आपूर्ति के अंतर के बीच एक कड़ी का काम किया जा सकता है। और उन्हें आने वाली सहायता और सामग्रियों से जोड़ा जा सकता है। अब समय आ गया है कि नीति आयोग ऐसे संस्थागत ढांचे को लागू करे जो समुदायों की गतिविधियों को युक्तिसंगत बनाता हो और राज्य की विफलता को दूर करता हो । जो आज की सबसे बड़ी जरूरत है।

नीति आयोग को क्रॉसलर्निंग को बढ़ावा देने और परिचालन की लागत   को कम करने के अनुभवों को शामिल करना चाहिए । और घिसे पिटे तरीकों के नए सिरे से इस्तेमाल करन की जगह नए प्लेटफॉर्म की खोज करनी चाहिए। साथ ही इसके लिए इच्छुक राज्यों के साथ साझेदारी भी करनी चाहिए। यह प्रयास संभवतः राहत के कदमों को बड़े स्तर पर ले जाने के लिए मदद कर सकता है और कुछ मामलों में नए विचारों को शामिल करने से सूचना के असामान्य प्रवाह को भी दूर करेगा। इन तरीकों में सामान्य तौर पर नौकरशाही द्वारा डाली जाने वाली बाधाओं की गुंजाइश कम से कम होनी चाहिए। साथ ही निर्णय लेने में समुदायों की भागीदारी बढ़ाने और स्थानीय स्तर पर उनके क्रियान्वन की निगरानी का तंत्र विकसित होना चाहिए।

इस उद्देश्य में नीति आयोग का दर्पण वेबपोर्टल काफी कारगर हो सकता है। दर्पण विकासपरक कार्यों में लगे सभी स्वैच्छिक संगठनों (वीओ) / गैर-सरकारी संगठनों (एनजीओ) का वेबपोर्टल है। नीति आयोग के लिए चुनौती यह होगी कि वह ऐसे इकोसिस्टम (पारिस्थितिकी तंत्र) पर काम करे जिसमें नए लोगों को शामिल करने की सुविधा मिले। जो कि नई सामाजिक और नई आर्थिक नीतियों से बाहर हो गए हैं। इस समय कई अनौपचारिक संस्थाएं, स्टार्ट अप और अन्य को जल्द से जल्द आपस में जोड़ने की जरूरत है।

सामुदायिक कार्रवाई

जब सरकार के नेतृत्व वाली पहली पंचवर्षीय योजना आगे बढ़ रही थी तो उस वक्त जे डी सेठी और अन्य गांधीवादी अर्थशास्त्रियों ने सामुदायिक भागीदारी का आह्वान किया। उनकी पहल पर सामुदायिक समूहों ने धन एकत्र किया और विकास के लिए सरकारी प्रयासों को पूरक बनाया। इस प्रयास से कुछ महत्वपूर्ण योजनाओं को समर्थन मिला। इन कार्यक्रमों में ग्रामदान, प्रौढ़ शिक्षा, मध्याह्न भोजन, स्कूल सुधार आदि शामिल थे। इस तरह के प्रयासों से लोगों के लिए स्वामित्व और भागीदारी की भावना सुनिश्चित हुई।

पिछले कुछ वर्षों से इन परंपराओं और मूल्यों का विचार खो गया और हम किराए पर सहयोग लेने वाली संस्थाएं बन गए हैं। परिणामस्वरूप, सामुदायिक कार्रवाई के दृष्टिकोण ने गैर सरकारी संगठनों का गठन किया। और उनमें से कई ने जरूरी नैतिकता का पालन नहीं किया। विदेशी सहायता और ओडीए के आने से कई ने बड़े पैमाने पर परियोजनाओं की सफलता में अहम योगदान दिया। लेकिन साथ ही उनमें से कई एफसीआरए जैसे मुद्दों के साथ खत्म हो गए। कई एनजीओ थे जिन्होंने प्रवासी मजदूरों के संकट के दौरान उल्लेखनीय योगदान दिया।

माइक्रो मॉडल

कई ऐसे माइक्रो-मॉडल आ रहे हैं जो बड़ी छाप छोड़ रहे हैं। छात्रों का छोटा समूह या एक जिला कलेक्टर और यहां तक कि एक गुरुद्वारा समाज में सकारात्मकता को बढ़ाने के लिए पर्याप्त है। और लोगों के दुख को कम करने में सक्षम है। करुणा के साथ प्रौद्योगिकी और प्रबंधकीय कौशल भी इन प्रयासों में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं।

उदाहरण के लिए, कोविड -19 स्थिति से निपटने में नंदरबार में जिला कलेक्टर ने बेहतरीन प्रशासनिक भूमिका के जरिए व्यापक रुप से सबका ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया है। इसी तरह डॉ राजेंद्र भारूद ने आज के संकट में अस्पतालों में बेड , गंभीर रोगियों और ऑक्सीजन की आपूर्ति के बीच बेहतरीन समन्वय बनाया है। उन्होंने शहर के दो ऑक्सीजन संयंत्रों की क्षमता बढ़ाने के अलावा, निजी अस्पतालों को भविष्य की जरूरतों को पूरा करने के लिए ऑक्सीजन का पर्याप्त उत्पादन और आपूर्ति करने के लिए प्रेरित किया। उनके प्रयासों का ही परिणाम था कि दिन के अंत में, उनके पास जिले में आवश्यकता से अधिक ऑक्सीजन वाले बेड थे। नतीजतन पड़ोसी जिलों और राज्यों के लोग अब नंदरबार पर पहुंचकर इलाज करा रहे हैं।

भारत के बाहर बस चुके आईआईटी के छात्रों द्वारा शुरू किए गए ब्रीथइंडिया और हेल्पनाऊ ऐप्स ने भी लोगों को राहत पहुंचाने के विकल्प दिए हैं। इन ऐप्स के जरिए ऑक्सीजन कंसंट्रेटर्स, अस्पतालों में बेड और यहां तक कि एम्बुलेंस तक पहुंच की सुविधा प्रदान की है। ब्रीथइंडिया लगभग 200 ऑक्सीजन कंसंट्रेटर्स  और 2.41 करोड़ रुपये का फंड जुटा चुका है। ब्रीथ इंडिया को आईआईटी कानपुर के पांच छात्रों ने मिलकर शुरू किया है। इसी तरह हेल्पनाऊ को आईआईटी बॉम्बे के एक अंडरग्रैजुएट छात्र आदित्य मक्कड़ ने शुरु किया है। इसके जरिए वह लोगों को स्वच्छ और जरूरी सुविधाओं से युक्त एम्बुलेंस प्रदान कर उनका जीवन बचाने का प्रयास कर रहे है। एक साक्षात्कार में श्री मक्कड़ ने कहा कि उन्होंने 2017 में अपने पिता को खोने के बाद इस पहल के बारे में सोचा । उस वक्त उन्हें एक अदद एम्बुलेंस के लिए काफी संघर्ष करना पड़ा था।

इस तरह की कई पहलें देश भर में हो रही हैं। लेकिन उनका आपस में कोई जुड़ाव नही है और उनकी सार्वजनिक स्तर पर पहचान भी कम है। माइक्रो मॉडल को ऐसी पहल करने के लिए विस्तार देने और अवसर मिलने की आवश्यकता होती है। आर्थिक सिद्धांत के अनुसार, हर लेन-देन में दोनों पक्षों को कुछ मिलता है। लेकिन जिन मॉडल्स की हम चर्चा कर रहे हैं, वह एकतरफा है। वहां दोनों पक्षों को कुछ मिलने की गुंजाइश नहीं है।

आगे का काम

कोविड-19 से संबंधित चुनौतियों, नुकसान और दुख पर रिपोर्टिंग के जरिए हर दिन अखबार सबसे कठिन और दर्दनाक काम कर रहे हैं। दिल तोड़ने वाली तस्वीरों और रिपोर्टों से एक ऐसी स्थिति आ गई है जिसे मेडिकल प्रोफेशनल्स तकोत्सुबो कार्डियोमायोपैथी कहते हैं। यानी एक अस्थायी दिल की स्थिति जो तनाव से भरा पड़ा है । नीति आयोग को सामुदायिक उपलब्धियों के दस्तावेजीकरण के लिए काम करना होगा। इस समय यह महत्वपूर्ण है कि समाज एकजुट हो और अपनी पहल और निहित शक्ति के साथ समर्थन और साझेदारी के लिए आगे आए। इन छोटे-छोटे प्रयासों को बड़े पैमाने पर प्रसारित और लोगों को प्रेरित करने के लिए रिपोर्ट किया जाना चाहिए ताकि सिस्टम पर एकमात्र निर्भरता काफी कम हो जाए।

हमें यह भी समझना होगा कि नागरिकों के लिए राज्य या बाजार एकमात्र साधन नहीं हो सकते। प्रभावी सामाजिक हस्तक्षेप और सामुदायिक भागीदारी निश्चित रूप से उपयोगी भूमिका निभा सकती है। और उनके जरिए कुछ सकारात्मक कार्यों को आगे बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है।

महामारी ने हमारे सामने उन तरीकों को रखा है जिसे सामुदायिक कार्यों ने तार्किक बनाने में योगदान दिया है। किसी भी सामाजिक समस्या का समाधान एक प्रभावी सामूहिक कार्रवाई का आह्वाहन करता है। जो हितधारकों के कई समूहों की आकांक्षाओं को शामिल करता है। वर्तमान महामारी निश्चित तौर पर विनाशकारी स्थिति से छुटकारा पाने के लिए मिल-जुल कर किए जाने वाले प्रयासों की आवश्यकता की ओर इशारा कर रही है।

(लेखक नई दिल्ली स्थित रिसर्च एंड इंफॉर्मेशन सिस्टम फॉर डेवलपिंग कंट्रीज के डायरेक्टर जनरल हैं। यह उनके निजी विचार हैं)

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